पूर्ण का मध्य कहाँ?
साँस लेते है अपान, छोड़ते है प्राण, दोनों जहां से उठते है वह मध्य। जैसे समुद्र की लहर के देख रहे है, उठी और लय हुई। लेकिन अक्सर ऐसा होता है के हमारा ध्यान उस मध्य में स्थिर हो जाता है। मध्य को देखने के चक्कर में समुद्र पर से नज़र हट जाती है। जो हो रहा है वह सब द्वैत है और जहां हो रहा है वह अद्वैत। वह मध्य नहीं अपितु पूर्ण है, अखंड है। उसके कैनवास पर हो रहे चित्र खंड है।
अगर समुद्र में बैठक लगा दी फिर क्या प्राण अपान समान उदान और व्यान या क्या इड़ा पिंगला या सुषुम्ना? क्या सोम सूर्य और अग्नि (वह्नि)? कौनसा प्रमेय-प्रमाण-प्रमाता? कौन ज्ञाता कौन ज्ञेय? क्या भूत वर्तमान और भविष्य? कालातीत अखंड चिद्घन पूर्णता में सब द्वैत समाप्त।
मुक्तात्मा तो हृदयस्थ है। जीवनी शक्ति में अवस्थित है। कौन अवस्थित नहीं? आप का होना ही तो प्रमाण है। फिर मानते क्यूँ नहीं?
हृदय नहीं होता, चैतन्य नहीं होता, प्रकाश नहीं होता को यह सत्संग कौन सुन रहा है? कौन मनन कर रहा है? कौन जानना नहीं जानना को अनुभव कर रहा है?
खुद ने चुना है पूर्णता से संकोच का। शिवरूप से जीव रूप का। अब शिवरूप में किया संकल्प जीवरूपी संकोचन से कैसे टूटेगा? इसलिए गुरू चाहिए। ऐसा एक जिसने यह संकोच की दिवारों को गिराया है। वह आपको पूर्णता का रसास्वादन करा देगा।
फिर जैसी आपकी तड़प। अगर वह रसास्वादन अखंड रखना है तो आप उस समुद्र के आसन में स्थिर रहोगे। शरीर इन्द्रियाँ घूमती रहे पर आप नहीं उठोगे उस पूर्णासन से।
आपको आनंद की ललक लगी ही है। संकोचन से जीव बने हो पर अखंड जीवनी शक्ति की पूर्णता से जुड़े हो, इसलिए वह अखंडानंद की तड़प है जो पंच भौतिक विषयों में खोजते हो। हर बार भोग करते हो पर प्यास नहीं बुझती। फिर नई इच्छा, नया प्रयास पर हर बार विफल। ऐसा करते करते शरीर थक जाये तो फिर दूसरा शरीर। पुर्यष्टक की पकड़ छूटती नहीं अहंकार छूटता नहीं।
दरिया अंदर है पर बाहर की दौड़ ख़त्म नहीं होती। पानी में मीन प्यासी।
अगर उस जीवनी शक्ति को समझ लिया, एक क्षण लगेगी। आसन जमा लिया फिर आपका शरीर और उसकी क्रियायें व्रत बन जायेगी।
और सब छोड़ो, पूर्ण पर अड्डा बनाये। विद्या पकड़ो अविद्या की क्या ज़रूरत?
प्रकाश में हो ही, अंधकार हटाने कहाँ जाओगे?
बस एक ही समस्या है। मानते ही नहीं और गा रहे हैं दिल है कि मानता नहीं।
मान जाओ। 😁
पूनमचंद
११ मई २०२२
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