तीन में चौथा पकड़।
चरैवेति चरैवेति।
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु,
शं नश्चतस्रः प्रदिशो भवन्तु ।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु,
शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः ॥ऋ.वे.७.३५.८॥
(सामान्य अर्थः अतिप्रकाशवान सूर्य का उदय हम सबके कल्याण के लिए हो। पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण ये चारों दिशाएँ हमारा कल्याण करें। दृढ़ता से स्थित होकर पर्वत, नदियाँ तथा समुद्र हम सबका कल्याण करें तथा बहता हुआ जल कल्याणकारक हो। सम्पूर्ण प्रकृति सबके लिए कल्याण करने वाली हो।)
(शैव अर्थः एक सूर्य बाहर दूसरा भीतर। उस भीतर सूर्य के उदय से चारों दिशाओं में वो महान प्रकाश जो फैला जा रहा है, उस चेतना के भीतर घट रहे रस तत्व का अटल आसन में शांत स्थिर बन स्वीकार करें।)
काशी नगरी। गंगा का किनारा। मंद मंद ठंडी लहरे। प्रकृति और प्रमाता का सामरस्य। आज दो आचार्य की पकड़ थी, इसलिए चौथा कैसे छूटेगा? एक ने कहा निहार, दूजे ने कहा अंगी-रस भर।जैसे माली बगीचे से एक एक सुंदर फूल चुनकर उसकी सुगंध हम तक पहुँचाता है वैसे ही आचार्यो ने शास्त्र के सार अर्थ को हमारे आचरण में स्थापित कर चलना सिखाया।
हमारे व्यक्तित्व के तीन पक्ष; वाक्, मन और प्राण। इन तीनों को एक सूत्र करने तीन साधन है। वाक् संस्कार, मन संस्कार और प्राण संस्कार। वर्ण संस्कार, मन संस्कार या प्राण संस्कार; बाह्य प्रक्रिया उस मर्म तक पहुँचने की क्रिया है जिससे समावेश आवे।
१) मातृका से वाक् संस्कार।
भीतर का नाद दो रूप में वर्ण बना है। आहत और अनाहत। पशु मातृका से शिव मातृका का अनुसंधान कर वाक् संस्कार से वैखरी के अवरोह क्रम में अनाहत परा में प्रवेश करना है। वर्ण के सूक्ष्मीकरण से अनाहत में प्रवेश करना है। इसके लिए वर्ण मातृका का ध्यान जप है। मायीय मातृका बंधन है और अनाहत मातृका मुक्ति। वाक् संस्कारित कर, वर्ण-ध्वनि-शब्द संस्कारित कर, परमात्म सिद्धि का द्वार खोलना है।
२) मन संस्कार।
चिति ही चित्त बनी है, उस चित्त में से चिति को उजागर करना है। जाग्रत अवस्था में प्रत्याहार से इन्द्रियों को विषयों से वापस खींचनी है। स्वप्न में बाह्य इन्द्रियां निष्क्रिय हैं पर विषय चिंतन चालु है। योगी को विषय जगत से दूर हटना है। आत्मा के जन्म जन्मांतर के संस्कार और पशु मातृका के सम्मोहन से मुक्त होना है। सुषुप्ति जड़ शांति या मूर्छावस्था है। मन पूरितति नाड़ी की साईज़ लेकर उसमें प्रविष्ट होकर बाहर निकल नहीं पाता इसलिए गहन नींद का अनुभव होता है।
३) प्राण संस्कार।
आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य देह में १०७ मर्म स्थान है जहां शिरा-स्नायु-संधि-मांस और अस्थि मिलते है। प्राण पूरे शरीर में व्याप्त है पर मर्म स्थानों में ज़्यादा।यहाँ वो मर्म है जहां प्राण चेतना का निवास है। जहां से जीवन उदित होता है। पूरे देह में जो गतिशील है वह वायु एक है, पर देशभेद से दस प्रकार है। जिनके नाम प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकिल, देवदत्त और धनंजय हैं। उसमें प्रथम पाँच मुख्य है। आयुर्वेद के अनुसार उदान कंठ में, प्राण हृदय में, समान नाभि में, अपान मलाशय में और व्यान पूरे शरीर में रहता है। इनके अलग अलग कार्य है। शैवों का प्राण-अपान श्वासोच्छ्वास में है। मध्य समान सुषुम्ना है। उदान सुषुम्ना प्रवेश है और व्यान व्याप्ति है। प्राणापन की पूरक कुंभक और रेचक