श्रीकृष्ण दूतम्।
दूत बने थे श्रीकृष्ण पांडवों के, जाने से पहले पांडवों से परामर्श करते है।
युधिष्ठिर कहते है कि हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और पाँचवा जो वे चाहे - ऐसे पाँच गाँव दे दें और भरत वंश का नाश न हो। इसलिए पहला मार्ग तो संधि का रखे। श्रीकृष्ण उसे जवाब देते है कि क्षत्रिय को भीख नहीं माँगनी चाहिए, दीनता उसके लिए प्रशंसा की चीज नहीं है, इसलिए पराक्रमपूर्वक शत्रुओं का दमन कीजिए।
भीम ने कहा, है मधुसूदन, आप दुर्योधन से ऐसी ही बातें करें जिससे वह संधि के लिए राज़ी हो जाय। युद्ध की बातें कर उसे भयभीत न करें। दुर्योधन के क्रोध से सभी भरतवंशी भस्म हो जायेंगे। भरतवंश को बचाने हम दुर्योधन के नीचे रहकर उसे अनुसरण करने को भी तैयार है। परंतु श्रीकृष्ण उसे द्रौपदी के अपमान के वक्त ली उसकी दुर्योधन वध की प्रतिज्ञा याद कराते हैं और युद्ध के लिए तैयार होने को कहते है।
फिर अर्जुन ने कहा, हे श्रीकृष्ण, धृतराष्ट्र का लोभ और मोह के कारण अवरोध है पर आप ठीक रीति से प्रयास करे तो तो सफल हो सकते है। फिर भी आप उचित समझें, जिसमें पांडवों का हित हो वह करे। श्रीकृष्ण उसे समझाते हैं कि दुर्योधन को उसके कर्मो का फल देना है और पृथ्वी का भार उतारना है।
नकुल ने कहा आपने तीन भाइयों की बात सुनी है। आप शत्रु का विचार जानकर जैसा करना उचित समझें, वही करें।पहले संधि की बात करें बाद में युद्ध की धमकी दें। सहदेव ने कहा आप ऐसा प्रयत्न करें जिससे युद्ध ही हो।भरी सभा में द्रौपदी की जो दुर्गति हुई थी वह दुर्योधन के प्राण लिये बिना कैसे शांत होगी? फिर सात्यकि ने सहदेव से सूर मिलाते कहा, दुर्योधन के वध से ही कोप शांत होगा। बाक़ी यौद्धाओं ने भी ठीक है, ठीक है, कह युद्ध के विकल्प को समर्थन दिया।
श्रीकृष्णने इसके बाद द्रौपदी से बातचीत की। द्रौपदी सहदेव और सात्यकि की प्रशंसा कर बोली, हे मधुसूदन, दुर्योधन राजभाग न दे तो संधि मत करिए। कोई ढील ढाल न करें क्योंकि शत्रु को दंड देना है। वह उसके अपमान की याद दिलाकर कहती हैं कि हे केशव शत्रुओं से सन्धि की आपकी इच्छा है किंतु आप दुःशासन के हाथोंसे खींचे मेरे केशपास को याद रखें। तेरह साल से मुझे प्रतीक्षा है, दुःशासन की साँवली भुजा को काटकर धूलिधूसरित होते देखना। मेरी छाती तब तक ठंडी नहीं होगी। श्रीकृष्ण धैर्य देते हुए कहते है, हे कृष्णे, तुम शीघ्र ही कौरवों की स्त्रीयों को रुदन करते देखोगी। धृतराष्ट्र पुत्र अगर मेरी बात नहीं सुनेंगे तो कुत्ते और गीदड़ों के भोजन बनेंगे। मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम शीघ्र ही शत्रुओंके मारे जाने से अपने पतियों को श्रीसंपन्न देखोगी।
अर्जुन फिर कहता हे कि, हे श्रीकृष्ण आप दोनों पक्के संबंधी है इसलिए दोनों का मेल कराकर संधि करावे।श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि धर्म के अनुकूल बात करूँगा जिसमें हमारा और कौरवों का हित होगा इतना कह वह रथ में सवार होकर आयुधों के साथ सात्यकि को और सुरक्षा सैन्य लेकर हस्तिनापुर चल दिये।
