वर्णमाला ज्ञान प्रवाह।
भाषा की शुद्धता के बिना उस सौंदर्य का रसपान कैसे होगा। हिमालय कुछ लोगों के लिए पत्थरों का ढेर या बर्फ़ आच्छादित पर्वत होगा पर महाकवि कालिदास के लिए पर्वतों का राजा और देवताओं का निवास स्थान है।
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:। पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः।।1।।
उत्तर दिशा में हिमालय नामक देवताओं की आत्मा (निवास योग्य स्थान) पर्वतों का राजा (स्थित) है, जो पूर्व और पश्चिम दिशा में स्थित दोनों समुद्रों में पृथ्वी के मापक पैमाने की तरह प्रविष्ट होकर खड़ा है अर्थात् दोनों समुद्रों के बीच में स्थित होकर पृथ्वी की गहराई को माप रहा है।
वर्णमाला की देवी है सरस्वती। उनके कर कमलों की माला वर्ण माला है, और उसका एक एक वर्ण योग्य रूप से अपना स्थान लिए हुए है। स्वर और व्यंजन से बनी ५० अक्षरों की यह वर्णमाला ज्ञान प्रवाह है, मातृका है, शक्ति केन्द्र है। उसके सही या ग़लत इस्तेमाल से वह अच्छा बुरा परिणाम प्रकट करती है।
स्वर बीज है और व्यंजन अर्ध मात्रा है। स्वर के बिना व्यंजन बोल नहीं सकते। अ वर्ग स्वर भैरवात्मक है जिसकी अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी है। क से क्ष तक के व्यंजन सात वर्गों में विभाजित व्यंजन योनियात्मक है और उनके उत्पत्ति स्थान के आधार पर उनका ग्रुपिंग है। अ स्वर वर्ग और सात व्यंजन वर्गः क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग, स वर्ग। क वर्ग की ब्राह्मी, च वर्ग की माहेश्वरी, ट वर्ग की कौमारी, त वर्ग की वैष्णवी, प वर्ग की वाराही, य वर्ग की …. और स वर्ग की चामुंडा अधिष्ठात्री देवियाँ मानकर उनकी पूजा आराधना की जाती है। भारत में देवी पूजा का मूल यही अक्षर-विद्या उपासना में है।
स्वर और व्यंजन के भी उनके उत्पत्ति स्थान के संज्ञान से वर्ग बनाये गये है। जैसे अ, आ, क, ह और ः (विसर्ग) का उत्पत्ति स्थान कंठ होने से उनका कंठ्य ग्रुप बना है। इ, ई, च वर्ग, य्, श् से तालव्य; ऋ, ट वर्ग, र्, शिव, मूर्द्धन्य; लृ, त वर्ग दन्त्य; उ, भ, प वर्ग ओष्ठ्य; और ङ, ञ, ण, म, न अनुनासिक है। उत्पत्ति स्थान की एकता से ग्रुपिंग है। जैसे राष्ट्र नस्लों से नहीं अपितु संस्थान और संभोग से बनता है। जिस प्रदेश का स्थान एक हो और खानपान एक हो, वहाँ राष्ट्र निर्माण हो जाता है।
अक्षर का स्थान और प्रयोग बड़ा अनमोल है यह समझाने एक प्राचीन कथा है। असुरों का शत्रुनाश यज्ञ चल रहा था। असुर थे इसलिए यज्ञ के दौरान मद्यपान स्वाभाविक था। अरि का अर्थ शत्रु होता है इसलिए उनके मंत्र अरहः से बने थे। लेकिन मद्यपान ने उनकी जिह्वा को शिथिल किया और वह अलहः बोलने लगे। अलि का अर्थ है मित्र। परिणामस्वरूप उनके शत्रु के बदले मित्र नष्ट हो गये और वह देवमाता के बदले पशुमाता के बंधन में आ गये।
भारत में भाषा को शुद्ध रूप को संस्कृत कहा है जिससे संस्कृति बनती है। उसके अशुद्ध रूप को अपभ्रंश कहा है। जैसे गंगा नदी अपने उद्गम गोमुख पर शुद्ध स्वरूप में है पर नीचे मैदान में आकर अशुद्धियों से भर जाती है। सारा जगत ज्ञानरूप है। ज्ञान से भिन्न किसी की सत्ता नहीं। शुद्ध शब्दों से गाली-गलौज तक ज्ञान का विस्तार है। सिर्फ़ संकोच विस्तार का फ़र्क़ है पर ज्ञान बिना कोई भाव प्रकट नहीं होना है। शुद्ध अध्वा के देवी अधिष्ठान ऋषित्व से लेकर पशुमातृका के पशुत्व तक सब ज्ञानरूप है।
वाणी के चार स्तर है। परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी। भीतर जो अंतरतम शुद्ध क्षेत्र है वहाँ से परावाक् का उदय होता है। आगे वह मिश्रित होती हुई हृदय केन्द्र से पश्यन्ति, विशुद्धि केन्द्र से मध्यमा और ओठों पर आकर वैखरी बन प्रकट होती है। परा से वैखरी तक ज्ञान वहन है। आरोह अवरोह की यात्रा है। उसी में ज्ञान का विस्तार या परिसीमन है। वाणी ही बंधन और मुक्ति, दुख और सुख का कारण बनती है।
पातंजल वर्णमाला का प्रथम अक्षर अ और आख़री ह ह है, उसके संयुक्त रूप अह में बिंदु (अनुनासिक) स्थापना से बना है अहं, जो शुद्ध रूप में शिवरूप और अशुद्ध रूप में पशु है। दोनों ही स्थिति में अहं शक्तिमान हैं, जिससे हमारा भौतिक व्यवहार चलता है। शुद्ध अहं से ही शिवत्व और अशुद्ध अहं से अहंकार बनता है।अहं ही हमारा मनोवृक्ष है, हमारी पहचान है। उसी अहं की शुद्धि के लिए बीज मंत्र बने है, दैवी उपासना स्रोत बने है। हर अक्षर शक्ति केन्द्र है। एक एक वर्ण की उपासना से हमारे शरीर में जो ५१ शक्ति स्थान है वह पुष्ट होते हैं। अक्षर को ब्रह्म की उपाधि देकर अखंड ध्वनि के रूप में स्वीकार उसकी उपासना की जाती है।
इसलिए वाणी पर ध्यान दे। अगर दूसरों के शब्द चुभे तब अपना अवलोकन करें। लगी, मतलब अहंकार। लिया तब चुभी। अगर अपने शब्द दूसरों को चुभे तब भी अपना अवलोकन करें। अपनी भाषा की अशुद्धता को पहचानें और उसको सुधारकर शुद्ध अध्वा में स्थापित करें। वाक् ही बंधन वाक् ही मुक्ति, वाक् को संस्कारित करें। अशुद्धि का ज्ञान संकोच दूर करें, और पूर्ण अहंता की शुद्ध विद्या की अनुभूति में विश्रांत करें। प्रमाद से बचें।
अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि
॥ऋग्वेद २।४१।१६॥
(माताओं, नदियों, देवियों में श्रेष्ठतम सरस्वति (रस का प्रवाह) माता, हम हैं अप्रशस्त, हमें प्रशस्त (प्रशंसा करने योग्य) करें।)
पूनमचंद
२ मई २०२२
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