ब्राह्मी स्थिति।
भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ की व्याख्या हो रही है। ऐसा मुनि जिसके मन में दुख से उद्वेग नहीं और सुख से निःस्पृह, जिसका राग, भय, क्रोध नाश हो चुके है।
बात बुद्धि को प्रज्ञा में और प्रज्ञा को स्थिरता में लाने की है। ज्ञान प्रकाश इसी दर्पण में होगा।
इसलिए जैसे एक कछुआ अपने अंगों को संकोरता है वैसे बहिर्मुख इन्द्रियों को उसके विषयों से हटा कर अंदर लाना है। ऐसा करते हुए भी अगर आसक्ति का नाश नहीं हुआ तो आसक्ति बुद्धिमान मनुष्य के मन को हर लेती है।
इसलिए साधक के लिए ज़रूरी है कि इन्द्रियों को वश में कर भगवान परायण होना है। तब बुद्धि स्थिर होती है।
विषय चिंतन से आसक्ति, आसक्ति से विषयों की कामना, कामना में विघ्न से क्रोध पैदा होता है। क्रोध से मूढ़ता और मूढ़ता से स्मृति भ्रम, स्मृति भ्रम से बुद्धि नाश।
बुद्धि नाश तो फिर स्थिरता किस की करें, प्रज्ञा किसको बनायें और ज्ञान कैसे हो?
आपके प्रश्न के जवाब में श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि जो स्व नियंत्रित है वह बिना राग द्वेष इन्द्रियों से विषयों में विचरण करते हुए भी चित्त की प्रसन्नता पाता है। ऐसे प्रसन्न चित्त को सब दुखों के अभाव होने से बुद्धि स्थिर हो जाती है।
स्थिर बुद्धि वाला परम शांति पाता है और यह शांति स्थिति ही ब्राह्मी स्थिति है।
पूनमचंद
२२ अप्रैल २०२२
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