Monday, June 27, 2022

Manusmriti-1 (आचारः परमो धर्मः)

 मनुस्मृति-१

आचारः परमो धर्मः। 


मनुस्मृति ने मनुष्यों का चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र) में विभाजन किया है। हर एक वर्ण के आचार निहित किये है और आचरण को ही धर्म बताया है। कहीं पर यह नहीं बताया कि ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण, क्षत्रिय का क्षत्रिय, वैश्य का वैश्य और शुद्र का शुद्र बनेगा। जन्म से तो सभी शुद्र है जो जोड़े के संभोग से स्थापित होते हैं और रस रक्त से पोषित होकर योनि मार्ग से बाहर आते है। आचरण ही उसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र बनाता है। 


अध्यापन, अध्ययन, यज्ञ करना-करवाना, दान देना-लेना ब्राह्मण कर्म है। प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना और विषयों से अनासक्त रहना क्षत्रिय कर्म है। पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, व्यापार करना, सूदखोरी और कृषि वैश्य कर्म है। तीन वर्णों की बिना ईर्ष्या सेवा करना शुद्र का कर्म है।


मनुस्मृति की रचना का उद्देश्य ब्राह्मणों के कर्म विवेक के लिए है इसलिए वह ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की बात करती है। श्रेष्ठता आते ही ऊँच नीच लागू हो जाता है और मनुष्य जाति का विभाजन हो जाता है। 


मनुस्मृति बताती हैं कि चार वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के अंग से अनुक्रम से ब्राह्मण की मुख से, क्षत्रिय की बाहु से, वैश्य की जंघा से और शुद्र की पैर से बताई गई है। फिर नाभि के उपर के भाग को अच्छा मानकर मुख सबसे उपर होने से मुख से जन्मे ब्राह्मण को श्रेष्ठ बताया है।देवों, कव्यो और पितृओ के उन्हीं के माध्यम से आहुति पहुँचती है। मुख आ गया और मुख से भोजन इसलिए ब्रह्म भोज की बड़ी महिमा रही है। 


सब भूतों में प्राणी को, सब प्राणियों में बुद्धिमान प्राणी को, बुद्धिमान प्राणियों में मनुष्य को और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ बताया है। ब्राह्मणों में विद्वान, विद्वानों में सिद्ध बुद्धिवाला, सिद्धौ में आचरण निष्ठ, और आचरण निष्ठ में ब्रह्मवेत्ता (ब्रह्म को जाननेवाला) श्रेष्ठ है। यानि योनि से बाहर आकर ब्रह्मज्ञानी होने तक ही यह यात्रा है। 


आगे बताते हैं कि ब्राह्मण जन्मते (बनते) ही पृथ्वी का अधिपति होता है। इस जगत में जो भी कुछ है वह श्रेष्ठ होने से ब्राह्मण का है। इसलिए ब्राह्मण खुद का खाता है, खुद का पहनता है, खुद का देता है और दूसरे सब उसकी कृपा से भोगते है। 


औसतन हर श्लोक की हर लाईन १८-१९ अक्षरों से बनी है। यह कहा जाता है कि अगर श्लोक में एक अक्षर की भी बचत हो जाए तो रचयिता ख़ुशी से झूम उठता है। फिर श्लोक नंबर १०८ में चूक कैसे हुई? दूसरी लाइन २३ अक्षरों की बन गई। 


आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च। 

तस्मादस्मिन्सदा युक्त्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः।। (मनुस्मृति १.१०८)


अर्थात् श्रुति (वेद-वेदांत) और स्मृति में दर्शाया आचार ही परम धर्म है। इसलिए नित्य आत्मवान को आचार में युक्त रहना चाहिए। यहाँ आत्मवान में द्विज शब्द बाद में जोड़ा दिखता है। क्योंकि कि आगे जाकर द्विज को ही शिक्षा का अधिकार प्राप्त है जिससे शुद्र जन्मा हर मनुष्य उर्ध्व आचरण से, कर्म से, गुण विकास से ब्राह्मण बन सकता है और उच्चतम ब्रह्मज्ञानी स्थिति को पा सकता है। 


मनुस्मृति एक आचरण विधान है जिसमें जगत की उत्पत्ति, गर्भाधानादि संस्कारों की विधि, ब्रह्मचारी के व्रत, सेवा, उपचार; स्नान विधि, शादी-विवाह, यज्ञ और श्राद्ध का निरूपण है। हिन्दु संस्कृति इसी ग्रंथ के आसपास ही विकसित हुई है। 


पर एक बार तो तय है कि बिना ब्रह्मज्ञान कोई ब्राह्मण हो नहीं सकता। 


ज्ञान लीजिए और खुद को टटोल लीजिए।  


पूनमचंद 

२१ जून २०२२

Mother Lapwing (माँ टिटिहरी)

 माँ टिटिहरी। (Mother Lapwing)


टिटिहरी एक रहस्यमय पक्षी है। पौराणिक काल से इसकी कहानियाँ लिखी गई है। भारत के सभी प्रदेशों में टिटिहरी पाई जाती है। जलीय, खेतों की जमीन के खुले व सुखे वातावरण, ताजे पानी की दलदल, झीलों के किनारों और रेतीले पथरीले नदी तटो में यह पाई जाती है। 


मातृत्व शक्ति और निडरता से भरी है मनमौजी चिड़िया एक ऐसा अनोखा पक्षी है जो उड़ता कम है और अपना अधिकांश समय जमीन पर बिताता है। वह किसी से भी लोहा ले सकती है। उसकी दरिया से लड़ाई की कहानी आपने सुनी ही होगी। अपने अंडों को डूबो देने वाले दरिया को रेत से भर देने वह निकल पड़ती है। 


टिटिहरी बाहरी आक्रमणों के प्रति अत्यंत सजग रहने वाली चिड़िया होती है। उसे अपने अंडों और बच्चों की रक्षा की फ़िक्र हमेशा लगी रहती है। जो खतरा महसूस होते ही तीव्र ध्वनि के साथ शोर मचाती है। टिटिहरी की आवाज तेज और वेधक होती हैं। 


टिटिहरी मादा तो अंडों के पास रहती ही है पर नर भी उसे दाना पानी जुटाने में मदद करता है।जब तक अंडे परिपक्व होकर फोड़ने की स्टेज पर आते हैं दोनों साथ होते हैं। टिटिहरी चार पांच अंडे देती है उनमें कम से कम तीन बच्चे तो सलामत निकल आते हैं।जब भी कोई आता है वे शोर मचाने लग जाते है।अंडों से बच्चे निकलते ही मां के साथ चलना व दाना चुकना शुरू करते हैं जो आदमी के बच्चों को कम से कम दो साल का समय लगता है। टिटिहरी के नवजात बच्चों को खतरे का आभास होते ही मां के पास भागते हैं। नर टिटिहरी भी कभी साथ और कभी दाना लाने चला जाता है।कुदरत ने पेरेंटल ज़बाब दारी निभाने का दायित्व कनसेप्शन के दिन से ही दे दिया जब वे पहले बच्चे देने सुरक्षित स्थान के चयन में लग जाते हैं।


रात में जब सब चिड़िया अपने घोंसले में सो जाती है टिटिहरी उड़ती और आवाज़ करती सुनाई देती है। मेरे घर के पास एक सूखा तालाब है। किसी दिन पढ़ते पढ़ते देर रात हो जाती है तब उस नीरव शांति में टिटिहरी की आवाज़ एक मज़ेदार कंपनी बन जाती है। 


आपको पता है टिटिहरी रात में पीठ के बल सोती है और अपने पैर आसमान की और फैलाये रखती है। किसी निशाचर पक्षी ने पूछा, अरी ओ टिटिहरी तुम रात में ऐसे पैर उपर कर पीठ के बल क्यों सोती हो? पता है टिटिहरी ने क्या जवाब दिया? 


यह आसमान जो उपर दिख रहा है वह अगर मेरे बच्चों पर रात में गिरेगा तो मैं मेरे पैरों से उसे रोक दूँगी। है न हिम्मतवाली? 


माँ चाहे इन्सान की हो या पशु पक्षी की। माँ, माँ ही होती है। किसी से नहीं डरती। अपने बच्चों की हमे रक्षा करती है। उसकी बराबरी और कोई नहीं कर सकता। 


अब जब टिटिहरी को देखो तब गौर से देखना। आप की हिम्मत बढ़ जायेगी। 


पूनमचंद 

१२ जून २०२२

श्रद्धावानम् लभते ज्ञानं (गीता ४.३९)

श्रद्धावानम् लभते ज्ञानं, संशयात्मा विनश्यति। 


श्रीमदभगवद्गीता के चौथे अध्याय ‘ज्ञानकर्मसंन्यासयोग’ के श्लोक ३९ और ४० में से एक एक वाक्य उठाकर बना बोध वाक्य बड़ा प्रचलित है। 


जवाब चल रहा है अर्जुन के तीसरे अध्याय के प्रश्न का कि मानुष न चाहते हुए भी मजबूरन किसकी प्रेरणा से पाप करता है? 


भगवान उसका जवाब देते हुए रजोगुण से उत्पन्न काम को कारण बताते है। जैसे धुम्रअग्नि का मैल दर्पण को ढक देता है वैसे ही काम ज्ञान को ढक देता है।उस कामरूपी शत्रु को मारने की सलाह देते हुए भगवान आगे चौथे अध्याय में अविनाशी योग की बात करते है, जो उन्होंने पहले सूर्य को, सूर्य ने वैवस्वत मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु राजा को कहा था। 


अर्जुन पूछता है आप तो अभी जन्मे है फिर सूर्य को कैसे कहा? 


