अमृतसर में आसन जमाओ।
(आसनस्थः सुखं हृदे निमज्जति। (३-१६))
जल बने हो हिम समझ,
घनीभूत टूट रस बन बह।
अमृतसर में आसन जमा,
प्रेम एकता सहज सेतु कर।
स्व का तोड़ संकोच,
औरों को भी कर आज़ाद।
अपेक्षा न किसी से रख,
शरीर भूल, चैतन्य पिछाण।
न बंद आँख, न सहस्रार,
न आलंबन तनिक भार।
स्व चेतन अवस्थित हो;
जो जानता उसे जान।
छोड़ गाँठें जगत विच्छेद,
देख चैतन्य एक अनेक।
सुषुम्ना प्रवेश कर,
शुद्ध विद्या प्रकट कर।
शुद्ध विद्या सहजावस्था,
नित्य बोध स्व जागरूकता।
बुद्धि मति करें सहज दर्शन,
कारज करें सरल सहज।
जल बने हो हिम समझ,
घनीभूत टूट रस बन बह।
महाहृद का अनुसंधान कर;
मंत्रवीर्य का अनुभव कर।
शुद्ध निर्मल स्वच्छ चिति तुम;
बिंब प्रतिबिंब ना कोई भेद।
अभी, इसी क्षण जान;
स्व का स्फार, स्वयं प्रकाश।
अमृतसर में आसन जमा;
प्रेम एकता सहज सेतु कर।
पूनमचंद
१ मई २०२२
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