आत्मज्ञान दानी गुरू की योग्यता।
दो बात सीखी थी। गुरू शिव तुल्य (जैसा) हो और दानी हो। आत्मज्ञान का दान दे। साक्षात्कार करायें।
कैसे पहचानें? क्या होगी योग्यता?
कहाँ है वहः
जिसका अपनी पूर्णावस्था में रहना नित्य व्रत है।
जो अखंड अजपा हंसः जप में अवस्थित है।
जो निज शक्ति चक्र पर आरूढ़ है।
जिसने ज्ञानेंद्रियो और कर्मेन्द्रियों पर विजय पा लिया है।
ऐसा गुरू दृष्टि, स्पर्श, वाणी या संकल्प से स्व का ज्ञान करायेगा।
जो हमें नया नेत्र देगा जिससे हमारी भेद दृष्टि अभेद हो जायेगी।
जो अविपस्थ है। अविप यानी, जो पशु की रक्षा करे।
पशु अर्थात् हम जीव जिन पर पशु मातृका का बंधन है, अशुद्धि जमी है, ज्ञान संकोच हुआ है, पाँच चक्र का संकोच है (वामेश्वरी, खेचरी, गोचरी, दिग्चरी, भूचरी)। खेचरी ने प्रमाता, गोचरी ने अंतःकरण, दिग्चरी ने बहिर्करण और भूचरी ने जगत को संकुचित किये है। हमारी दृष्टि पर संकोचन के चश्मे चढ़े है। जिससे संसार वामाचार यानि विपरीत चल रहा है।
खे का अर्थ होता है गगन। कितना विशाल है? असीम। पर खेचरी के प्रभाव में हमने उस आकाश को अपने शरीर जितना छोटा संकुचित घटाकाश बना दिया है। संकोचन हमारी पसंद है इसलिए बंधन का दुःख है।
गो अर्थात् अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार)। गोचरी के प्रभाव में बुद्धि में अभेद के बदले भेद का निश्चय हुआ है। संकुचित अभिमान से अपने परमार्थिक पूर्ण स्वरूप को छिपाकर संकुचित बने है।
दिक् अर्थात् दिशायें। दिग्चरी के प्रभाव में हम पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ से पाँच विषयों शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध को भेद बुद्धि से ग्रहण करते है। अभेद का संकुचन बना है।
भू अर्थात् पंच महाभूत से बना बाह्य जगत। भूचरी का प्रभाव हमें वस्तुओं की विविधता से हमें मोहित और भ्रमित कर देता है। मर्यादित आयु में जो चुनना है उसे छोड़ वस्तु पदार्थ की प्राप्ति और माल्कियत के दौड़ में असंतोष और ईर्ष्या से भर गया है।
वह जिसने उपर दर्शायी पाँचों शक्ति पर नियंत्रण किया है वह जो खे अर्थात् पूर्ण गगन में व्याप्त अखंड चेतना में चिन्मय आत्मरूप से विचरण करता है (खेचरी); जिसके अंतःकरण में अभेद का निश्चय किये हो (गोचरी); जो सभी दिशाओं में अभेद देखता है (दिग्चरी); जो समस्त विश्व को अपना अंग मानता हो (भूचरी) और चारों के मूल वामेश्वरी पर जिसका नियंत्रण हो, जिससे संसार का वामाचार नहीं पर दृश्य विश्व जिसका प्रकाशन है ऐसी एकता नवी है।वही योगी गुरु आत्म दान का अधिकारी है। हमें पशुता के बंधन से मुक्त कर हमारी रक्षा करता है।
जो भेद दृष्टि को अभेद में बदल स्व की पहचान (प्रत्यभिज्ञा) कराता है। परतंत्र शक्ति से बंधे हमें जो हमसे मिला दे, सच्चे स्वरूप में स्थापित करे, जो पशुता से हमारी रक्षा करें वही ज्ञान देने का, साक्षात्कार कराने का अधिकारी है।
वो जो खुद है वह हमें बना देता है। स्व प्रकाशन करा देता है। उसकी और हमारी आत्मा एक है इसलिए साक्षात्कार भी एक ही हो जाता है।
ऐसा शिवतुल्य योगी, जो प्रकाश रूप है, जो यह विश्व को अपनी ही शक्ति की स्फार विस्तार जानकर उस विमर्श बोध में अवस्थित है, जो घनीभूत विश्व को क्रिया शक्ति के स्फूरित हो रहे विकास जानता हो, जिसके पास पूर्ण दृष्टि हो, जो मृत्युंजय भट्टारक है वही गुरू है जो आत्मज्ञान के दान का अधिकारी है।
पहचानोगे?
जिसके पास जाते ही मन, प्राण सम हो जायें। विकल्प नष्ट हो जायें। संशय समाप्त हो जायें। जिसमें विश्वास हो जायें।
पूनमचंद
६ मई २०२२
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