भगवान बताते हैं कि मेरे और तुम्हारे कईं जन्म हुए हैं, तुम नहीं जानते पर मैं जानता हूँ। अजन्मा अविनाशी और सब के ईश्वर होते हुए भी मैं प्रकृति के अधीन योगमाया से साधुपुरूषो के उद्धार, पापकर्म करनेवाले का विनाश और धर्म की स्थापना के लिए प्रकट होता हूँ। 


जो मनुष्य मेरा जन्म और कर्म दिव्य है ऐसे तत्व रूप से जान लेता है वह पुनर्जन्म नहीं, मुझे पाता है। राग, भय और क्रोध से मुक्त, मेरे में अनन्य प्रेम और मेरे आश्रित साधकों ने ज्ञानरूपी तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को पाया है। 


आगे गुण कर्म भेद से चातुर्वर्ण्य, कर्म अकर्म, कर्मबंधन से मुक्ति की बात करते हुए भगवान कहते हैं कि कामना और संकल्प के बिना किये कर्म ज्ञानाग्नि में भस्म हो जाते है। इसलिए कर्मफल की आसक्ति त्याग कर, नित्य तृप्त, आश्रय रहित, शरीर धर्म के कर्म करें तो भी पाप नहीं करता। 


ब्रह्माग्नि में अभेद दर्शन करते हुए विषयों को संयमरूपी अग्नि में आहुत करके हुए आत्मसंयम योगी; अष्टांग योगवाले, अहिंसा आदि व्रतवाले, प्राणायाम करनेवाले, यह सब यज्ञों से कर्मबंधन मुक्त होकर सनातन ब्रह्म को पाते है। 


लेकिन द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ उत्तम है। इसलिए निष्कपट होकर ज्ञानी महात्मा से तत्वज्ञान का उपदेश ले। “उस ज्ञान से तुम सब भूतों को पहले अपने में, और फिर सब को मेरे (परमात्मा) में देखेगा”। 


सब से बड़ा पापी भी इस ज्ञानरूपी नौका से पापसागर को तर जाता है। जैसे अग्नि काष्ठ को भस्मीभूत करता है वैसे ज्ञानाग्नि समग्र कर्मो को भस्म कर देता है। ज्ञान जैसा पवित्र और कुछ नहीं। 


ऐसे आत्मज्ञान को श्रद्धावान, तत्पर और संयत इन्द्रियोवाला (faith, devotion and self control) प्राप्त कर लेता है। जिसे पा कर वह परम शांति (supreme peace, absolute happiness, सब दौड़ का अंत) को प्राप्त कर लेता है। 


लेकिन जो अज्ञानी है, अश्रद्धालु है, संशयी है उसका विनाश यानि पतन होता है। ऐसे संशयी मनुष्य को इस लोक या परलोक में सुख प्राप्त नहीं होता। वह उपर दर्शाये परम शांति को नहीं प्राप्त कर सकता।  


इसलिए हे भारत, तुम ह्रदय (स्थूल ह्रदय नहीं अपितु जहां प्रेम और सद्भाव है) में रहे अज्ञान जनित अपने संशय को ज्ञान तलवार से चीर कर उठो। 


अर्जुन उठ गया, आप भी उठें। 


पूनमचंद 

२७ जून २०२२

Sunday, June 12, 2022

बुद्ध पूर्णिमा।

 बुद्ध पूर्णिमा बधाई।🪷🌕


“खीणं पुराणं नवं नत्थि सम्भवं"


बौद्धों ने आत्मा को माना या नहीं माना यह स्पष्ट नहीं है। ईश्वर को नहीं माना परंतु संसरण और पूर्व जन्म और पुनर्जन्म को माना है। 


संसरण से ही तो संसार बना है। 


किसका संसरण हुआ? कोन बंधन में है? कौन मुक्त हुआ। प्रश्न स्वाभाविक है। 


वैशाख पूर्णिमा की मंगलमयी रात को बोधिवृक्ष के नीचे बैठे सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हुए।अज्ञान से निवृत्त होकर प्रज्ञान की रश्मियाँ को प्राप्त हुए। सूक्ष्म से सूक्ष्म आंतरिक क्लेश मैल सब दूर हुए और विमल धर्मच़क्षु प्राप्त किये। कर्म बंधन टूट गये और चित्त बंधन मुक्त हो गया। मन वितृष्ण हो गया। मोह (मूढ़ता), माया (मरीचिका), विभ्रम (विपल्लास) का कुहरा गया। सत्य का साक्षात्कार हुआ। 


विमुक्ति रसास्वादन करते हुए बुद्ध के मुँह से परम उदान शब्द हृदय से निकले। (परावाक्)। 


अनेकजातिसंसारं सन्धाविस्सं अनिब्बिसं । गहकारं गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।। 


गहकारक ! दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि। सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसडृतं । विसड्रृारगतं चित्तं तण्हानं खयमज्झागा ।।


{(इस काया - रूपी) घर को बनाने वाले की खोज में (मैं) बिना रुके अनेक जन्मों तक (भव-) संसरण करता रहा, किंतु बार बार दुःख (-मय )  जन्म ही हाथ लगे। ऐ घर बनाने वाले !  (अब )  तू देख लिया गया हैं, (अब) फिर (तू)  (नया) घर नहीं बना सकता। तेरी सारी कड़ियां टूट गयी हैं और घर का शिखर भी विशृंखलित हो गया हैं । चित्त पुरी तरह  संस्काररहित हो गया हैं और तृष्णाओं का क्षय (निर्वाण) प्राप्त हो गया है।}


बुद्ध को ऐसी सम्यक सम्बोधी प्राप्त हुईं सारी सच्चाई आंखों के सामने आ गयी। देख लिया उस घर बनाने वाले को और सामग्रियों को। जब सामग्रियाँ ही नष्ट कर दी फिर किससे बनेगा घर? संस्कारों से विहीन चित्त परिशुद्ध हुआ। काम तृष्णा, भव तृष्णा, विभव तृष्णा गई। 


कौन था यह घर बनाने वाला? 


देवपुत्र मार (मृत्यु राज)। 


कौन हैं यह मार?  


हमारे अंतर्मन में समाए हुए सभी प्रकार के कुत्सित संस्कारों का व्यक्तिकरण ही तो मार है। 

जो बार-बार हमारे लिए नया-नया घर बनाता रहता है। नए-नए जन्म द्वारा नया-नया शरीर उत्पन्न करता रहता है। 


बुद्ध के लिए मार लाचार हो गया। घर बनाने की सारी सामग्री यानी सारा पूर्व संचित संस्कार ही छिन्न - भिन्न हो गया। नया संस्कार बनाने वाली सारी लालसाएं जड़ से उखड़ गयी।  


भूतकाल के संग्रहीत संस्कार और भविष्य के प्रति जागने वाली तृष्णाएं ही तो हमारे लिए नए-नए भव का कारण बनती है। ये दोनों खत्म हो जायँ तो नया भव बनना रुक जाय । आग का जलावन समाप्त हो जाय तो आग अपने आप बुझ जाय। बिना जलावन आग किसको लेकर जले?   


“खीणं पुराणं नवं नत्थि सम्भवं"। 

(पुराना क्षीण हो गया, नया बन नहीं रहा।)


यहीं तो विमुक्त - अवस्था थी। 


यही तो सम्यक सम्बोधि थी उस बोधिसत्व की। 


यही तो अंधकार पर प्रकाश की विजय थी।  


मृत पर अमृत की विजय थी।   


असत पर सत की विजय थी ।


बुद्धं शरणं गच्छामि। 


पूनमचंद 

१६ मई २०२२

Rise and fall of Buddhism in India

 Rise and fall of Buddhism in India, was it a revolt against Brahmanism or a philosophical challenge? 


Vedic Dharma was a Brahmin Dharma in which the religious teachings were followed by the Brahmins and the society was into four categories based on professions and accordingly people were performing their duties and passing life. Performing sacrifices (at the cost of Yajman!) was the duty of the Brahmins, fighting was the duty of Kshatriya, trading was the duty of Vaishyas and service was the duty of Shudras. 


The yagyas and sacrifices were not the common practice of large majority of the country except the rituals on birth, marriage and death. The dwij concept was mostly followed by Brahmins and to some extent by the Kshatriyas. However, the practice of classifying people as upper and lower by birth was prevalent. Intercaste marriages were seen as a downfall of the character of an individual. 


Suddhodana, the father of Siddharth Gautam was the King of Sakya kingdoms of Kapilvastu, a Ganarajya where the polity (rules of administration) was decided by the nobles/important group leaders. The Sangha made of youthful males and adults was powerful. As a young man of 20y Sidharth Gautam became a member of Sakya Sangha. The member has to safeguard the interests of the Sakyas by body mind and money, attends all meetings and exposes faults without fear or favour. There was disqualification in case of the member commits rape or murder or guilty of giving wrong evidence. 


On the 8th year of his membership Gautam came in conflict with the Sangha. There was a State of Koliyas bordering the state of Sakyas. Both the kingdoms were subordinate to the Koshalas. The two kingdoms were divided by the river Rohini. The water of Rohini was used for irrigation by the farmers of both the kingdoms. Every season, there used to be disputes regarding who take water of Rohini first and how much. That year, they had a clash and the servants of both the sides suffered injuries. The Senapati of Sakya called a meeting of the Sangha to consider the question of declaring war against the Koliyas. Siddharth Gautam opposed the resolution. He believed that war doesn’t solve problem instead one war becomes seed for another war. He proposed careful investigation to ascertain the guilty party. He heard that their men had also been aggressors and were not free from the blame. The amendment in the resolution proposed by Gautam was lost by an overwhelming majority. The Senapati put his resolution to waging war to vote that Gautam opposed. When Senapati argued that fighting is the Dharma of Kshatriya, Siddharth pleaded that his Dharma consists in recognising that enmity does not disappear by enmity. It can be conquered by the love only. The majority didn’t agree with Gautam and the resolution of the Senapati was passed. (What would our majority of present day choose if they are asked?) 