यहाँ धृतराष्ट्र ने भी हर्षित होकर उनके स्वागत की तैयारी शुरू कर दी। दुर्योधनने आज्ञानुसार सुन्दर विश्रामस्थान बनवाने आरम्भ किये और श्रीकृष्ण के भव्य स्वागत की तैयारी की। उनके रास्ते में जल छिड़कवा दिया, ध्वज पताकाएँ लहराईं, उनको ठहरने दुःशासन का महल तैयार करवाया। विदुर ने तब धृतराष्ट्र को बताया कि आप धन और अच्छे स्वागत की लालच देकर श्रीकृष्ण को अर्जुन और पांडवों से अलग नहीं कर पाओगे। दुर्योधन ने भी भेंट सौग़ात न देने के विदुर के प्रस्ताव को समर्थन किया। पर यह भी बताया कि जीते जी वह राजलक्ष्मी को पांडवों के साथ बाँटकर भोगना नहीं चाहता। उसने पांडवों को अधीन करने श्रीकृष्ण को क़ैद करने का विचार किया। भीष्म, धृतराष्ट्र और मंत्रियों ने विरोध किया और भीष्म सभा से उठकर चले गये।
श्रीकृष्ण हस्तिनापुर आये। दुर्योधन के सिवा सभी कौरवों और धृतराष्ट्र, भीष्म आदि ने उनका आगे बढ़कर स्वागत किया। राजमार्ग सजायें गये थे और पूरा हस्तिनापुर आज श्रीकृष्ण दर्शन के लिए राजमार्ग पर था। सभागार में प्रवेश होते ही सब ने अपने स्थान पर से उठकर उनका स्वागत किया। बैठने सुवर्ण का सिंहासन दिया और धृतराष्ट्र ने उनका पूजन सत्कार किया। सत्कार के पश्चात श्रीकृष्ण विदुर भवन गये और इसके बाद बूआ कुन्ती के पास गये। कुन्ती ने अपने पुत्रों को क्षात्र धर्म का संदेश दिया। श्रीकृष्ण दुर्योधन के पास पहुँचे जहां सुवर्ण के पलंग में बैठाकर दुर्योधन ने उनका सत्कार किया और भोजन के लिए आमंत्रित किया। किंतु श्रीकृष्ण ने अस्वीकार किया। दुर्योधन ने प्रश्न किया तो बताया कि दूत अपना कार्य उद्देश्य पूर्ण करने के बाद ही भोजनादि ग्रहण करता है। तटस्थता बनाये रखने उन्होंने विदुर के भवन आकर उनके घर का भोजन स्वीकार किया और बताया कि वह क्षत्रियों के हित का प्रयत्न करेंगे।
दूसरे दिन राजसभा में श्रीकृष्ण का स्वागत पूजन हुआ। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर की बात रखी और सन्धि की बात की और पांडवों ने बारह वर्ष वनवास और एक साल अज्ञात वास की शर्तें पूरी की है इसलिए उनके हिस्से का पैतृक राज्य देने का प्रस्ताव रखा। महर्षि परशुराम ने नर-नारायण रूप का वर्णन कर सन्धि करने सलाह दी। ऋषि कण्व ने भी सन्धि सलाह दी। वेदव्यास, भीष्म और नारदजी ने भी दुर्योधन को समझाया। धृतराष्ट्र भी सहमत हुए पर बताया कि वह स्वाधीन नहीं है। दुर्योधन को समझायें तब काम बनेगा। श्रीकृष्ण ने मधुर स्वर में दुर्योधन को समझाने का प्रयत्न किया। सन्धि मे शान्ति है, दोनों का बल मिलकर एक अजेय सेना की संभावना जतायी। दुर्योधन की कमियाँ और पांडवों के सद्गुणोंका ज़िक्र किया। बलाबल मे पांडवों का मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता यह दर्शाया। भीष्म ने भी दुर्योधन को श्रीकृष्ण की बात को मानकर सन्धि स्वीकार संहार रोकने की सलाह दी। द्रोणाचार्य ने भी प्रस्ताव हितकारी बताकर उसे स्वीकार करने की राय दी। विदुर ने भी कहा कि उन्हें दुर्योधन के लिये कम किंतु उसके बूढ़े माँ-बाप की ज़्यादा चिंता है। अंत में धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युधिष्ठिर के पास जाकर सन्धि कर उनके साथ काम करने को कहा।
अब दुर्योधन की बारी थी। अपना पक्ष रखने की। उसने कहा कि हे केशव, आप मुझे दोषी ठहरा कर मेरी निंदा करते रहते हो। मुझे तो अपना कोई दोष नहीं दिखता। पांडव शौक़ से जुआ खेलकर अपना राज्य हारे थे और वन गये थे, उसमें उसका क्या क़सूर? फिर बलाबल में खुद को भीष्म, द्रोण, कृप और कर्ण की वजह से बलवान बताया। स्वधर्म और क्षत्रिय धर्म का निर्वाह करते अगर वे युद्ध में वीरगति प्राप्त हुए तो उन्हें कोई पछतावा नहीं होगा। उनकी बाल्यावस्था में अज्ञान या भय के कारण पांडवों को राज्य मिल गया था जो अब नहीं मिल सकता।
