शुद्ध विद्या सत्व सिद्धि।
शुद्धविद्योदयाच्चक्रेशत्वसिद्धिः। (शिवसूत्र.२.२१)
शिव से भूमि पर्यंत अवरोह क्रम से बनी यह ३६ तत्वो की शिवलीला का उपर से पाँचवा पड़ाव है शुद्ध विद्या। नीचे सकल, प्रलयकल, विज्ञानाकल को पार कर प्रमाता माया क्षेत्र को लांघकर जब शुद्ध विद्या क्षेत्र में प्रवेश करता है तब उसकी वास्तविक आध्यात्मिक यात्रा का दिव्य प्रारंभ होता है।
छठ्ठा माया तत्व यहाँ मिथ्या या असत्य नहीं है। परंतु जगत योनि के रूप में है, जिसके द्वारा चैतन्य शिव खुद को अनेक रूपों में विभाजित करके भौतिक रूप में प्रकट हुआ है। माया योनि से एक अनेक बन व्यवहार के लिए एक दूसरे में भेद हो खड़ा है।
सांभवोपाय, शक्ति उपासना से शुद्ध विद्या पड़ाव
पर पहुँचते प्रमाता में ज्ञान संकोच हटता है और अहमेव सर्वम् का ज्ञान होता है जिससे भेद में अभेद का दर्शन होना शुरू हो जाता है।एक ही शक्ति के स्पन्दन में सारा विश्व है, और शिव का यह विमर्श मैं ही हूँ यह अनुभूत होता है। क्रिया शक्ति का अनुभव होता है। मंत्र देवता है इसलिए मंत्र सिद्धि से सिद्धियाँ प्राप्त होती है। समस्त पारमेश्वरी शक्तिओ के चक्र का स्वामी बन जाता है। महामंत्र वीर्य बल आता है।
शुद्ध विद्या के आगे ईश्वर, सदाशिव, शक्ति और शिव चार भूमिका है। जिसमें अलग अलग भूमिका में इदम और अहम् की एकता सिद्ध होती है। आख़री में रहता है अहम्, पूर्णाहंता।
आज सुबह के सत्र में एक मंत्र मिला; हं-सः, हं-सः। शक्ति मंत्र है। माया क्षेत्र लांघकर शुद्ध विद्या क्षेत्र में प्रवेश करा सकता है। चढ़ाई है इसलिए जो चलता रहेगा वह पहुँचेगा। मंत्र को चलाना पड़ता है। जो मंत्र चलायेगा, सिद्धि उसके कदम चूमेगी। हालाँकि सिद्धि उपादेय नहीं। लक्ष्य तो है समदर्शन, शिवत्व, पूर्णाहंता।
चरैवेति चरैवेति।
पूनमचंद
६ मई २०२२
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