Next day in another meeting called for the plan of mobilisation of youths of 20-50 age group, the minority of the previous day remained present but none except Gautam opposed the mobilisation. The Senapati grew angry and explained the consequences of his oppose to the Sangh decision and the power of Sangha to order the offender to be hanged or exile or declare social boycott and confiscate family land without the permission of the King of Kosalas. Gautam continued with his opposition of war against the Koliyas. Finally, he accepted his guilt of opposing the decision of the Sangha and chose the second alternative, the exile to save his family and father from social boycott and confiscating the land which was their means of livelihood. The Senapati feared accepting the suggestion of Siddharth to accept exile or death voluntarily as that may invite action against the Sangh by the King of Koshalas. Gautam thereafter proposed a way out, “I can become a Parivrajaka and leave this country. It is a kind of exile”. Gautam assured that he would obtain permission of his parents and wife and leave the country whether he obtains their consent or not. Before conclusion of the meeting, Gautam was allowed to speak. He proposed to postpone the war for sometime so that the King of Koshalas shouldn’t find connection between his renunciation and the decision of war. The Sangh agreed and postponed the commencement of hostilities against the Koliyas. 


Gautam returned home and took consent of his parents and wife. How great was Yashodhara! She replied, “your decision is the right decision. You have my consent and my support. I too would have taken Parivraja with you. If I do not, it is only because I have Rahula to look after”. 


Siddharth left home and took Parivraja at the hands of Bhardwaja who had his Ashram at Kapil-Vastu. After Pariv-raja ceremony Siddharth left Kapilvastu and moved to Rajagraha, the Capital city of Maghadha King Bimbisar. He travelled many places in search of the new light, studied Sankhya philosophy and learned Samadhi {breath control (anapanasati), pranayam, dhyana and Samadhi} from Arada Kalam at Vaishali. Sage Uddaka Ramaputta taught him Dhyana technique one stage higher. He learned the technique of higher concentration. He practices asceticism (self mortification, fasting or taking little meal) torturing the body for six years at Gaya. His belly cleave to his backbone and was unable to move. His inner voice reflected, “this is not the way, even to passionlessness, nor to perfect knowledge, nor to liberation”. He questioned, can the mortification of the body be called religion? It is only the mind’s authority that the body either acts or ceases to act. 


Sujata was a daughter of a household named Senani of Uruvela. She had uttered a wish to a Baniyan tree and viewed a yearly offerings if she should have a son. She sent her maid Punna to prepare the site under the Baniyan tree for the offering. Punna found Gautama sitting beneath the Banyan tree and thought him the God of the tree. Sujata came and offered him the food prepared by her in golden bowl. He took the bowl to the river bank, took bath and ate the food. His five ascetics became angry as Gautama broke the life of austerity and left him. On the night of that day Gautama had five dreams and when he interpreted the dreams he was sure to attain enlightenment. He threw the bowl into the river, the bowl floated. He left Uruvela in the evening and came to Gaya and saw a Banyan tree. Facing east, he sat down cross legged and upright under the tree. He had collected enough food to last for forty days. He continued meditation with an aim of obtaining enlightenment for four weeks and reached to the final fourth stage. The first stage was reasoning and investigation, the second stage was concentration, the third stage was of equanimity and mindfulness and the fourth was purity to equanimity and equanimity to mindfulness. On the night of the last day of the fourth week darkness was dispelled, light arose, ignorance was dispelled and knowledge arose. He saw a new way. It was the night of Vaishakh Purnima. Bodhisatva Gautama became Buddha, the enlightened, therefore Buddha Purnima. 


He found the answer to counter sufferings and unhappiness which were not dealt by Sankhya or Samadhi or the asceticism (Jains) the more prevalent practices of those days. 


Kapilvastu was the capital city of the kingdom of his father Suddhodana. Kapil was the ancient sage referred in Gita and the first part of Gita talks more about the Sankhya philosophy. Sankhya was a physicist theory of searching the truth by analysing the 24 elements of nature (as Vastu-things) and the Purusha the reason of creation. It was followed by Yoga and later by Karma Yoga of Jains and Gita. But none of them had satisfactory answers for the suffering of the humans in present life. Either they didn’t have answer or blamed the actions of previous life the reason for sufferings in present life. Buddha worked on the subject, analysed the problem, mediated to find right answer and brought out the ‘art of living’, treating the human mind by following eightfold path to remove the major cause of misery the human desires. 


Thus the circumstances lead him to Parivrajak life, his intuition to find out right answer for the sorrow and unhappiness in the life of millions marched him on the path of Samkhya, Samadhi and Asceticism, and finally found out the reasons for sufferings, the four noble truths, reached to the destination of “middle path” of eightfold path to attain Nirvana, nirvana from three poisons (raga-dwesha-moha: greed, aversion, ignorance); and attained liberation from the Sansaran (sansar), the cycle of rebirth. 


When other philosophies were talking about Atma (I am), he talked Anatta (I am not). ‘I am’ creates ego and attachment while ‘I am not’ keeps one free from attachment and that way make free from greed, aversion and ignorance, so that the mirror (intellect) gets clear and reflects the Truth. 


All philosophies of India revolve around ‘I’ and the liberation of the ‘I’. I think Buddha wins amongst all. 


Punamchand 

17 May 2022


NB: the details on story of Buddha taken from a book, “The Buddha and His Dhamma”, by Dr. B. R. Ambedkar.

Life in search of peace

 Life is in search of peace.


The nature has created life on earth from all odds. Its core is hot about 6100° Celsius (hotter than outer layer of the Sun) covered with mantle and crust. 71% of the surface of the earth is covered with water and there are five layers (tropo-strato-meso-thermo-exo) of atmosphere providing protection. Earth was formed 4.5 billion years ago in which the sapiens evolved some 2 lakh year ago. The modern man with technology is in neonatal. The size of the earth compared to the Universe is like a dust particle and human may be smaller than a quark. 


How deep one can dig, the centre is 6378 kms away. Human can play around the crust. One may have a simple question, why do some humans with an average life of 70 years and with a working life of two or three decades opt for disturbances? Who would justify recent Russia-Ukraine war? The whole world is affected by inflation.


This reminds me a story of two dogs Laliyo and Motiyo told to me by my father. They were fast friends. One day Motiyo proposed to go on a pilgrimage but Laliyo denied. At last Motiyo went alone on a pilgrimage. Laliyo stayed back and was happily waiting for the return of his friend. Two three seasons were passed but there was no news of Motiyo, made Laliyo worried. It thought that Motiyo must have died. One day after a year, it saw Motiyo coming back home. It couldn’t recognise Motiyo because it was thin and injured all over the body. After some introductory talk and meal together Laliyo asked Motiyo how was the pilgrimage? Did it enjoy it or not? Motiyo gave affirmative answer on which Laliyo expressed its surprise. But your body speaks something else Laliyo asked. Motiyo replied, ‘my dear friend, I have enjoyed the pilgrimage. The trip was very good as the humans at all the places offered me varieties of food. But the problem was with our tribe. Wherever I went, they didn’t allow me to enjoy the pleasure of life; instead, attacked, injured, chased and made my life like a hell’. 


Are we not like the Motiya’s tribe? Mother Earth has given us enough to live with peace and harmony but we humans prefer man made disasters. God knows what do we wish in life, although there is a surety of death. 


Punamchand 

20 May 2022

ब्रह्मविदाप्नोति परम।

 ब्रह्मविदाप्नोति परम।  


ब्रह्म को जानने वाला परम (मोक्ष) को प्राप्त करता है।तैत्तरीय उपनिषद् के दूसरे खंड ब्रह्मवल्ली के प्रथम अनुवाक का यह वाक्य है। 


तैत्तरीय उपनिषद् यजुर्वेद का ब्राह्मण भाग है। वैदिक साहित्य के तीन भाग है। मंत्र विभाग। ब्राह्मण विभाग और ब्राह्मण का ही उपखंड आरण्यक। मंत्र विभाग मंत्र प्रस्तुत करता है। ब्राह्मण उसकी व्याख्या करता है। 


प्रथम वाक्य में तीन बातें रखी गई। ब्रह्म, उसे जानना और उसका फल मोक्ष। साध्य-साधन-फल। 


पहले फल, लक्ष्य-परम की चर्चा करे जिसे मोक्ष या मुक्ति कही जाती है। परम का अर्थ है जिसको पाने के बाद दूसरी सभी कामनाओं की निवृत्ति हो। परम प्रसन्नता एवं तृप्ति प्राप्त हो। 


कैसे पायेंगे उस परम को? 


ब्रह्म को जानकर। जानना यानि ज्ञान पाना है। ज्ञान साधना है। जो अपनी बुद्धि गुहा में है उसको जानना है। कोई बाह्य चीज की जानकारी नहीं लेनी है। 


कैसे मिलेगी जानकारी? 