श्रीकृष्ण ने जवाब देते बताया कि उसकी वीरशय्या की इच्छा पूरी होगी। पांडवों को जूआ खेलने की खोटी सलाह शकुनि ने दी थी। द्रौपदी के साथ हुए दुर्व्यवहार और कही अनुचित बातों की याद दिलाई। वारणावत में पांडवों को माता सहित फूंक डालने का भारी यत्न किया था वह याद दिलाया। पांडवों को पैतृक भाग नहीं दोगे तो मरकर देना पड़ेगा। श्रीकृष्ण के कठोर वचन सुनकर दुर्योधन ग़ुस्से से सभागार छोड़ गया।
फिर गांधारी को दुर्योधन को समझाने बुलाया तो उसने पुत्र मोह के लिए धृतराष्ट्र को दोषी ठहराया। दुर्योधन को फिर से सभा में बुलाया गया। वह क्रोध से भरा था। गांधारी ने उसे पांडवों से सन्धि करने को कहा। लेकिन दुर्योधन ने माता के वाक्यों पर ध्यान नहीं दिया और वापस निकला। फिर दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन ने मिलकर श्रीकृष्ण को क़ैद करने की योजना बनाई। सात्यकि यह जान गया इसलिए सुरक्षा के प्रबंध कर जाकर श्रीकृष्ण को सूचना दी। श्रीकृष्ण ने यह बात धृतराष्ट्र और विदुर को बताई। धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को ताकीद कर बुलाया और डाँटा। श्रीकृष्ण ने उसी क्षण दुर्योधन को अपने स्वरूप का दर्शन कराया जिसमें सब देवगण, पांडव, यादव इत्यादि आयुधों सहित मौजूद थे। धृतराष्ट्र ने प्रार्थना की को उन्हें भी ज्ञानचक्षु प्रदान कर यह रूप का दीदार करवाया। फिर उन्होंने अपनी माया समेट सात्यकि और कृतवर्मा का हाथ पकड़कर सभा भवन से चल दिये। वहाँ से कुन्ती को मिले। कुन्ती ने पुत्रों को धर्मयुद्ध करने को कहा। भीष्म और द्रोण ने यह सुनकर दुर्योधन को सन्धि करने समझाया जिससे वह उदास हो गया।
इधर श्रीकृष्ण कर्ण को रथ में बैठाकर हस्तिनापुर से बाहर लाये और उसे वह कुन्ती पुत्र हैं और पांडव उसके छोटे भाई है यह बताकर पांडवों से जुड़कर राजा बनने का आह्वान किया। परंतु कर्ण ने यह कहकर उसका अस्वीकार किया कि जब कुन्ती ने उसे त्याग दिया था तब सुत माता राधाने उसे स्नेह पूर्वक बड़ा किया है। इसलिए उसके पिण्ड का वह लोप नहीं कर सकता। सुत होकर वह पला बड़ा हुआ है, सुतों में शादी हुई है, बेटे पोते हो चुके है, इस अवस्था में उनको छोड़कर वह लौट नहीं सकता। दुर्योधन ने उसके भरोसे ही युद्ध मोल लिया है उसे वह धोखा नहीं दे सकता।
श्रीकृष्ण ने फिर कर्ण को कहा कि तुम्हें राज्य प्राप्ति का उपाय भी मंज़ूर नहीं इसलिए जाकर द्रोणाचार्य, भीष्म और कृपाचार्य को सूचना दे दो कि यह महिमा अच्छा है, फलों की अधिकता है, मक्खियाँ कम है, कीच सूख गई है, विशेष गर्मी ठंडी नहीं है, आपसे सातवें दिन अमावस्या के दिन युद्ध प्रारंभ करो।
कर्ण ने श्रीकृष्ण का आलिंगन लिया और हस्तिनापुर लौट आया और श्रीकृष्ण पांडवों के पास चल दिये। युधिष्ठिर और पांडवों ने श्रीकृष्ण से सारी कहानी सुनकर युद्ध की तैयारी आरंभ कर दी।
कहानी से यह स्पष्ट हो जाता है किः
१) महाभारत युद्ध के प्रमुख नायक श्रीकृष्ण थे।
२) वह इतने महान होते हुए भी दुर्योधन की बुद्धि को युद्ध के भयानक परिणामों से नहीं डरा पाये न सन्धि करा पाये। उन्होंने भीम ने कही बात याद नहीं रखी पर द्रौपदी के दिये वचन को याद रख यत्न किया। क्या उनका वह प्रयास गंभीर था?
