Tuesday, May 10, 2022

Third Eye

 एक आँख जो कभी बंद नहीं। 


स्वशक्तिप्रचयोડस्य विश्वम्। (३०)

स्थितिलयौ। (३१)

ततप्रवृत्तावप्यनिरासः संवेत्तृभावात्। (३२)

सुखासुखोबहिर्मननम्। (३३)

तद्विमुक्तस्तु केवली।  (३४)

(शिवसूत्र ३.३०-३४)


अपना निरीक्षण करें। 


आप कौन हैं? 


एक तो जो नाम दिया है वह शरीर। दूसरा उस शरीर की चेतना। एक सीमित, दूसरा असीम। असीम के आँचल में सीमित प्रकाशित हो रहा है। एक कैनवास स्क्रीन और दूसरा उस पर चित्र। जीवन व्यवहार सीमित में पर उसका बैकग्राउंड प्राण चेतना। 


आपमें कौन है जो मुक्त है क्योंकि अपने विस्तार का अनुभव करता है? जिसमें कभी कमी नहीं होती? 


जो नित्योदित है। जिसमें सृष्टि स्थिति लय, जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति, भूत वर्तमान भविष्य हो रहा है। जिस के पर्दे पर यह सब चित्र प्रकाशित, उदित-स्थित-लय हो रहे है पर वह चेतन पर्दा अंचल है, स्थिर है, सतत है, अखंड है। अविद्या का प्रपंच जिसमें उदित और अस्त हो रहे है पर वह नित्योदित है।जिसका कभी अभाव नहीं। 


आप पूर्ण हो। तीनों स्थिति का प्राण चौथा तुरीय आनंद हो। स्थिति बदलेगी पर आप बिना कटे निश्चल, प्रशांत, अटल और पूर्ण  एक हो। तृप्त हो। उत्साह, ऊर्जा, उच्छलता हो। कर्ता-कार्य, ज्ञाता-ज्ञेय, प्रमाता-प्रमेय, उपाय-उपेय अवस्थाओं का युगपद् आप एक ही हो। 


अखंड चेतना हो। 


वो बोध हो जो सब को जानता है। उस जानने वाले को जानो। 


प्रमेय भी आप हो और प्रमाता भी आप। आप की रोशनी में तो सब कुछ प्रकाशित हो रहा है। आप ही object or subject दोनों बन प्रकाशित हो रहे हो। एक ही अनेक बन प्रवृत्त हो। 


आप स्वयं हो। 


उस आप में जीएँ। उस अखंड में जीएँ। उसके लिए जीएँ। कार्य होने से या नहीं होने से, कुछ मिलने से या नहीं मिलने से, क्या आप चले गये? क्या आप नष्ट हुई? आप हमेशा हो। 


मैं हूँ यह बोध कभी गया नहीं।


प्रार्थना करें कि यह ज्ञान ठहर जायेः 


“मैं अनुत्तर का अमृत कुल हूँ, अमृत से लबालब भरा हृदय हूँ। मेरा हृदय सतत विकसित हो, विस्फारित हो, जिससे सतत अमृत टपकता रहे।” 


उस अखंड चेतना समुद्र का अंतर्मुख होकर अभ्यास करें। उस चेतन पर्दे पर प्रकाशित हो रहे सृष्टि-स्थिति-लय, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति के चित्रों में अखंड तुरीया जोड़कर उसका आनंद लें। 


उस चेतना से सतत जुड़े रहने का अभ्यास करें। स्वाध्याय करें। अखंड ध्यान बनाये रखें। 


मोह लोभ, सुख दुःख, विकल्पों का खेल सब खंडित में हो रहा है। आप उस निश्चल, प्रशांत, अखंड से जुड़े रहो। प्रशांति जाती नहीं। यह दृश्यमान विश्व आपकी शक्ति का ही विस्तार है।