तीन साधन है, श्रवण, मनन, निदिध्यासन। ऐसे ही सुनने से काम नहीं बनेगा। सुनना है, समझना है और ठहराकर बार बार ध्यान में लाकर अमल करना है। इसके लिए तैयारी करनी होगी, अनंत संस्कारों से ग्रसित साधन-बर्तन-दर्पण रूप अंतःकरण को तैयार करना होगा। उसकी सफ़ाई, स्थिरता के लिए काम करना होगा। उपासना और कर्म उसी तैयारी के लिए है। विपश्यना भी तैयारी है। एक बार अंतःकरण तैयार हुआ फिर उस पात्र में ज्ञान आरूढ होना ही है। शुद्ध अंतःकरण के लिए एक महावाक्य अहं ब्रह्मास्मि सुनना भी ब्रह्म जानने के लिए पर्याप्त हो जाता है। 


चलिए अब ब्रह्म की बात करे। 


ब्रह्म शब्द बृह धातु से बना है जिसका अर्थ होता है विस्तार-विस्तृत। इसका मतलब यह हुआ कि ब्रह्म शब्द विशेषण (adjective) हुआ। विशेषण नाम को लगता है और उसकी मर्यादा नाम से तय होती है। जैसे कि हम कहें बड़ा हाथी और बड़ा मच्छर, तब दोनों में विशेषण बड़ा है पर हम दोनों को अनुपात से कितना बड़ा हाथी या कितना बड़ा मच्छर यह कल्पना कर लेते है। विशाल सरोवर की कल्पना भी ऐसे कर लेते है। अब यहाँ तो शब्दातीत का नामकरण करना है। कैसे संभव होगा। विस्तृत या विस्तारित यानी कितना? ऋषियों ने इसलिए विशेषण को ही नाम बना लिया। अमर्यादित (infinite) कर दिया। कितना विशाल? बुद्धि विशालता की जितनी भी कल्पना कर सके उससे भी विशाल। वह तत्व जो सर्वत्र है, सर्व व्यापक है, उसका कहीं अभाव नहीं है, जिसके एक अंश मात्र में समस्त ब्रह्मांड समाहित हो जाते है वह व्यापक ब्रह्म है। जो परिपूर्ण है, जिसमें कोई कम ज़्यादा नहीं हो सकता वैसा निरतिशय। 


ब्रह्म को जानने वाला उस परम को प्राप्त करता है। ब्रह्म और परम दो अलग नहीं है। ब्रह्म ही परम है। ब्रह्म प्राप्ति ही मोक्ष प्राप्ति है। अब जो इतना व्यापक है कि जिसमें अनंत ब्रह्मांड समायें है उसमें हम भी तो समाये है। वह हमसे दूर कैसे हो सकता है? प्राप्त ही है पर हमें पता नहीं। इसलिए जानना पड़ता है कि किसे ब्रह्म कहते है? ब्रह्म कोई परिच्छिन्न वस्तु नहीं है जिसे पाना है। जो हमसे अलग नहीं है, जुदा नहीं है, जो प्राप्त है, मेरा अपना स्वरूप है, उसे प्राप्त करने में यह विलंब कैसा? यही अविद्या है जिसकी निवृत्ति करनी है। अविद्या की निवृत्ति ही ब्रह्म विद्या है। ब्रह्म का दर्शन ज्ञान से होता है। चर्मचक्षु से नहीं अपितु ज्ञानचक्षु से दर्शन-अनुभव-ज्ञान होता है। 


तैत्तिरीय उपनिषद् इसलिए उस ब्रह्म की व्याख्या करता है।


 दो प्रकार से व्याख्या होती है। एक स्वरूप लक्षण बताकर और दूसरा तटस्थ लक्षण बताकर।तट यानी किनारा, किनारे पर बैठे अलग होकर देखना। जैसे भगवान श्रीकृष्ण को हम कमलनयन या घनश्याम कहे तो यह उनका स्वरूप लक्षण हुआ। और अगर मुरलीधारी या गोवर्धनधारी कहें तो मुरली और पर्वत दोनों बाहर रहकर श्रीकृष्ण को दर्शाते हैं इसलिए यह तटस्थ लक्षण हुए। ब्रह्म की भी वैसे ही स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण से व्याख्या की गई है। 


सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म। वह सत्य है। ज्ञान है। अनंत है। यह ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है।


यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत प्रयन्त्यभि संविशन्ति। जिससे भूत उत्पन्न होते है, उत्पन्न होकर जिससे जीते है, और प्रलय में जिसमें विलुप्त होते है वह ब्रह्म है। जगत की उत्पत्ति स्थिति और लय दर्शाते है। यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण हुआ। 


ब्रह्म को स्वरूप लक्षण से जानो। आप ही हो। आपकी अपनी व्याख्या की गई है। आप सत्य हो, ज्ञान हो और अनंत हो। यह ठीक न लगे तो ब्रह्म को तटस्थ लक्षण से जानो। आपकी आँखों के सामने सब कुछ हो रहा है। उत्पत्ति-स्थिति-लय। यह खेल जिस मैदान में हो रहा है वह विस्तृत ब्रह्म है। आप ही वह मैदान हो जिसमें यह खेल चल रहा है। 


जानो जानो जानो। 

सुनो सुनो सुनो। 

श्रवण मनन निदिध्यासन (बार बार ध्यान में लाओ) ही उपाय है। 


बुद्धि गुहा में प्रवेश करो। 

प्राण गुहा में प्रवेश करो। 

हृदय गुहा में प्रवेश करो। 


आपका दीदार दूर नहीं है। 


ब्रह्म को जानने से परम की प्राप्ति है। 


पूनमचंद 

२३ मई २०२२

शांति पाठ।

 शांति पाठ। सह नाववतु। 


हिन्दू शास्त्रों में शांति पाठ का बड़ा महत्व है।विद्या प्राप्ति के प्रतिबंध दूर करने शांति पाठ होता है। विघ्न निवृत्त हो और मन शांत हो।उपसर्ग का उपशमन हो। ग्रंथ लेखन से लेकर समापन तक या उसका अध्यापन और अध्ययन पूरा करने एक प्रार्थना मंत्र पाठ किया जाता है। सभी शांतिदूत पाठों में ॐ सह नाववतु…. और ॐ पूर्णमदः… ज़्यादा प्रचलित है। 


ॐ सह नाववतु ।

सह नौ भुनक्तु ।

सह वीर्यं करवावहै ।

तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥


(परमेश्वर हम दोनों (गुरू-शिष्य, वक्ता-श्रोता) की एक साथ रक्षा करें, दोनों एक साथ विद्या के फल को भोगे, एक साथ विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करे,  विद्या से दोनों तेजस्वी बने, और परस्पर द्वैष (गैरसमज) न करे।) (Aum! May He protect us both together, together may we two relish, together may we perform with vigour, may our study filled with the brilliance, may we not mutually dispute. Aum! let there be peace in me; let there be peace in my environment; let there be peace in the forces that act on me!)


यह मंत्र कृष्ण यजुर्वेद से आया है। कठोपनिषद, तैत्तिरीय उपनिषद् इत्यादि कई उपनिषदों में इसे शांति पाठ के लिए लिया गया है। आमतौर पर भारत में हर आश्रम में भोजन से पहले यह मंत्र गाया जाता है। पर यह भोजन मंत्र नहीं, विद्या मंत्र है।विद्यालयों में, सार्वजनिक समारोहों में, योग सत्र में इसका प्रयोग होता है। 


विद्या मंत्र है इसलिए गुरू और शिष्य दोनों को उसका फल एक साथ प्राप्त होता है। संसार से रक्षित होना है तो वह रक्षा विद्या प्राप्ति से होती है। विद्या का फल जानकारी नहीं है। विद्या का फल निर्भयता और आनंद है। इसके लिए ज्ञान को अनुभव का विषय बनाना पड़ता है। विद्या प्राप्ति के लिए अपने अंतःकरण को अधिकारी बनाना पड़ता है। अधिकारी बनने पूर्ण प्रयत्न करना है, सह वीर्यं। विद्या से सामर्थ्य लाना है इसलिए साधन चतुष्ठ्य से शिस्तबद्ध चलना है। श्रवण करना है। मनन से संशय निवृत्त करने है। बोध का बार बार ध्यान में लाकर अमल करना है। गुरू द्वेष न करे, लेकिन शिष्य में द्वेष हो तो उसकी श्रद्धा डगमगा जायेगी। एक बार गुरू के शब्दों से महत्व चला जाए तो उस शब्दों से अंतर में जो अर्थ प्रकट करना है वह नहीं होगा। इससे शिष्य का ही नुक़सान है। 


तीन प्रकार के ताप की शांति। आध्यात्मिक (शरीर संबंधी), आधिदैविक (दैव जनित), और आधिभौतिक (स्थूल जगत से)। विद्या प्राप्ति में इन तीनों प्रकार से आनेवाले विघ्न से शांति मिले और आत्म विद्या प्राप्त हो जिससे परम श्रेय मोक्ष की प्राप्ति हो। 


विद्या मंत्र है लेकिन कर्मयोगियों को भी उपयुक्त है। वे साथ रहे, साथ भोगें, साथ साथ सामर्थ्य प्राप्त करने हेतु कार्य करे और तेजस्वी बने, परंतु एक-दूसरे का द्वेष न करें। 😊


विद्या प्राप्त करे। सँभालें। द्वेष न करे। 


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।


पूनमचंद 

२६ मई २०२२

Shri Krishna Dutam

श्रीकृष्ण दूतम्। 


दूत बने थे श्रीकृष्ण पांडवों के, जाने से पहले पांडवों से परामर्श करते है। 


युधिष्ठिर कहते है कि हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और पाँचवा जो वे चाहे - ऐसे पाँच गाँव दे दें और भरत वंश का नाश न हो। इसलिए पहला मार्ग तो संधि का रखे। श्रीकृष्ण उसे जवाब देते है कि क्षत्रिय को भीख नहीं माँगनी चाहिए, दीनता उसके लिए प्रशंसा की चीज नहीं है, इसलिए पराक्रमपूर्वक शत्रुओं का दमन कीजिए। 


भीम ने कहा, है मधुसूदन, आप दुर्योधन से ऐसी ही बातें करें जिससे वह संधि के लिए राज़ी हो जाय। युद्ध की बातें कर उसे भयभीत न करें। दुर्योधन के क्रोध से सभी भरतवंशी भस्म हो जायेंगे। भरतवंश को बचाने हम दुर्योधन के नीचे रहकर उसे अनुसरण करने को भी तैयार है। परंतु श्रीकृष्ण उसे द्रौपदी के अपमान के वक्त ली उसकी दुर्योधन वध की प्रतिज्ञा याद कराते हैं और युद्ध के लिए तैयार होने को कहते है। 


फिर अर्जुन ने कहा, हे श्रीकृष्ण, धृतराष्ट्र का लोभ और मोह के कारण अवरोध है पर आप ठीक रीति से प्रयास करे तो तो सफल हो सकते है। फिर भी आप उचित समझें, जिसमें पांडवों का हित हो वह करे। श्रीकृष्ण उसे समझाते हैं कि दुर्योधन को उसके कर्मो का फल देना है और पृथ्वी का भार उतारना है। 


