Tuesday, May 10, 2022

विद्या अविनाशे जन्म विनाशः।

 विद्याડविनाशे जन्म विनाशः। 


आज के सत्संग में एक बात वही महत्वपूर्ण उभर कर सामने आई, वह है हमारी जन्म मृत्यु, विद्या-अविद्या, ज्ञान-अज्ञान की लौकिक मान्यता। हम उन सब को स्थूल या लौकिक अर्थ से समझ रहे है। पर आचार्य अंगीरस जी ने बड़ी सरलता से उस बातों का शैव दर्शन से तार्किक समाधान किया। 


जन्म और मृत्यु हम जिसे हम लौकिक अर्थ में समझ रहे हैं उससे मुक्त होने की बात नहीं है। दो शरीर है। भौतिक शरीर और भाव शरीर। योगी में भाव शरीर निर्माण की शक्ति आ जाती है। भौतिक शरीर को जन्म मृत्यु बंधन है पर भाव शरीर को नहीं। योगी इसी भाव शरीर से अपने कार्य कर लेता है। उसकी सिद्धि अवरोध नहीं है। सहज विद्या से, विद्या में निरंतर रहने से जन्म का विनाश होता है। तार्किक अर्थ यह है कि भाव शरीर सीमाओं में बंधा नहीं है इसलिए कोई बंधन नहीं है। उठते बैठते, जागते सोते उसकी जागृति बनी रहने से सीमा विहीन अवस्था प्राप्त हो जाती है। वही मृत्यु से छूटकारा है।  


३६ तत्व समूह में अविद्या और अज्ञान का उल्लेख नहीं है। शैवों का अज्ञान, ज्ञान के अभाव नहीं परंतु ज्ञान संकोच, ज्ञान विस्मृति है। ज्ञान हमसे अलग नहीं। ज्ञान का अभाव नहीं है सिर्फ़ संकोच है। ज्ञान प्रकाश के बाहर कुछ भी नहीं। लौकिक विषय ज्ञान की सीमा है पर शुद्ध विद्या से प्राप्त पूर्णाहंता ज्ञान का परिसीमन नहीं।  


शुद्धता के शिवता पद से अशुद्धि के अहम् पद अहंकार में बंधने से सप्तपंचम प्रपंच निर्माण होता है।फिर हेय (अवलंबन योग्य नहीं) और उपादेय (लक्ष्य, अवलंबन योग्य) के सांसारिक अवस्था में लगा रहता है। उपादेय पूर्णहंता है। सर्वम् शिवम् के दर्शन से सबको शिवरूपी में जोड़ने से तीन मलों से मुक्ति मिलती है और पूर्णाहंता में प्रवेश होता है। 


शिवता या आत्म बोध हमारे सबसे करीब है। दूसरा कोई है ही नहीं। वह निकटता विस्मृत भी नहीं। पर जानोगे कैसे? एक जानना वर्णनात्मक होता है और दूसरा अनुभूति से जानना। अनुभूति से जानना ही सही जानना है। शिवता को निकटता को देखते रहने से, अनुभूत करने से सहज विद्या प्राप्त हो जाती है। समुद्र की लहरों की तरह उसकी निरंतरता और उन्मिलनता का अनुभव होता है। सारा विश्व ज्ञानमय है। कोई भी चीज ज्ञान से अलग नहीं। ज्ञान की विस्तृति के कारण पूर्णाहंता से विमुखता है। सहज विद्या के उदय होते ही पूर्णाहंता, शिवोहम् की अनुभूति होती है। 


 पूर्णाहंता का निश्चय कर पूर्णता में प्रवेश कर उस पूर्णता का साक्षात्कार ही उपादेय है। फिर न संकोच है न जन्म। उसको परिसीमन नहीं। फिर ऐसा योगी जन्म मरण के बंधन में नहीं आता। सीमा में नहीं बंधता। उस अविनाशी विद्या सहज विद्या से जन्म नाश करे। सीमा बंधन ख़त्म करें। उस पूर्णाहंता में प्रवेश करें। 


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ -वृहदारण्यक उपनिषद


पूनमचंद 

२ मई २०२२

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