सुप्रभातम।
अभी भोर होने को देर है पर पक्षियों की चहचहाहट से वातावरण जीवंत है। बीच बीच में कुत्तो के भोंकने की आवाज़ जैसे वायब्रन्सी पैदा कर रही है। मयूर अपनी ध्वनि से सुप्रभात को गीत बना देता है। रास्ते पर गुजरती गाड़ियों की आवाज़ मधुरता के वातावरण को जैसे विक्षिप्त कर रही है।
क्या फ़र्क़ हे मुझ में और मुर्दे में। चेतना का। मेरी ही चेतना का विस्तार है जिसमें उठ रही ध्वनि तरंगें मेरी कर्णेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय के सहारे जो की चैतन्य प्रकाश से प्रकाशित है, मुझे ख़बर कर रही है। मैं मेरे ही संस्कार से, मान्यता से उसका उपभोग कर रहा हूँ और आनंद ले रहा हूँ। मैं जैसे मुझे ही भोग रहा हूँ। बग़ल के बगीचे में टिमटिमाती बत्तीयों की रोशनी मेरी चक्षु इन्द्रिय का विस्तार ही तो है। यह मंद मंद पवन मुझे छू कर मेरा अभिवादन कर रहा है। मैं ही तो हूँ। कहाँ है शरीर भाव? चेतना के विस्तार के अलावा और कुछ नहीं। चैतन्य का दरिया है जिसमें जहां चाहो गोते लगा लो। तरंग भी मैं और दरिया भी मैं।
पूनमचंद
१३ अप्रैल २०२२
५.३० am
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