नकुल ने कहा आपने तीन भाइयों की बात सुनी है। आप शत्रु का विचार जानकर जैसा करना उचित समझें, वही करें।पहले संधि की बात करें बाद में युद्ध की धमकी दें। सहदेव ने कहा आप ऐसा प्रयत्न करें जिससे युद्ध ही हो।भरी सभा में द्रौपदी की जो दुर्गति हुई थी वह दुर्योधन के प्राण लिये बिना कैसे शांत होगी? फिर सात्यकि ने सहदेव से सूर मिलाते कहा, दुर्योधन के वध से ही कोप शांत होगा। बाक़ी यौद्धाओं ने भी ठीक है, ठीक है, कह युद्ध के विकल्प को समर्थन दिया। 


श्रीकृष्णने इसके बाद द्रौपदी से बातचीत की। द्रौपदी सहदेव और सात्यकि की प्रशंसा कर बोली, हे मधुसूदन, दुर्योधन राजभाग न दे तो संधि मत करिए। कोई ढील ढाल न करें क्योंकि शत्रु को दंड देना है। वह उसके अपमान की याद दिलाकर कहती हैं कि हे केशव शत्रुओं से सन्धि की आपकी इच्छा है किंतु आप दुःशासन के हाथोंसे खींचे मेरे केशपास को याद रखें। तेरह साल से मुझे प्रतीक्षा है, दुःशासन की साँवली भुजा को काटकर धूलिधूसरित होते देखना। मेरी छाती तब तक ठंडी नहीं होगी। श्रीकृष्ण धैर्य देते हुए कहते है, हे कृष्णे, तुम शीघ्र ही कौरवों की स्त्रीयों को रुदन करते देखोगी। धृतराष्ट्र पुत्र अगर मेरी बात नहीं सुनेंगे तो कुत्ते और गीदड़ों के भोजन बनेंगे। मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम शीघ्र ही शत्रुओंके मारे जाने से अपने पतियों को श्रीसंपन्न देखोगी। 


अर्जुन फिर कहता हे कि, हे श्रीकृष्ण आप दोनों पक्के संबंधी है इसलिए दोनों का मेल कराकर संधि करावे।श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि धर्म के अनुकूल बात करूँगा जिसमें हमारा और कौरवों का हित होगा इतना कह वह रथ में सवार होकर आयुधों के साथ सात्यकि को और सुरक्षा सैन्य लेकर हस्तिनापुर चल दिये। 


यहाँ धृतराष्ट्र ने भी हर्षित होकर उनके स्वागत की तैयारी शुरू कर दी। दुर्योधनने आज्ञानुसार सुन्दर विश्रामस्थान बनवाने आरम्भ किये और श्रीकृष्ण के भव्य स्वागत की तैयारी की। उनके रास्ते में जल छिड़कवा दिया, ध्वज पताकाएँ लहराईं, उनको ठहरने दुःशासन का महल तैयार करवाया। विदुर ने तब धृतराष्ट्र को बताया कि आप धन और अच्छे स्वागत की लालच देकर श्रीकृष्ण को अर्जुन और पांडवों से अलग नहीं कर पाओगे। दुर्योधन ने भी भेंट सौग़ात न देने के विदुर के प्रस्ताव को समर्थन किया। पर यह भी बताया कि जीते जी वह राजलक्ष्मी को पांडवों के साथ बाँटकर भोगना नहीं चाहता। उसने पांडवों को अधीन करने श्रीकृष्ण को क़ैद करने का विचार किया। भीष्म, धृतराष्ट्र और मंत्रियों ने विरोध किया और भीष्म सभा से उठकर चले गये। 


श्रीकृष्ण हस्तिनापुर आये। दुर्योधन के सिवा सभी कौरवों और धृतराष्ट्र, भीष्म आदि ने उनका आगे बढ़कर स्वागत किया। राजमार्ग सजायें गये थे और पूरा हस्तिनापुर आज श्रीकृष्ण दर्शन के लिए राजमार्ग पर था। सभागार में प्रवेश होते ही सब ने अपने स्थान पर से उठकर उनका स्वागत किया। बैठने सुवर्ण का सिंहासन दिया और धृतराष्ट्र ने उनका पूजन सत्कार किया। सत्कार के पश्चात श्रीकृष्ण विदुर भवन गये और इसके बाद बूआ कुन्ती के पास गये। कुन्ती ने अपने पुत्रों को क्षात्र धर्म का संदेश दिया। श्रीकृष्ण दुर्योधन के पास पहुँचे जहां सुवर्ण के पलंग में बैठाकर दुर्योधन ने उनका सत्कार किया और भोजन के लिए आमंत्रित किया। किंतु श्रीकृष्ण ने अस्वीकार किया। दुर्योधन ने प्रश्न किया तो बताया कि दूत अपना कार्य उद्देश्य पूर्ण करने के बाद ही भोजनादि ग्रहण करता है। तटस्थता बनाये रखने उन्होंने विदुर के भवन आकर उनके घर का भोजन स्वीकार किया और बताया कि वह क्षत्रियों के हित का प्रयत्न करेंगे। 


दूसरे दिन राजसभा में श्रीकृष्ण का स्वागत पूजन हुआ। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर की बात रखी और सन्धि की बात की और पांडवों ने बारह वर्ष वनवास और एक साल अज्ञात वास की शर्तें पूरी की है इसलिए उनके हिस्से का पैतृक राज्य देने का प्रस्ताव रखा। महर्षि परशुराम ने नर-नारायण रूप का वर्णन कर सन्धि करने सलाह दी। ऋषि कण्व ने भी सन्धि सलाह दी। वेदव्यास, भीष्म और नारदजी ने भी दुर्योधन को समझाया। धृतराष्ट्र भी सहमत हुए पर बताया कि वह स्वाधीन नहीं है। दुर्योधन को समझायें तब काम बनेगा। श्रीकृष्ण ने मधुर स्वर में दुर्योधन को समझाने का प्रयत्न किया। सन्धि मे शान्ति है, दोनों का बल मिलकर एक अजेय सेना की संभावना जतायी। दुर्योधन की कमियाँ और पांडवों के सद्गुणोंका ज़िक्र किया। बलाबल मे पांडवों का मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता यह दर्शाया। भीष्म ने भी दुर्योधन को श्रीकृष्ण की बात को मानकर सन्धि स्वीकार संहार रोकने की सलाह दी। द्रोणाचार्य ने भी प्रस्ताव हितकारी बताकर उसे स्वीकार करने की राय दी। विदुर ने भी कहा कि उन्हें दुर्योधन के लिये कम किंतु उसके बूढ़े माँ-बाप की ज़्यादा चिंता है। अंत में धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युधिष्ठिर के पास जाकर सन्धि कर उनके साथ काम करने को कहा। 


अब दुर्योधन की बारी थी। अपना पक्ष रखने की। उसने कहा कि हे केशव, आप मुझे दोषी ठहरा कर मेरी निंदा करते रहते हो। मुझे तो अपना कोई दोष नहीं दिखता। पांडव शौक़ से जुआ खेलकर अपना राज्य हारे थे और वन गये थे, उसमें उसका क्या क़सूर? फिर बलाबल में खुद को भीष्म, द्रोण, कृप और कर्ण की वजह से बलवान बताया। स्वधर्म और क्षत्रिय धर्म का निर्वाह करते अगर वे युद्ध में वीरगति प्राप्त हुए तो उन्हें कोई पछतावा नहीं होगा। उनकी बाल्यावस्था में अज्ञान या भय के कारण पांडवों को राज्य मिल गया था जो अब नहीं मिल सकता। 


श्रीकृष्ण ने जवाब देते बताया कि उसकी वीरशय्या की इच्छा पूरी होगी। पांडवों को जूआ खेलने की खोटी सलाह शकुनि ने दी थी। द्रौपदी के साथ हुए दुर्व्यवहार और  कही अनुचित बातों की याद दिलाई। वारणावत में पांडवों को माता सहित फूंक डालने का भारी यत्न किया था वह याद दिलाया। पांडवों को पैतृक भाग नहीं दोगे तो मरकर देना पड़ेगा। श्रीकृष्ण के कठोर वचन सुनकर दुर्योधन ग़ुस्से से सभागार छोड़ गया। 


फिर गांधारी को दुर्योधन को समझाने बुलाया तो उसने पुत्र मोह के लिए धृतराष्ट्र को दोषी ठहराया। दुर्योधन को फिर से सभा में बुलाया गया। वह क्रोध से भरा था। गांधारी ने उसे पांडवों से सन्धि करने को कहा। लेकिन  दुर्योधन ने माता के वाक्यों पर ध्यान नहीं दिया और वापस निकला। फिर दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन ने मिलकर श्रीकृष्ण को क़ैद करने की योजना बनाई। सात्यकि यह जान गया इसलिए सुरक्षा के प्रबंध कर जाकर श्रीकृष्ण को सूचना दी। श्रीकृष्ण ने यह बात धृतराष्ट्र और विदुर को बताई। धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को ताकीद कर बुलाया और डाँटा। श्रीकृष्ण ने उसी क्षण दुर्योधन को अपने स्वरूप का दर्शन कराया जिसमें सब देवगण, पांडव, यादव इत्यादि आयुधों सहित मौजूद थे। धृतराष्ट्र ने प्रार्थना की को उन्हें भी ज्ञानचक्षु प्रदान कर यह रूप का दीदार करवाया। फिर उन्होंने अपनी माया समेट सात्यकि और कृतवर्मा का हाथ पकड़कर सभा भवन से चल दिये। वहाँ से कुन्ती को मिले। कुन्ती ने पुत्रों को धर्मयुद्ध करने को कहा। भीष्म और द्रोण ने यह सुनकर दुर्योधन को सन्धि करने समझाया जिससे वह उदास हो गया। 


