प्रश्न.१ सिद्धयोगी के लक्षणों की सूचि बनाये।
शिवतुल्यो जायते। (२५)
शरीरवृत्तिर्व्रतम्। (२६)
कथाजप। (२७)
दानमात्मज्ञानम्। (२८)
योડविपस्थ ज्ञाहेतुश्च। (२९)
स्वशक्तिप्रचयोડस्य विश्वम्। (३०)
स्थितिलयौ। (३१)
ततप्रवृत्तावप्यनिरासः संवेत्तृभावात्। (३२)
सुखासुखोबहिर्मननम्। (३३)
तद्विमुक्तस्तु केवली। (३४)
सिद्व शिवयोगी के लक्षण इस प्रकार है।
१) शिव की पंच शक्ति से युक्त वह शिव तुल्य है।
२) उनकी शरीर संबंधी क्रियायें (स्नान, पान, भोजन, आराम इत्यादि) व्रत है।
३) वह जो भी बोलते है, जप है।
४) वह आत्मज्ञान का दान करता है।
५) शक्ति चक्र पर शासन से खेचरी आदि शक्तियाँ उसके अधिनियम में होने का अनुभव रखता है।
६) विश्व को स्व शक्ति के आधिक्य में मानता है।
७) संसार की स्थिति और लय अपने आधिक्य में देखता है।
८) विश्वमय रहते हुए अपने विश्वोर्तीर्ण स्वरूप से च्युत नहीं होता।
९) बाह्य पदार्थों की तरह अंदर के सुख दुख इत्यादि भावो पर तटस्थ रहता है।
१०) केवल चिन्मात्र प्रकाशरूप में अवस्थित रहता है।
प्रश्न.२
सूचि में किसी एक बिंदु पर ध्यान रखते हुए अभ्यास करें।
पूर्णाहंता का स्वरूप ज्ञान करना है इसलिए बुद्धि को चैतन्य आत्मा स्वरूप का ठोस निश्चय कराना है। बार बार उसका जागरूकता से अमल करना है। बाह्य पदार्थों की तरह अंदर के सुख दुःख काम क्रोध इत्यादि के प्रति तटस्थ भाव बनाये रखना है। हंसः हंसः अजपा जाप के प्रति जागरूक रहना है। चेतना के पर्दे पर पिक्चर में भी पिक्चर के खेल को तटस्थ भाव से देख एक चैतन्य में सबको समावेश करना है।
हम जड़ शरीर और चेतना की जोड़ है। दोनों के परस्पर तादात्म्य और तीन पाश (मल) से जीव-पशु-अल्प-बद्ध शिव बने है। इसलिए पूर्ण अहंता में स्थित नहीं होते तब तक पूर्ण मुक्त जागरण से चलते रहना है।
प्रश्न ३. सहजानंद में निमग्न रहने किस बात का ध्यान रखेंगे।
मैं चैतन्य हूँ यह बात कभी नहीं भूलना है। विशेषण हटाकर सामान्य स्थिति में रहना है। बाह्य की तरह आंतर-तरंगों के प्रति तटस्थ रहना है।जागरूक रहकर चैतन्य समुद्र छोड़ना नहीं है। विश्व मेरा ही शरीर है, मेरा ही विस्तार है ऐसे देखना है। अनुभूत करना है।
बड़ा कठिन है विश्व को मैं स्वरूप देखना। जिसको देखे, एक व्याख्या पूर्वाग्रह बना हुआ है। इस दिवार को तोड़े बिना चेतना का विस्तार हो नहीं सकता। सबको स्वीकार ना है और वह मैं हूँ यह अभ्यास दृढ़ करना है। अन्जान के लिए सरल है। कसौटी जानने वालों की है। क्योंकि वही तो हमारा जगत है, जो बनाया है हमने ज्ञान संकोच से।
पूनमचंद
८ मई २०२२
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