क्रियाओं से प्राणायाम की स्थूल क्रिया होती है। उसमें मन लगाकर या तो प्राण से मन या मन से प्राण का विनियमन किया जाता है। योगी दस प्राण और २१६०० श्वास को नियमित कर उसकी गति मंद कर उस परम तत्व में विश्रांति करते है। शैवों के अनुसार परब्रह्म तत्व की प्रथम बाह्य अभिव्यक्ति प्राण है, इसलिए प्राणायाम की स्थूल बाह्य और आंतरिक क्रिया छोड़कर उस सूक्ष्मतम पद, परम स्पंदन, शांकर स्पन्दन को प्राप्त करना लक्ष्य है; जो हृदय में स्थित है, उसमें प्रवेश करना है। यहाँ स्थूल हृदय की बात नहीं है पर वो हृद कुहर जिसके मध्य में ब्रह्म तत्व विद्यमान हैं और जो अहम अहम से अभिव्यक्त है, उस चैतन्य में मन से प्रविष्ट होना है। अंतर ज्योति से गहरी डूबकी लगाकर तल में बैठ मज्जन करना है। भौतिक जगत की विष संवेदना से बाहर निकल उस अमृत संवेदना में प्रवेश करना है। उसमें मग्न होना है। तल्लीन होना है। तद्रूप होना है। चित्त के उस चमत्कार रस में डूब जाना है। पूर्णाहंता भैरवावस्था सिद्ध करना है।
अमृत और मृत्यु दोनों भीतर प्रतिष्ठित है। मोह से मृत्यु और सत मार्ग से अमृत प्राप्त होता है। तीनों अवस्थाओं में चतुर्थ अमृत जो शुद्ध विद्या का विस्तारित प्रकाश है उसको ग्रहण कर उसमें स्थित होना है। सूक्ष्म संस्कारों को देखते देखते पर्वतारोहण करना है। फिर जब शुद्ध विद्या रूप से प्रकटा अमृत बिंदु चला न जाए उसके प्रति सावधान रहना है। उस अमृत बिंदु को ग्रहण कर उसे सावधानी से सँभाल कर, जैसे तैल का एक बूँद धीरे-धीरे कर टब के पूरे जल में व्याप्त हो जाता है, वैसे शनैः शनैः उस अमृत बिंदु मधुरस को तीनों अवस्थाओं में तुरीय का विस्तार करना है। फलस्वरूप विश्वात्मता, विश्वरूपता, अद्वैत, समदर्शी संविद शिवता को पाना है।
उस मधु के क्षण क्षण एकत्रित कर, सावधानी से ग्रहण कर, उस अनुसार जीवनचर्या बनानी है। जिससे व्यवहारिक जीवन को ब्राह्मी भाव से रसमय बनाना है। उस रसमयता की तैल क्रम से शनैः शनैः व्याप्ति बढ़ानी है। तन्मयी भाव में आना है। तत् स्वरूप हो जाना है। तुरीया का आभोग विस्तार करना है। म्यान तलवार जैसी एकता करनी है।
समदर्शी योगी को लौकिक व्यवहार में वर्णाश्रम भेद से बाहर होकर मुक्ति पद अद्वैत का आचरण करना है। वाक् संस्कार से मन संस्कार, मन संस्कार से प्राण संस्कार, और तीनों को अभिसूत्रण कर एकसूत्रता से अंतर्ल़क्ष्य विलीन कर दृष्टि की स्थिरता पाना है। ऐसे योगी की आँख खुली होगी पर उसका चित्त हृदयस्थ, ध्यानस्थ होगा। सावलंब समाधि से विमुक्त होकर उज्ज्वल (ऊर्ध्व की ओर ज्वलन प्रकाश) समरसता के सुख स्पंदन में मग्न होकर परम पद में प्रविष्ट कर, प्रसरण कर आत्मा की ओर आरोहण कर चेतना की परादशा को प्राप्त करता है।
ऊर्ध्व की ओर चरण कर चलना है। पहुँचना वहाँ है जहां वो अत्यंत रसमय आनंदमय उच्छलता का स्पंदन है। उसे पाना है जो प्राप्य हैं पर अनुभूत नहीं। उसके आकर्षण की प्रेरणा रहे। यहाँ यात्रा में जो साधन प्रयोग है उसके सूक्ष्मतम रूप में जाने का प्रयास है। चारों ओर से समेटकर मूल पर आना है।
हाथ आई इस अनुभूति के अभ्यास से पूर्णरूप से जीवन में उतारें और उसका धीरे-धीरे प्रसार करें। पता नहीं कौन रोक रहा है? हरदम मौजूद पर जीवन रसमय बना नहीं।
चौथा खोया नहीं है। प्राप्त है। बस मलावरण हटाने की देर है।
चरैवेति-चरैवेति, यही तो मंत्र है अपना।
नहीं रुकना, नहीं थकना, सतत चलना सतत चलना।
पूनमचंद
३ मई २०२२
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