इधर श्रीकृष्ण कर्ण को रथ में बैठाकर हस्तिनापुर से बाहर लाये और उसे वह कुन्ती पुत्र हैं और पांडव उसके छोटे भाई है यह बताकर पांडवों से जुड़कर राजा बनने का आह्वान किया। परंतु कर्ण ने यह कहकर उसका अस्वीकार किया कि जब कुन्ती ने उसे त्याग दिया था तब सुत माता राधाने उसे स्नेह पूर्वक बड़ा किया है। इसलिए उसके पिण्ड का वह लोप नहीं कर सकता। सुत होकर वह पला बड़ा हुआ है, सुतों में शादी हुई है, बेटे पोते हो चुके है, इस अवस्था में उनको छोड़कर वह लौट नहीं सकता। दुर्योधन ने उसके भरोसे ही युद्ध मोल लिया है उसे वह धोखा नहीं दे सकता। 


श्रीकृष्ण ने फिर कर्ण को कहा कि तुम्हें राज्य प्राप्ति का उपाय भी मंज़ूर नहीं इसलिए जाकर द्रोणाचार्य, भीष्म और कृपाचार्य को सूचना दे दो कि यह महिमा अच्छा है, फलों की अधिकता है, मक्खियाँ कम है, कीच सूख गई है, विशेष गर्मी ठंडी नहीं है, आपसे सातवें दिन अमावस्या के दिन युद्ध प्रारंभ करो। 


कर्ण ने श्रीकृष्ण का आलिंगन लिया और हस्तिनापुर लौट आया और श्रीकृष्ण पांडवों के पास चल दिये। युधिष्ठिर और पांडवों ने श्रीकृष्ण से सारी कहानी सुनकर युद्ध की तैयारी आरंभ कर दी। 


कहानी से यह स्पष्ट हो जाता है किः


१) महाभारत युद्ध के प्रमुख नायक श्रीकृष्ण थे। 


२) वह इतने महान होते हुए भी दुर्योधन की बुद्धि को युद्ध के भयानक परिणामों से नहीं डरा पाये न सन्धि करा पाये। उन्होंने भीम ने कही बात याद नहीं रखी पर द्रौपदी के दिये वचन को याद रख यत्न किया। क्या उनका वह प्रयास गंभीर था? 


३) क्या दुर्योधन इतना मूर्ख था कि कुछ दिन पहले विराटनगर युद्ध में उसके सब महारथी होते हुए सब अकेले अर्जुन से हार गये थे वह भूल गया था? 


४) श्रीकृष्ण ने बिना पांडवों से पूछे आती अमावस्या को युद्ध की घोषणा क्यूँ कर दी? क्या वही थे कर्ताधर्ता?


५) कौरव पक्ष में सब तो तैयार थे संधि के लिए एक दुर्योधन को छोड़कर, फिर क्यूँ अपने विराट रूप से अकेले दुर्योधन को वह नहीं बदल सके? अगर उन्होंने दुर्योधन के साथ भोजन ग्रहण किया होता तो शायद वह उसके क्रोध का शमन कर रास्ता निकाल सकते थे। 


६) पांडवों के पक्ष में क्षत्रिय धर्म और पैतृक संपत्ति वापस लेने का धर्म है। कौरव पक्ष में बड़े पुत्र के राज्याधिकार का अधर्म है?


७) पांडवों के पक्ष में वनवास और अज्ञातवास की शर्तें पूरी हुई थी इसलिए राज्य वापस लेना है। कौरवों के पक्ष में सूर्य केलेन्डर से अवधि समाप्त नहीं हुई थी इसलिए पांडवों को वन में वापस भेजना चाहते थे। किंतु विराटनगर युद्ध में भीष्म ने चांद्र वर्ष की गिनती कर हर पाँच वर्ष में आनेवाले दो अधिक माह को गिनती में लेकर पांडवों के पक्ष में अवधि पूरी हुई बताया था। 


८) वैसे तो धृतराष्ट्र और पाण्डु हस्तिनापुर महाराज शांतनु् के बेटे राजा विचित्रवीर्य के संतान नहीं थे। वह तो मर चुके थे। वे तो पराशर और मत्सयगंधा के प्रेमपुत्र महर्षि वेद व्यास ने विधवाओं से किये नियोग के पुत्र थे। यहाँ क्षत्रिय धर्म का बात की संगति नहीं बैठती। 


९) धृतराष्ट्र ज्येष्ठ होते हुए भी अंधे होने की वजह से राजा नहीं बन पाये लेकिन जब पाण्डु ने निवृत्ति ली तब उसे राजा स्वीकार कर लिया गया। यह बात उसे बहुत परेशान कर रही थी। यह कैसा नियम? उसका मानना था कि प्रथम बार भी उसे ही राजा घोषित करना चाहिए था। ज्येष्ठ पुत्र होते वह राजा बने तो उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र दुर्योधन बनता है। फिर पांडवों से बँटवारे का प्रश्न कहाँ? पांडवों का पक्ष था कि राज्य का विस्तार पाण्डु ने किया था और प्रथम राजा वह थे इसलिए उनका अधिकार है। भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, विदुर कौरव पक्ष में रहे यह भी हक़ीक़त है। 


१०) एक बात और भी रही, पैतृक संतान की। कौरव धृतराष्ट्र-गांधारी के पुत्र थे। जबकि पांडव पाण्डु के नहीं, कुन्ती के मंत्रपुत्र थे। 


आख़िर में किसने कैसा यत्न किया यह युद्ध रोकने का, यह बात गौण हो गई। १०-१२ को छोड़कर दोनों पक्षों के हज़ारों सैनिकों और महारथियों का नाश हुआ। द्रौपदी के पाँचों पुत्र मारे गये। अभिमन्यु मरा। जिस संतानों के लिए युद्ध किया वह ही नहीं रहे। यादवों का भी यादवास्थली में श्रीकृष्ण सहित विनाश हुआ। परिणाम ख़राब ही आया। युद्ध और हिंसा से राज्य पाने का विकल्प विफल रहा। 


एक ही सिद्धि थी इस युद्ध की। हमें मिल गये एक युग पुरूष, पूर्ण पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण, और उनकी श्रीमद् भगवद्गीता जो पूरे भारत वर्ष को आज भी मार्गदर्शन दे रही है। 


महाभारत महाकाव्य महाबोध है। 


युद्ध नहीं बुद्ध सही मार्ग है। 


पूनमचंद 

२७ मई २०२२

Who are you?

 कौन है आप? 


अमिता, अनिता, मनीषा, चित्रा या पुष्पा?

सुरेश, राधेश्याम, जगदीश, रविकान्त या शशि ?

इक़बाल या मुहम्मद? 

संतोष, विलीस, हेकटर या शीला?

गुरदीप, जगमोहन, गुरप्रीत या इन्द्रजीत? 


यह तो आप के नाम है जो आपको पैदा होने के बाद दिये गये। 


आप कहेंगे पुरुष या स्त्री है हम। पर यह तो शरीर के आकार है। 


आप कहेंगे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सीख है हम। पर यह तो मज़हब के नाम है जो माता-पिता की मान्यता से चले आये है। 


आप कहेंगे इन्सान है हम। पर यह तो अन्य जीवों की सापेक्ष में आपकी शारीरिक पहचान है? 


फिर जो हिन्दू होगा कहेगा, मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र हूँ। पर यह तो जातिवाचक नाम है जो आपका शरीर जिस परिवार में जन्मा उसकी पहचान लिए है। 


आप कौन? 


चेतना का अनुभव किसे नहीं? जब वह नहीं रहती हम मुर्दे को नहीं रखते। पूरी की पूरी पहचान मुर्दा बन जाती है। कौन है यह चैतन्य? कहाँ से आया? कहाँ गया? बस यही खोज में सारे के सारे दर्शन समाहित है। 


हिन्दुओं में जिस किसी ने इसको समझने की कोशिश की, जाना और शब्दों से इसकी व्याख्या की वह ब्राह्मण कहलाये। ब्राह्मण ज्ञानी का नाम है, व्याख्याता का नाम है, जो उस चैतन्य पद की व्याख्या करता है। इसलिए तो उनके रचे व्याख्या ग्रंथों को ब्राह्मण कहा गया। 


आश्चर्य तो यह है कि दसवाँ, अपने से अलग नौ को गिन रहा है और उस नौ में अपने को खोज रहा है, पर खुद पर उसका ध्यान नहीं है। जिस दिन खोजनेवाले ने अपनी ओर नज़र कर ली, मानो पहचान हो गई। फिर वह आसपास नज़र करेगा, चारों ओर उसे वही एक ही रोशनी, एक ही दरिया नज़र आयेगा। एक चैतन्य के सिवा यहाँ दूसरा कोई है ही नहीं। एक ही बिजली जैसे अनेक उपकरणों में टिमटिमा रही है। एक दूसरे के सामने जैसे विनोद उपहास कर रही है। पूरी नौटंकी लगेगी। एक ही पहचान में सब समा जायेगा। सर्वात्म भाव जग जायेगा। पूर्ण अहंता प्रकट हो उठेगी। और आप अमर हो जायेंगे। अमरता जीतनी नहीं है, आप अमर ही हो। बस भ्रांति पहचान से बाहर आये और स्व-स्वरूप में विश्रांति पाये। 


आप अमर है। 


अमरजीत का अमर और आप का अमर एक है। 😊


पूनमचंद

३० मई २०२२

Wheel of Dharna

 Wheel of Dharma


There is a Galactic centre around which our galaxy Milky Way is rotating is about 26000 light years away from the earth. It is called Sagittarius A*, a supermassive black hole with about 4 million solar masses and contains 10 million stars. However, it is only 0.25% of the mass of our galaxy. Like a hub and spokes, the galaxies are moving out from the centre to all the directions, looks like a Wheel of Dharma of Indian religions. 


