जब जागे तभी सवेरा।
भूयः स्यात् प्रतिमीलनम्।
चैतन्यात्मा हो ही पर पुर्यष्टक और स्थूल शरीर को लिए इस कार्यशाला में पाठ ग्रहण कर रहे हो, इसलिए यह तो पता चल ही गया कि कुछ बंध है। पूरा भान-ज्ञान नहीं हो रहा इससे यह भी पता चला कि ज्ञान संकोच है, अज्ञान का बंधन है। पंच शक्ति है तो यह पर बंधी बंधी है, इसलिए यह भी पता चला कि पंच कंचुकों का आवरण है। जब तक वह हटेगा नहीं, हमारा सच्चा स्वरूप प्रकट नहीं होगा। आवरण की वजह भी जान ली। तीन मल है, आणव-मायीय-कार्म। अपने को लघु समझना, अपने को दूसरे से अलग समझना और कुछ करके कुछ पाने की चेष्टा करना।
बात तो सरल है। अगर चेतना पर ठहर गये तो और कहाँ जाना? पर अभी मुक्तात्मा नहीं है। कर्मात्मा है इसलिए कुछ करवाना तो पड़ेगा। कुछ समझाकर करवाना पड़ेगा।
प्रमेय-प्रमाण-प्रमाता, ज्ञेय-ज्ञान-ज्ञाता, सृष्टि-स्थिति-लय, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति, आणव-मायीय-कार्म मल, पंच कंचुक, उपाय-उपाय, ३६ तत्व, शुद्ध-अशुद्ध अध्वा, माया-महामाया, इत्यादि समझ लेना पड़ेगा। बुद्धि के दर्पण में पहले पकड़ना है।
मध्य क्या है? तुरीया क्या है? तुरीयातीत क्या है? मध्य का कैसे विकास करना है? तुरीया करो तैलवत कैसे सिंचना है? आनंद के क्षणों को पकड़कर अंतर्मुख होकर कैसे अमृतसर से जुड़कर फिर बहिर्जगत को उस आनंद से भर देना है? इत्यादि।
कुछ पढ़ाई तो होगी। मोहांधकार से बाहर आना है।जिससे शुद्ध विद्या प्राप्त हो।विेद्या के बिना ज्ञान कैसे? अपने पात्र को तैयार करना होगा।बस विस्मित रहना है। कुछ बनने से बचना है। मन बुद्धि को बाजू रख, चेतना में ही ज्ञानाक्षर घूँटने है।
कुछ ट्रॉफ़ी भी रखी है।😊
शिवतुल्यो जायते। 🏆
शिव की पाँच शक्ति इच्छा ज्ञान क्रिया निग्रह अनुग्रह जो अभी पंचकंचुक से सिकुड़ गई है, वह खुल जायेगी। ज्ञान में ठहर गये तो आपके शरीर क्रियायें व्रत, वाणी जप और आत्मज्ञान के दाता बन जाओगे।फिर आप अपनी इच्छा की सृष्टि स्थिति और लय कर सकते हो। आज भी कर रहे हो पर राग द्वेष के चक्कर में ठीक से होता नहीं, इसलिए बार-बार नया शरीर लेकर नया प्रयास करते हो। इस बार जी लगाकर कर लो। शिवतुल्य बन जाओगे। पहले जीवन मुक्त फिर विदेह मुक्त।
चयन आपका।
कर्मात्मा।
मुक्तात्मा।
चैतन्यमात्मा।
पूर्णता से मिलन हो ही रहा है, प्रति मिलन करना है।पूर्णता में पूर्णरूप होकर अवस्थित होना है। बार-बार प्रति मिलन करना है। विस्तार से प्रचुरता से उसे स्थापित करना है। बस चित्त पिघल जाये। मिलन दूर नहीं। खुद का दर्शन कर खुद से ख़ुदा की पहचान कर लेनी है। विश्वोतीर्ण में निमिलन (transcendent). और विश्वमयता में उन्मिलन (amalgamation)। परम सामरस्य पाना है। समाधि में अंदर और संसार में बारह, एकरूपता। अंतर्मुख होकर स्व स्वरूप का और बहिर्मुख होकर विश्वरूप बनकर आत्मा चैतन्य का एक ही प्रकाश के विमर्श का अनुभव करना है। संपूर्ण जगत मेरा ही शरीर है वैसा आत्म दर्शन करना है। उन्नाव से परे उस निष्कल परम तत्व से जुड़ जाना है। तन्मय हो जाना है।
फिर वह्नि (अग्नि) को निर्मलता की क्या फ़िक्र। निर्मल है। एक बार लकड़ी जल उठी वापस लकड़ी नहीं बननी है। भास्वर हो गया, भारत बन गया, आत्मा की पूर्णता की प्रत्यभिज्ञा कर ली फिर कैसा बंधन कैसा ज्ञान संकोच? कैसा मल और कैसे कंचुक?
अब जो मल से अलग हुआ, सुनिर्मल हुआ, उसे मलिन होने का और मल के स्पर्श का भय कहाँ? सब स्पर्श आत्म स्पर्श हो गये। कभी दूसरे थे ही नहीं। कभी बंधन था ही नहीं। फिर दो या मुक्ति की बात कैसी? शिवत्व आपका स्वभाव है। बस माया शक्ति से आपने ही खुद उसके बंधन का स्वीकार किया है। अब इतने सारे शास्त्र, शिविर, गुरूजी और आचार्य जी कह रहे है तो मान भी जाओ यार।
ओझल हुए दिख रहे थे पर कभी गये नहीं। अभी भी यह लेख पढ़ रहे हो। हो न? बस जाग जाओ, सवेरा हो गया है। जल्दी उठने की आदत नहीं इसलिए फिर नींद लग जाये, डरे नहीं। बार-बार प्रयास करे। प्रतिमिलन करते रहो।
अमृत रस पीजिए और संसार चक्र छेदिए। विष है ही नहीं, काल्पनिक था। अमृत ही अमृत नज़र आयेगा। देह, प्राण, मन, बुद्धि के पार चैतन्य का चुनाव कर लो। मुक्तात्मा की जीत तय है।
नित्य प्रकाश से भरा देदीप्यमान ज्ञान, अपने स्वरूप का रहस्य जो आपके भीतर ही है उसे देखना है। ज्ञान चक्षु चाहिए। युक्ति चाहिए। गुरू कृपा ही वह ज्ञाता, वह युक्ति है जिस के आने से भिन्नता का बोध शांत हो जायेगा।
बुद्धि वाले जानने से नहीं परंतु वह बुद्धि जिसके प्रकाश से जानती है उस शिव स्वरूप में स्थापित हो जाओ। स्थापित क्या करना? आप हो ही।
बस मान जाओ।
मान जाइए, मान जाइए, बात कही गुरूओं ने जान जाइए।
पूनमचंद
१२ मई २०२२