शिव सत्व
यह शिव नाटक कोई एक रस का नहीं है। नौ रस उसमें समाये है।वीभत्स, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, शृंगार और अद्भुत रसों का आश्चर्य है। घोर रूप में अघोरी अभिनय है।सारी पृथ्वी को मंच बनाकर योगस्थ शिव रूई के भार वजन बनाकर अपनी बाँहें उठाकर उसे मुद्राओं में सिकुड़कर, अग्निघर नेत्रों को चंचल रख, खुद को दुःखमय बनाकर थियेटर की कन्डीशनींग न टूट जाये उसका ध्यान रखते हुए नृत्य कर रहा है। यह नृत्य को वही इन्द्रियां प्रेक्षक बन देख सकती है जो अंतर्मुख है, स्वच्छ है, निर्मल है।
शब्द ही से बंधन और शब्द से ही मुक्ति। शब्द को रगड़ना है और उसके अर्थ को उजागर करना है। स्वच्छता कैसी? निर्मलता कैसी? जैसे कादंबरी का नायक का सरोवर दर्शन। इदंता (दृश्यमान जगत) को गुरू बनाकर देखो। जो बाहर दिख रहा है वह आपका भीतर का प्रतिबिंब है। प्रतिबिंब बाहर नहीं है। अंदर का दर्पण अपना प्रकाश बाहर फेंक रहा है। बाहर की स्वच्छता देखने या अनुभूत करने भीतर की स्वच्छता ज़रूरी है। जो अंदर है वही बाहर दिखेगा। बाह्य जीवन आंतर जीवन का ही प्रतिबिंब है। अगर बाहर गंदगी दिख रही है तो भीतर की सफ़ाई करो। रागादि दोष हटाओगे, भीतर स्वच्छता आयेगी, निर्मलता आयेगी तब जा के पंचेन्द्रिय के प्रेक्षक शिवानंद से तृप्त होंगे। तब जा के इस शिव संगीत में छीपी हँसो की ध्वनि कर्मेन्द्रिय को तृप्त करेगी। उसकी कमल गंध को सूंघेंगी, उसकी ठंडक और शांति का स्पर्श करेगी। खुली आँखों से वह शिव रहस्य जान जायेगी। स्वयं शिव नर्तक अंतरात्मा के रंगमंच पर नृत्य कर रहा है। चैतन्य ही स्वतः आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि बन उदित हो रहा है। जल से स्वतः मछली जन्म ले रही है। यह सारा ब्रह्मांड शिव का त्रिलोकी नाटक है जिसमें त्रिलोकीनाथ स्वयं भूमिका लेकर सकल से अकल रूप में प्रकट है।
स्वच्छता, निर्मलता और धीरता से उस सत्व (शिव) को सिद्ध करें।
घट के भीतर नाद गुंजता, अंतर ज्योत जगी; सो सूरज के उजियारे में, मैंने मुझको पाया।
धन्य भाग्य, सेवा का अवसर पाया,
चरण रज की धूल बन, मैं मोक्ष द्वार आया।
पूनमचंद
२० अप्रैल २०२२
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