नर्तक आत्मा।
कश्मीर शैवीजम में स्वात्मा का पूर्ण विमर्श ही उसका मोक्ष है। भीतर जो अस्फुट है उसे पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करना है। स्पन्द सूत्र अभिव्यक्ति के सूत्र है। तरू से लेकर शिव तक उसी स्पन्द की अभिव्यक्ति है। पुर्यष्टक भी स्पन्द और मैं भी स्पन्द। अनंत तारे नक्षत्र उसी शिव स्पन्द का उच्छलन, अभिव्यंजना और आनंद अभिव्यक्ति है। अनंत स्पन्दो का मूल एक ही स्पन्द, वह परम शिव है।
यह जगत शिव नाटक है, जिसका सूत्रधार शिव बीजारोपण कर खुद भी भूमिका लेता है। वही नाटक का बीज और उपसंहार भी। इस नाटक में आस्वाद है। भोग है जो भोक्ता को तृप्ति का अनुभव देता है। उत्तेजना नहीं शांति का आनंद देता है। यह नाटक रसमय है। यहाँ उन्मिलन समाधि में ध्यानस्थ शकुंतला को दूर्वासा के श्राप का पता नहीं और कौंच पक्षीके वध से जन्मा वाल्मीकि का दुख भाव करूणा में परिणत हो रामायण बन जाता है।यहाँ नर्तक नृत्य करता हुआ अपने स्वस्थ रूप में अवस्थित रह अभिव्यक्त हो रहा है। अनिर्वचनीय नहीं पर विलक्षण है। गोचर अगोचर एक ही खेल है।
नाट्यशास्त्र है इसलिए थियेटर की मौलिकता है। जगत नाट्य का आधार, स्क्रीन और कैनवास स्वयं शिव है। त्रिशूल उसकी कलम है जिससे जगत तस्वीर बनी। पूरा विश्व नाटक और नर्तक आत्मा। प्रथम परिस्पनद प्रतिभा का उन्मेष, दूसरा स्पन्द अंदर से बाहर प्रकट होना और तीसरा स्पन्द उसकी ख़ूबसूरती अलंकार अभिनय, रसमय उन्मिलन। अर्थानुप्रवेश, भावानुप्रवेश और आत्मानुप्रवेश। कहानी बीज रूप से है उसे थियेटराइज कर त्रिलोकी के नाटक का अंत भी शिव करता है। जगतरूपी इस नाटक के प्रदर्शन के लिए, रंजन मनोरंजन के लिए जो रंगमंच चाहिए वह रंगभूमि अंतरात्मा बन जाता है। अलग अलग भूमिका उसका संकोचन है। वह अपनी शक्ति को असुर संहार के लिए आगे कर जब देवों की बारी आती है तो बीच बालक बन शक्ति के क्रोध को शांत कर देता है।
आचार्य सत्यकाम को अग्नि, बछड़ा, हंस और मद्रु ब्रह्म के एक एक पाद का ज्ञान देते हैं और आख़िर में गुरू गौतम उसका सूत्रण कर प्राण भर देते है। इस प्राण विद्या से सूखे पेड़ पर डालियाँ और कोंपलें लग सकती है तो फिर जो जीवित है उसे ब्रह्मज्ञान होने में कैसा शक।
शैव शास्त्र जैसे एक चरखे से रूई का धागा बन सूई की नोक में प्रविष्ट कर जाती है, वैसे ही योगी सारे वायुओ को अभिसूत्रित कर सुषुम्ना में प्रविष्ट कर प्राणोच्चार से प्राणकुंडलिनी के माध्यम से उस परम नर्तक आत्मा तक पहुँच जाता है, उसे जान लेता है जो इस जगतरूपी नाटक का संचालक है।उसकी कृपा से सहजता और सर्व समावेश से जीता हुए वह जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है। जो नहीं जानते वह इस भवसमुद्र में गोते खाते सदा के लिए डूबे रहते है। संकुचित प्रमाता से स्वतंत्र प्रमाता तक सब शिव ही है, जो नानात्व योनियों की भूमिका में रत है। अंतरात्मा सब की एक, रंगमंच भी एक। दिख रहे द्वैत में सब अद्वैत शिव ही है। चक्रेश्वर महादंत नील लोहित जो अरूप था, अगोचर था उसे ऋषियों ने बिंदु बिंदु रेखा बना पकड़ ही लिया। They are architects of possibilities, engineers of the impossible and mathematician of the infinitudes.
भाव ग्रंथी यहाँ रस बन जाती है।भक्ति से उसका तादात्म्य होता है। बाणभट्ट के पुत्रों का अनुवाद हो या रावण शिव स्तुति, भाव प्रमुख है। इसलिए भाव पर ध्यान दो और अपना पूर्ण उन्मिलन पूर्ण करो, जैसे मयूर का नाच। एक नर्तक भी जब अपने लिए नाचता है तब उसका पूर्ण उन्मिलन होता है। पूर्ण लगा देना है उस नर्तक तक पहुँचने के लिए।
रसमय मेरी बनारस नगरी, शिव का निवास;
काशी का यह रंगमंच, नर्तक बना आत्मा।
पंचभूत का यह नेपथ्य, अभिनेता नाटक सब रस।
ना जंगल ना भगवा, स्वात्मा जाना वही संन्यास।
पूनमचंद
१९ अप्रैल २०२२
0 comments:
Post a Comment