सृष्टि-स्थिति-लय तीनों एक साथ चेतना में घटित हो रहे है उसका अवलोकन करें। एक चित्र बनता है, कुछ स्थिति बनती है, फिर दूसरा चित्र सामने आते ही प्रथम का लय हो जाता है। वैसे ही साँस आता है, ठहरता है, जाता है, ठहरता है। जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति में भी अवस्था बदलेगी पर एक अखंड संविद बना रहेगा। वैसे ही विचारों का है। वैसे ही व्याख्यान के दौरान हमारे ध्यान का है। प्रवचन के बीच चिंतन में चले गये तो प्रवचन का प्रवाह छूट जाता है। यह आवन जावन ठहरन निज संविद में ही तो हो रहा है। उस चेतना की सतह को पहचाने। यह सब खंड खंड हो रहे चित्रों-घटनाओं-अवस्था-स्थिति के मध्य पर ध्यान दे। तैल वत उस तुरीय पर अनुसंधान रखे। वही मध्य समाधि है। वह तुरीय खंडों को जोड़ रख अखंड का आस्वादन करायेगा। साक्षात्कार होगा, अखंड चेतना का। अपने सच्चे स्वरूप का। अमृत का।शरीर जायेगा पर मैं नित्योदित की कभी मृत्यु नहीं, वही मृत्युंजय का मिलन होगा। अपना खुद का खुद से मिलन। 


सत्संग चेतना पर लिखें। बीज बनकर रहेगा तो एक दिन फल बनकर प्रकट होगा। अपनी चित्त ज़मीन की जाँच करो। उसे उपजाऊ बनाओ। उसमें से अविद्या के खर पतवार निकाल, अखंड चेतना के बीज को धारण कर अपने भीतर अवस्थित हो जायें। 


अपने होने की नित्य अनुभूति आप को है। 


आप के होने का आपको क्या सबूत चाहिए? 


आप वो संविद शक्ति हो जो सतत विद्यमान है। अपना होना कभी नहीं बदला। मैं हूँ यह बोध कभी नहीं गया। जो होने या न होने को जानता है, जो अच्छा लगा बुरा लगा दोनों को जानता है, जो कुछ समझ में आया कुछ समझ में नहीं आया का जानता है, जो मुझे हिन्दी आती है पर रशियन नहीं आती को जानता है, वह जो सब जानता है वही अखंड चेतना मेरा सत्य स्वरूप है। वही मेरी प्रत्यभिज्ञा है। 


मैं शरीर और मैं चेतना, एक पर्दा एक चित्र, दोनों को एक कर देखो। शोधन करते जाये। विचार, विकार, भाव उठे बैठे उसको देखते रहिए और अपने “सर्वम् शुद्धम् निरालंबन ज्ञानम् स्वप्रत्ययात्मकम” आत्मा को देखकर पहचानें। संशय रहित होकर देखें। reveal and perceive. 


साक्षात्कार अभी इसी क्षण। 

आप आपसे (चेतना) दूर कहाँ? 

आप ही हो अमृतसर। 


उस आँख को पहचानो जो कभी बंद नहीं हुई। 

उस दृष्टि को पा लो जिसके बाद और कोई नज़र की ज़रूरत न हो।


जीवन पूर्णता से जीएँ। 

वर्तमान में जीएँ। 

अखंड आत्मरूप से जीएँ। 


उस आदर्श योगी, अंजन शलाका, आत्मज्ञान के दानी, नई दृष्टि-नज़र-आँख-विद्या देनेवाले गुरू को नमन हो। उसके चरण कमल में मेरा आश्रय हो। 


जिसने प्राप्य को प्राप्त कराया; मेरे “अखंड चैतन्य“ स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा (पहचान) कराई; वह गुरू, वह शक्ति, वह शास्त्र, वह अंतर्गुरू को नमन हो। 


उनको नमन हो जिसने चेतना के ज्ञान संकोच को दूर कर अखंड बोधरूप चेतन पर्दा दिखा दिया।


🕉गुरूभ्यो नमः। 


पूनमचंद 

७ मई २०२२

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