How big is our Universe and how many Universes are there within this cosmos is beyond our imagination. One universe may have 100 billion galaxies. The pauranik sages imagined that all the universes are placed on a fur of the Almighty. Imagine how big is the creator. 


Our Milky Way galaxy makes a cluster and super cluster called Virgo and Laniakea respectively. Milkyway, Andromeda and Triangulum are the three major galaxies located near each other might be the Vishnu, Mahesh and Brahma of the imagination of the Pauranic sages. The pauranik stories of Lord Shiva-Sati-Daksha-Tandav-Moon-27 wives (constellations), etc, are more about the cosmic play. 


Earth takes a day, Sun takes 28 days and Milky Way takes 230 million years to complete rotation on its axis. Our Sun takes 230 million Earth years to orbit once around the centre of the Milky Way. It is called galactic year or cosmic year. Our Sun is that way only 60 cosmic year old. 


We are in a ‘Space Train’ which has a Central Station Sagittarius A*. We feel stationary on earth but the whole of our universe is in motion. Our coach Earth is revolving around the Sun with a speed of 30 km/s, the Sun and the Solar system is revolving around the centre of the Milky Way galaxy with a speed of 230 km/s. 


Imagine, how tiny a human being in this cosmic play, not even an electron. But he has ego, therefore, he can create and destroy his surroundings. His life is short but he wants to play a central role. Let Sagittarius A* remains a centre of our Universe, but human being a Brahman is centre of the whole Cosmos. 


Punamchand 

9 June 2022

Gujarati Diet

 Gujarati Diet


Gujarati people are very famous for their varieties of snacks in breakfast and sweetened vegetables and dal in meals. Their staple food is Dal-Bhat-Sabji-Roti in lunch and Khichadi-kadhi-bhakhari-shak in dinner. There are sweets Sukhadi, Siro, Ladu, etc, and milk sweets Penda, Mavo, Thabadi, etc. 


The food is simple and easy to digest but some people consider it health hazardous. In fact, Gujarati food is a health food aligned with Ayurveda. Majority population eat thrice in a day (breakfast, lunch and dinner), but the urbans may eat four times or many times in a day. Lunch and Dinner are eaten in regular quantity while breakfast and afternoon snacks are lighter.


There are many fried items: Bhajiya, Dalvada, Batatavada, Fafada, Papadi, Ganthia, Sev, Cholafali, Mathia, Fulvadi, etc, mostly made of besan (gram flour). There are steamed or baked items: Khaman, Dhokla, Patra, Handvo, Khandavi, Muthia, etc. Chatani and achar add taste to the snacks. 


How could they be said aligned with Ayurveda? Did you notice that Gujarati fried items are mostly the protein items and smoke/bake items are mostly the carbohydrate items? Fried protein is less injurious while fried carbohydrates is more injurious to health. Fried items increases the life of the food and the traders community used to travel long distances for business, therefore smart Gujarati ladies made their carry food tastier by steaming, baking or frying. 


Let’s talk about the jaggery or sugar used in Dal and vegetables. It is very common to add jaggery in arhar (tuvar) dal in all households. Large majority don’t add sugar in other dals. Large majority of OBC-ST-SC-Muslim don’t add jaggery or sugar in their vegetables, but the upper castes and hoteliers do add jaggery or sugar in vegetables made of potato, brinjal, pods (fail: guvar, choli, matar, etc). It was a practice because large majority was consuming less of vegetables and more of dal-Roti in past. The upper classes were consuming more vegetables. 


Now review, what is the connection between sugar and vegetables? Which food create gastric problem? Mostly the Arhar (tuvar) dal and green vegetables of different pods create more gastric problem. Ayurveda says that sweet juice subsides gastric problem. It is therefore, Gujarati use jaggery or sugar in vegetables and dal. Fafda and Jalebi is a suitable match. The sweet dish in other culture is there for the same reason. Many people feel sleepy after eating dal, therefore Gujarati arhar dal is not carrying only sweetened agent but also having five other juices. It is made of six juices sweet, sour, salty, spicy, bitter, and astringent. 


Are you convinced that Gujarati diet is a healthy diet easy to digest? In fact, the whole of Asia is eating healthy food suitable to their health considering their life style and the seasonal and atmospheric variations. 


If you are unable to fart and getting tired of gastric problem start eating food adding jaggery or sugar. To become Gujarati means to become calm and composed because after all we have to earn livelihood by trading and business. We can’t afford to fight with our consumers and suppliers because of our stomach disorder. 


Do you wish to enjoy varieties of snacks and sweetened meals? 


Be a Gujarati. 

You will become entrepreneur. 

It’s beneficial.😁


Punamchand 

10 June 2022

एक सवाल।

 एक सवाल। 


धर्म की खोज मुक्ति के लिए थी। 


किससे मुक्ति? 


दुःख से। 


दुःख क्यूँ है? कुछ तो कारण होगा? 


एक ने कहा कर्म फल। 


कैसा कर्म फल? अभी तो कुछ जीया नहीं कुछ किया नहीं और दुःख रूपी कर्म फल आ टपका? अभी तो पिता के घर खुश थी, व्यसनी पति से ब्याही और दुःख का ढेर लग गया। 


फिर तर्क निकाला। 

पिछला कुछ बाक़ी होगा। 

पिछला तो बचपन था। 

बताया पिछला जन्म था। एक नहीं अनेक जन्मजन्मान्तर। 


बस तर्क में बांध लिया। नियति मान वक्त कटने लगा। ना फ़रियाद ना छूटने का प्रयास। कोल्हू का बैल बन गई। 


दूसरे ने कहा दुःख का पता लगाओ। 

कहाँ होता है दुःख? 

क्यूँ होता है दुःख?

यह शारीरिक कम अपितु मानसिक ज़्यादा है। 

हर मनुष्य के दुःख अलग-अलग है। एक ही परिस्थिति में मनुष्य मनुष्य के दुःख कम ज़्यादा कैसे है? ज़रूर सोफ्टवेर की गलती है।  पता लगाया तो आसक्ति और तृष्णा का भेद पाया। इच्छा और तृष्णा को दुःख का कारण मानकर उससे छूटने के सूत्र बनाये। 


तीसरा आया। अरे क्या कर रहे हो? क्यों चक्की पीसे जा रहे हो? तुम जिसे दुःख मानते हो वह वास्तव में है ही नहीं। तुम अपना स्वरूप भूल गये हो। वह तो अमर है। ना उसे मौत का भय ना पीड़ा का। बस जिसमें पीड़ा हो रही है उस डिब्बे को छोड़ो और अमर डिब्बे में बैठ जाओ। 


महिला बड़ी परेशान है। 

न पति दारू छोड़ता है न उसे पड़ रही मार कम हो रही है। मर-अमर के खेल में उसका वजन दिन प्रतिदिन कम हो रहा है। गाल पिचके जा रहे है। बच्चों की लाइन लगी है। चूल्हा चक्की से छूटकारा नहीं हो रहा। अब करें तो क्या करें? पति छोड़कर कहाँ जाये? बदन भी तंदुरुस्त नहीं रहा। तृष्णा इच्छायें तो सब दब गई उस दुःख के भार से। छोड़ने पकड़ने का अवसर ही कहाँ? कर्म तो चूल्हा चक्की है पर फल तो आतंक के रूप में बाहर से आ रहे है। अब कैसा विवेक करें या कैसा अविवेक? जब ज़ंजीरों में जकड़ी गई और ज़ंजीर तोड़ने का आधार दूसरों पर निर्भर हो तो मुक्ति कैसे? मौत के सिवा कोई मुक्ति नहीं। 


होगी मुक्ति उन लोगों की जिसे दो वक्त की रोटी की चिंता नहीं। जिसे पति या समाज की मार नही। जिसके पास पूर्ण समय है अपने मन में उठ रहे विचारों तरंगों को देखने का, अभ्यास करने का। तत्व चिंतन वही कर पायेगा। यहाँ तो मन और तन दोनों जकड़ लिये गये है। उठना थकना सोना, फिर उठना थकना सोना। बस पूर्ण सो जाने का इंतज़ार ही रहा। 


युक्ति या अयुक्ति, कुछ भी नहीं चलता यहाँ। 

जिसके हाथ में लाठी, मानो उसका ही बैल। 


धर्म व्यवस्था सुधार के लिए आया होगा पर मज़हब बन सत्ता का साधन ही बन गया। 


पूनमचंद 

११ जून २०२२

Man created God

 માનવે ઘડ્યો ભગવાન


એક ધર્મના ભગવાન કે મહાપુરુષની બીજા ધર્મવાળા ટીકા કરે તેના વિવાદ અને ઘર્ષણ સદીઓથી ચાલ્યા કરે છે. કોણ કોને સમજાવે? તમાશાને તેડું ન હોય. 


મનુષ્યોએ સર્જેલા ભગવાનની અને તેની રચનાઓનું વિવેચન કરવાનો હક દરેકને રહેવાનો કારણ કે મનુષ્ય સંવેદનશીલ પ્રાણી છે. પોતાની લાગણી વ્યક્ત કરવાનો. ધાર્મિક વ્યવસ્થા આ રીતે જ બની છે. આ ધાર્મિક વ્યવસ્થા જન કલ્યાણનું ભલું કરે ત્યાં સુધી સૌ સારું ગણવું પરંતુ જેવી તે એકબીજાનું ખૂન કરવા પ્રેરે એટલે તેને નકામી ગણી ટીકા કરવામાં કંઈ જ અજુગતુ નથી. 


કોને ન ગમે સારા મનુષ્ય ન બનવું? 


સાચું બોલવું, બીજાની હિંસા ન કરવી, ચોરી ન કરવી, વ્યભિચાર ન કરવો, બીજાનું પડાવી ન લેવું, માતા-પિતા-ગુરૂજનો-વડીલોને માન આપવું, દંભ ન કરવો, અભિમાન ન કરવું, કપટ ન કરવું, વ્યસન ન કરવું, સમ્યક દર્શન કરવું, વગેરે વગેરે. એક મનુષ્યને સારો મનુષ્ય બનાવે તેવા ભગવાનને ૧૦૦ માંથી ૧૦૦ ગુણ. 