३) क्या दुर्योधन इतना मूर्ख था कि कुछ दिन पहले विराटनगर युद्ध में उसके सब महारथी होते हुए सब अकेले अर्जुन से हार गये थे वह भूल गया था?
४) श्रीकृष्ण ने बिना पांडवों से पूछे आती अमावस्या को युद्ध की घोषणा क्यूँ कर दी? क्या वही थे कर्ताधर्ता?
५) कौरव पक्ष में सब तो तैयार थे संधि के लिए एक दुर्योधन को छोड़कर, फिर क्यूँ अपने विराट रूप से अकेले दुर्योधन को वह नहीं बदल सके? अगर उन्होंने दुर्योधन के साथ भोजन ग्रहण किया होता तो शायद वह उसके क्रोध का शमन कर रास्ता निकाल सकते थे।
६) पांडवों के पक्ष में क्षत्रिय धर्म और पैतृक संपत्ति वापस लेने का धर्म है। कौरव पक्ष में बड़े पुत्र के राज्याधिकार का अधर्म है?
७) पांडवों के पक्ष में वनवास और अज्ञातवास की शर्तें पूरी हुई थी इसलिए राज्य वापस लेना है। कौरवों के पक्ष में सूर्य केलेन्डर से अवधि समाप्त नहीं हुई थी इसलिए पांडवों को वन में वापस भेजना चाहते थे। किंतु विराटनगर युद्ध में भीष्म ने चांद्र वर्ष की गिनती कर हर पाँच वर्ष में आनेवाले दो अधिक माह को गिनती में लेकर पांडवों के पक्ष में अवधि पूरी हुई बताया था।
८) वैसे तो धृतराष्ट्र और पाण्डु हस्तिनापुर महाराज शांतनु् के बेटे राजा विचित्रवीर्य के संतान नहीं थे। वह तो मर चुके थे। वे तो पराशर और मत्सयगंधा के प्रेमपुत्र महर्षि वेद व्यास ने विधवाओं से किये नियोग के पुत्र थे। यहाँ क्षत्रिय धर्म का बात की संगति नहीं बैठती।
९) धृतराष्ट्र ज्येष्ठ होते हुए भी अंधे होने की वजह से राजा नहीं बन पाये लेकिन जब पाण्डु ने निवृत्ति ली तब उसे राजा स्वीकार कर लिया गया। यह बात उसे बहुत परेशान कर रही थी। यह कैसा नियम? उसका मानना था कि प्रथम बार भी उसे ही राजा घोषित करना चाहिए था। ज्येष्ठ पुत्र होते वह राजा बने तो उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र दुर्योधन बनता है। फिर पांडवों से बँटवारे का प्रश्न कहाँ? पांडवों का पक्ष था कि राज्य का विस्तार पाण्डु ने किया था और प्रथम राजा वह थे इसलिए उनका अधिकार है। भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, विदुर कौरव पक्ष में रहे यह भी हक़ीक़त है।
१०) एक बात और भी रही, पैतृक संतान की। कौरव धृतराष्ट्र-गांधारी के पुत्र थे। जबकि पांडव पाण्डु के नहीं, कुन्ती के मंत्रपुत्र थे।
आख़िर में किसने कैसा यत्न किया यह युद्ध रोकने का, यह बात गौण हो गई। १०-१२ को छोड़कर दोनों पक्षों के हज़ारों सैनिकों और महारथियों का नाश हुआ। द्रौपदी के पाँचों पुत्र मारे गये। अभिमन्यु मरा। जिस संतानों के लिए युद्ध किया वह ही नहीं रहे। यादवों का भी यादवास्थली में श्रीकृष्ण सहित विनाश हुआ। परिणाम ख़राब ही आया। युद्ध और हिंसा से राज्य पाने का विकल्प विफल रहा।
एक ही सिद्धि थी इस युद्ध की। हमें मिल गये एक युग पुरूष, पूर्ण पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण, और उनकी श्रीमद् भगवद्गीता जो पूरे भारत वर्ष को आज भी मार्गदर्शन दे रही है।
महाभारत महाकाव्य महाबोध है।
युद्ध नहीं बुद्ध सही मार्ग है।
पूनमचंद
२७ मई २०२२