सहजावस्था स्वातंत्र्य सिद्धि।
तु माने चाहे ना माने, है पूरण भरपूर। सिद्ध स्वतंत्र संपूर्ण, चिदरस आनंदघन।
पूर्ण से पूर्ण लिये, घटे न लगार।
छलक रहा उदधि, शिव बना संसार।
बिंदु माने या सिंधु, बुद्धि का है खेल। कण कण तुम्हीं छलके, जग तुम प्रकाश।
न देख दोष किसी का, अपनी भींति अपना दर्शन। अखंड भाव शुद्धि धर, द्वैत अशुद्धि को त्यज।
शरीरभाव से पीछा छुड़ा, भीतर भरा मल हटा। बोध ज्ञान तुं स्वयं, अखंड का कर अभ्यास।
देख ज़रूर मगर, सोच बदल कर देख। लघु और दोष दृष्टि से, बाहर तुं निकल।
जाग्रति का बीज लगा, पकड़ रख उसकी डोर। परम स्थिति पूर्ण है, बस तुं पूर्ण भान रख।
सिद्धि स्वतंत्र भाव चिंतन कर, सत स्वरूप पहचान। विधा ज्ञान रूप खुद जान, सहज विद्या जय कर।
मैं शरीर मन बुद्धि प्राण, पर हूँ चैतन्य घन स्थिर। पराविद्या सर्वोत्कर्ष, ऋतंभरा प्रज्ञा धारण कर।
आत्मरूप स्थिति धर, हृद सरोवर सुख डूबकी भर। भरी शिवरस पिचकारी, इन्द्रियों से रसास्वादन कर।
अपनी प्रतिभा पहचान, स्वरूप अपना खुद जान। शहेनशाहो का शहेनशाह, हर कंकर तुं शंकर।
पूरे जगत का मालिक तुं, पूर्ण दृष्टि तुरीय रूक। तुं ही बिंदु, तुं ही सिंधु, तुं ही दृश्य तुं दर्शन।
मैं प्रमाता - जगत प्रमेय, है सब यह नाटक खेल। कण कण में तुं प्रकाश, तुं ही पृथ्वी तुं ही शिव।
जाग्रत जागृति बने, पूर्ण प्रकाश रूप जग हुए। कण कण देखे आनंद प्रस्फोट, तब लाधे शिव संगीत।
तुं ही शिव, तुं ही जगत, तुं ही जग प्रकाशक। तुं ही रंगमंच, यह सब जग बना तेरा नर्तन।
तु माने चाहे न माने, है पूरण भरपूर। सिद्ध स्वतंत्र संपूर्ण, चिदरस आनंदघन।
पूनमचंद
१९ अप्रैल २०२२
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