आज का बीज।
स्थूल से सूक्ष्म की ओर।
विद्या शरीरम्।
विद्या शरीर किसका?
चेतन का।
चेतन कौन?
हमारा मन? नहीं।
जो पहचान कराता है सत्ता की, अस्तित्व की।
वह गुरू, प्रकाश, बोध।
जो शरीर भाव से उपर उठाकर ज्ञानरूप, बोधरूप, वास्तविक पद, चेतन पद में स्थित कराता है। स्वस्थ करता है।
गुरू उपाय है; पूर्णोहम विमर्श बोध पाने का।
शरीरे संहारे कलानाम्।।३.३।।
पाँच कला है। निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या (शुद्ध विद्यानहीं अपितु पंच कंचुक, माया), शांता, शांतातीत। कला संहार मतलब पाँच विभाजन ख़त्म कर, समाहित करना है। एक में दूसरे का हवन करते करते अपनी व्याप्ति करते जाना है।
नाड़ीसंहार भूतजय-भूतकैवल्य-भूतपृथकत्वानि।।३.४।।
नाड़ी संहार से प्राण अपान की गति समान होती है और प्राण उदान (उर्ध्व) हो कर व्यान यानि व्याप्त हो जाता है। इससे सिद्धि प्राप्त होती है। भूतजय से पंच तत्व पर विजय प्राप्त होती है। लेकिन पंच तत्व की भूमिका ३६ तत्वों में नीचे है इसलिए नीचे नहीं जाना है बल्कि उर्ध्व गति का ध्यान रखना है। तीन से दो, दो से एक.. अनेक से एक की ओर। समता से सबको समाहित कर स्थूल, सूक्ष्म, पर प्राण से उपर गति कर स्पन्द लब्धि करना है।
मोहवरणात् सिद्ध:।।३.५।।
सिद्धि के मोह में नहीं फँसना है। मोह के आवरण से ही तो बुरा अच्छा लगता है। भीतर देखो और परखो। पता है के मोहावरण के बदले नहीं पता है वह जिज्ञासा अच्छी है।
स्थिर बने रहे। स्थूल शरीर की स्थिरता से सूक्ष्म शरीर - प्राण स्थिर होते है; प्राण स्थिर होते ही सम होता है और सुषुम्ना में प्रविष्ट होता है; जिससे मन सम हो जाता है। मन सम होने से पर, समनान्त हो जाता है। यह युक्ति से प्राणायाम अभ्यास करना है। मध्य में प्राण स्थिर कर, प्राण अपान को सम करना है, नित्य ध्यान उर्ध्व प्राण या ज्ञान पर रख, सूक्ष्म से पर और पर से सूक्ष्मातीत स्पन्द को पाना है। स्पन्दम् लब्धे। प्रमाता एक बार शक्ति स्पन्द से स्थापित हुआ फिर उसे वापस गिरना नहीं है। शरीर गिरेगा तब भी गति उर्ध्व रहेगी; सकल से अकल की ओर।
गुरू प्रकाश से बोधित हो, प्राणायाम से मध्य का विकास कर सुषुम्ना में प्रवेश करे, और उर्ध्व अनुसंधान से स्पन्दम् लब्धे।
घोर से अघोर।तमसो मा ज्योतिर्गमय।
पूनमचंद
१४ अप्रैल २०२२
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