दानी गुरू।
जिस योगी ने तुरीयातीत स्थिति पाई है और जिसे शिव की स्वातंत्र्य शक्ति और समता प्राप्त हुई है, उनका व्रत कैसा होगा?
जब ‘मैं शिव हूँ’, ऐसे साक्षात्कार भाव से शरीर में अवस्थित हो, ऐसी शिवतुल्य स्थिति को पंचभौतिक शरीर में सँभाल दिव्यता का आधान किया हो, यह स्थिति ही उनका व्रत है। उनका पूर्ण स्वरूप, नित्य उदित बोध में रहना ही व्रत है।
उनका उठना, बैठना, चलना, सोना, बोलना, इत्यादि सब क्रिया मुद्रा है।
उनकी वाणी, वाक्य, शब्द जप रूप है। कथा जपः।
मैं ही परम हंस, मैं ही परम कारण, मुझ में ही सब उदित और लीन हो रहा है, मैं ही हूँ, मेरे अलावा और कुछ नहीं, ऐसा पूर्ण बोध, शिव शक्ति सामरस्य, अहम, पूर्णोहम, अहम विमर्श, उनका विमर्श है। इसी अकृतिक अहम भाव में सतत अवस्थित है। चेतना ही विमर्श है। प्रकाशरूपता का अनुभव है। नित्योदित स्थिति है।
ऐसे स्वात्म विमर्श में होना ही जप कहलाता है।
ऐसे अजपा जप में मग्न शिवात्म साक्षात्कारी योगी के निकट पहुँच गये तो उनकी ऊर्जा औरा में आते ही हर जीव, मनुष्य, पशु, पक्षी शांत होकर उनके प्राण और मन समान प्राण और मन की समता का अनुभव करते है। वह दानी है। दानम् आत्मज्ञानम्। अपने आत्मज्ञान के प्रकाश में डुबायेंगे, स्नान करायेंगे। विकल्प चले जायेंगे। निर्विकल्प स्थिति हो जायेगी। आत्मज्ञानी योगी साक्षात्कार ज्ञान का दान समझदार मुमुक्षु को करते है। अपने स्वरूप का दान करते है। पिंड बनकर प्रवेश कर लेते हैं और स्वरूप साक्षात्कार कराते है।
ज्ञान का अर्थ शब्दों, शास्त्रों के अर्थ की जानकारी नहीं। साक्षात्कार है। अपरोक्ष अनुभूति। प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष नहीं, अपरोक्ष। स्वयंभू स्वयं प्रकाश की अनुभूति। नित्योदित अनवरत स्थिति। चैतन्य रूप आत्मा का साक्षात्कार।
दान का अर्थ क्या? दीयते परिपूर्णम् स्वरूपम्। अपने पूर्ण स्वरूप का दान देते है। दीयते खंडयते विश्वभेदः। विश्व में जो भेद है उसे तोड़ देते है। दायते शोध्यते माया स्वरूपम्। माया के स्वरूप का शोधन करते है। माया की स्वातंत्र्य शक्ति हमें बांधती है, उसके शोधन से, शुद्धिकरण से शिव की स्वातंत्र्य शक्ति का अनुभव होता है।दीयते रक्षते लब्धे शिवात्म स्वभाव। शिव स्वभाव प्राप्त कराकर उसकी रक्षा करते है।
ऐसा साक्षात्कार, विश्व भेद खंडन, माया शक्ति शोधन कर अपने शिवात्म स्वरूप में स्थापित करते है वही गुरू है। उसी अंतःगुरू को नमन हो।
मैं पूर्ण हूँ, पूर्ण हँस हूँ, स्वयं नाद की अनुभूति है वही जप है। मेरे होने की भावना भीतर से ही तो उठ रही है। अहमात्मका छलक रही है। वही जप है। बाहर आ रहा श्वास प्राण है, सकार है। भीतर जा रहा अपान है, हकार है। हंस हंस, जीवो जपति नित्यम्। मंत्र चल ही रहा है। सकारेण बहिर्याति, हकारेण विशेत् पुनः। सोડहम्। मैं यह हूँ। I am that. करना कुछ नहीं है। मंत्र जपो या न जपो अहर्निश २१६०० अजपा नाद जप चल रहे है। बस जागरूक होकर भावना जोड़नी है। हं-सः, हं-सः। रिधम से जागरूक होकर चित्त को उस जप यज्ञ के साथ जोड़ देना है। बार-बार, भूयो भूयः। गिनती नहीं करनी है। पुरुष प्रकृति का मिलन है। मिलन में प्रेम जोड़ना है। प्रेम से जाप में जुड़ जाना है। प्रेम भाव ही चाबी है।
गुरू दानी है। उनके दान और हमारे उन पर पूर्ण विश्वास का जोड़, और चेतन भावना प्रेम सहित जुड़ जायें तो बस काम हो गया।
समदर्शन अब दूर नहीं, साक्षात्कार से कुछ कम नही।
🕉गुरूभ्यो नमः।
पूनमचंद
५ मई २०२२
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