હિન્દુ ધર્મમાં ધાર્મિક વ્યવસ્થાના ત્રણ સ્તર છે. 

૧) ભગવાન 

૨) ઈશ્વર 

૩) બ્રહ્મ 


ભગ એટલે યોનિ અને ભગવાન એટલે યોનિ દ્વારા જન્મેલ, મનુષ્ય. મનુષ્ય યોનિમાં જન્મેલા વિશિષ્ટ પુરુષો, પુરુષોત્તમ, ભગવાન શ્રેણીમાં આવે. જેમ કે ભગવાન રામ, ભગવાન કૃષ્ણ, ભગવાન બુદ્ધ, ભગવાન મહાવીર, ભગવાન સ્વામીનારાયણ, ભગવાન રજનીશ (ઓશો), ઈત્યાદિ. મનુષ્ય શ્રેષ્ઠ કે જેમણે પોતાના જીવન કર્મથી માનવતાનો વિશેષ સંદેશ આપ્યો. 


બીજી ઉપરની શ્રેણીમાં ઈશ્વર આવે. જેની સાથે બીજા ધર્મના અલ્લાહ, પરમ પિતા મૂકી શકાય. આ અમાનવીય શક્તિ સ્વરૂપ છે, જે ચૈતન્ય છે અને સમગ્ર સર્જન, સ્થાપન અને વિસર્જનનું કારણ ગણાય છે. હિન્દુ ધર્મ તેની ત્રણ શક્તિઓને બ્રહ્મા વિષ્ણુ મહેશ તરીકે ઓળખે છે. અંશ અને અંશીની કલ્પના આ સ્વરૂપમાં કરી મનુષ્ય દ્વૈત ભાવે તેની પૂજા-બંદગી-પ્રાર્થના કરે છે. આ સગુણ સ્વરૂપ છે.


ત્રીજી શ્રેણીમાં નિર્વિકલ્પ આવે. સનાતનીઓનો બ્રહ્મ, શૈવોનો પરમ શિવ, જૈનીયોનો કેવલી, બુદ્ધોનો શૂન્ય આવે; જે નિર્ગુણ, નિરાકાર, સર્વ વ્યાપક, એક, અદ્વિતીય, ચિદ્ઘન ચૈતન્ય પરમાત્મા છે. મનુષ્યમાં રહેલી ચેતના અને વ્યાપક ચેતનાના એકીકરણની પ્રક્રિયાને મોક્ષ, નિર્વાણ, મુક્તિ તરીકે જોવામાં આવી છે. 


ત્રણેય સ્થિતિમાં એક મનુષ્યના ઉત્થાનની ભૂમિકા બાંધેલી છે, જે પોતાની ચૈત્ય સ્થિતિને સ્થૂલ સંકુચિત ભૂતોથી મુક્ત કરી વ્યાપક ચૈતન્યમાં વિસ્તારી લઈ સર્વ સમાવેશ, સર્વાત્મ ભાવ કેળવી લે છે. વ્યકિત વિકાસ અને આર્ટ ઓફ લીવીંગ મેળવી લે છે.


બાહ્ય દેખાતી ધર્મ હરિફાઈઓ, આડંબર, ચાલચલણ; સત્તા, સંપત્તિ અને કીર્તિના સાધન તરીકે વધુ અને સમાજમાં સમત્વ અને સદ્દગુણોના વિકાસ માટે ઓછી જણાય છે.


પૂનમચંદ 

૧૨ જૂન ૨૦૨૨

Dogs in Mahabharata

Dogs in Mahabharata 


Do you know, the great epic Mahabharata starts with a Dog, ends with a Dog and there is a Dog in the middle acts as a turning point?


The story of Mahabharata starts with the Yagya of King Janamejaya, the son of Parikshit, grandson of Abhimanyu and great grandson of Pandavas. 


Sage Ugrasrava Sauti is the narrator of Mahabharata. He returned from the yagya of King Janamejaya describes the story of the yagyashala. A small dog (pup) was looking at the yagya from the outside of the yagyashala but the three brothers of Janamejaya beaten it up without giving a chance to escape because if the dog enters the yagashala then devatas don’t accept the offerings. The dog went back with lot of pain and complaint to its mother. The mother dog Sarama went to Janamejaya and complained and left without demanding justice. Janamejaya looked at the Purohits and the Mahabharata starts. 


The second dog appears in the story of Eklavya.


Eklavya was a son of the Chief of the hunters (Nishada) in the forest of Hastinapur. He went to Gurukul of Dronacharya for education in art of archery and science of warfare. Dronacharya denied his request saying he as a Brahmin can’t teach the Shudra. Arjuna also reacted saying Guru Dronacharya is a Royal teacher appointed by the King to train the princes. ‘How dare you expect to be taught by him! Leave the gurukul now’. Surprised and hurt by Guru’s reply and stunned by Arjun’s reaction the Nishada boy learned archery on his own and practiced before the idol of Dronacharya. He became a skilled archer. One day, while practicing, a dog started barking some distance away. Its constant barking irritated Eklavya, who fired seven arrows in quick succession, filling the dog’s mouth without injuring it. The dog was no longer able to bark and roamed around the forest and reached the Pandavas. Drona saw the dog and was amazed and realised it the act of an extremely skilled archer. They found out Eklavya. Drona was stunned when heard that that he as mud idol became his teacher. Drona realised the threat to Arjuna and demanded his right thumb in Guru Dakshina. Eklavya without any hesitation took a knife and cut off the right thumb and placed it at Dronacharya’s feet. 


The third dog appears at the end.


After ruling 36 years the kingdom of Hastinapur after Mahabharata war, Pandavas with Dropadi gave up kingdom, took sanyas and left for Himalayas. They were followed by a dog throughout. Dropadi and four Pandavas died but Yudhishthira and the Dog survived. They continued their journey and Indra appears. He offers Chariot to travel for heaven in which Yudhishthira insisted to travel with Dog. Indra denied the entry of the Dog therefore Yudhishthira refused to go to the heaven without the dog. The Dog re-appeared before him as a deity Yama, declared that he had passed the test of Dharma and pleased with his stand of compassion for all living beings requested him to enter the chariot without hesitation. 


Thus Mahabharata started with a dog's story, ended with a dog. 


Don’t underestimate the Dog. It’s an important domestic animal. Recently IAS officer Sanjeev Khirwar and his ‘walk the dog’ controversy in Delhi infuriated the authorities and the couple was transferred to Himalayas. 


Punamchand 

12 June 2022

Friday, June 10, 2022

Gujarati Diet

 Gujarati Diet


Gujarati people are very famous for their varieties of snacks in breakfast and sweetened vegetables and daal in meals. Their staple food is Daal-Bhat-Sabji-Roti in lunch and Khichadi-kadhi-bhakhari-shak in dinner. There are sweets Sukhadi, Siro, Ladu, etc, and milk sweets Penda, Mavo, Thabadi, etc. 


The food is simple and easy to digest but some people consider it health hazardous. In fact, Gujarati food is a health food aligned with Ayurveda. Majority population eat thrice in a day (breakfast, lunch and dinner), but the urbans may eat four times or many times in a day. Lunch and Dinner are eaten in regular quantity while breakfast and afternoon snacks are lighter.


There are many fried items: Bhajiya, Dalvada, Batatavada, Fafada, Papadi, Ganthia, Sev, Cholafali, Mathia, Fulvadi, etc, mostly made of besan (gram flour). There are steamed or baked items: Khaman, Dhokla, Patra, Handvo, Khandavi, Muthia, etc. Chatani and achar add taste to the snacks. 


How could they be said aligned with Ayurveda? Did you notice that Gujarati fried items are mostly the protein items and smoke/bake items are mostly the carbohydrate items? Fried protein is less injurious while fried carbohydrates is more injurious to health. Fried items increases the life of the food and the traders community used to travel long distances for business, therefore smart Gujarati ladies made their carry food tastier by steaming, baking or frying. 


Let’s talk about the jaggery or sugar used in Dal and vegetables. It is very common to add jaggery in arhar (tuvar) dal in all households. Large majority don’t add sugar in other dals. Large majority of OBC-ST-SC-Muslim don’t add jaggery or sugar in their vegetables, but the upper castes and hoteliers do add jaggery or sugar in vegetables made of potato, brinjal, pods (fail: guvar, choli, matar, etc). It was a practice because large majority was consuming less of vegetables and more of daal-Roti in past. The upper classes were consuming more vegetables. 


Now review, what is the connection between sugar and vegetables? Which food create gastric problem? Mostly the Arhar (tuvar) dal and green vegetables of different pods create more gastric problem. Ayurveda says that sweet juice subsides gastric problem. It is therefore, Gujarati use jaggery or sugar in vegetables and dal. Fafda and Jalebi is a suitable match. The sweet dish in other culture is there for the same reason. Many people feel sleepy after eating dal, therefore Gujarati arhar daal is not carrying only sweetened agent but also having five other juices. It is made of six juices sweet, sour, salty, spicy, bitter, and astringent. 


Are you convinced that Gujarati diet is a healthy diet easy to digest? In fact, the whole of Asia is eating healthy food suitable to their health considering their life style and the seasonal and atmospheric variations. 


If you are unable to fart and getting tired of gastric problem start eating food adding jaggery or sugar. To become Gujarati means to become calm and composed because after all we have to earn livelihood by trading and business. We can’t afford to fight with our consumers and suppliers because of our stomach disorder. 


Do you wish to enjoy varieties of snacks and sweetened meals? 


Be a Gujarati. 

You will become entrepreneur. 

It’s beneficial.😁


Punamchand 

10 June 2022

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