Saturday, April 9, 2022

Dharma

 धर्म। 


भारत भूमि देवताओं की भूमि मानी जाती है, और ब्रह्म को जानकर मुक्ति प्राप्त करना यहाँ के मनुष्यों का परम लक्ष्य माना गया है। इस लक्ष्य को पार करने मनुष्यों के चार वर्तुल बनाये गये है, जिसके केन्द्र में ब्रह्म को जानने वाले ब्राह्मण और ब्राह्मण बनने के लिए उत्सुक वर्ग है। दूसरे चक्र में उनकी और इस धर्म व्यवस्था में जुड़े लोगों की रक्षा तथा उसका शासन करने क्षत्रिय है। सबका गुज़ारा भी चलाना है, इसलिए तीसरे वर्तुल में कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य व्यवसाय वाले वैश्य है। फिर सेवादल के बिना सब अधूरे है इसलिए सेवा वर्ग शुद्र है। चातुर्वर्ण्यों के इस धर्म समाज का व्यवस्थापन वर्ण और आश्रम व्यवस्था में नियोजित किया गया। श्रुति को आख़री हुक्म मानकर तर्क से उठने वाली कपिल, कनाद और बुद्ध की दलीलों को ख़ारिज किया गया। बाद में जन्म आधारित समाज बनने से भेदभाव और असमानता के कारण उसका विघटन होता रहा। विघटन के बाद भी यह संस्कृति का इतने हज़ार साल जीवित रहकर पल्लवित होते रहना एक अजूबे से कम नहीं। 


क्या है यह धर्म? सिर्फ़ वर्ण और आश्रम? कइयों के मन में यह प्रश्न उठा है और आज भी उठ रहा है। गांधीनगर पधारे स्वामी सदात्मानंदजी ने धर्म की व्याख्या आज कुछ इस प्रकार की। 


धर्म शब्द की व्युत्पत्ति धृ यानी धारण करना, जो जगत को धारण करता है, जिसे संतजन धारण करते है वही धारयति इति धर्म:।  


धर्म को गुणधर्म (भौतिक-रासायनिक), पुण्यधर्म (जीव जिसे लेकर गति करे), स्वरूप धर्म (आत्मा) और कर्मधर्म (धारण करने योग्य कर्तव्य) की श्रेणी में विभाजित कर सकते है। विशाल अर्थ में धर्म के तीन पहलू है। १) कर्तव्य कर्म अनुष्ठान २) जीवन मूल्यों का अनुष्ठान, और ३) भावना  का अनुष्ठान। 


१) कर्तव्य कर्म अनुष्ठान: यह धर्म का मुख्य पहलू है। वर्ण और आश्रम आधारित समाज व्यवस्था जो वर्ण धर्म और आश्रम धर्म से चले आ रहे है। जाति कर्म, गुण और जन्म से निर्धारित होती है। चार वर्ण है। जिसमें ब्राह्मण के छह कर्म अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन (यज्ञ करना-करवाना) और दान-प्रतिग्रह (भेंट लेना और देना) है। क्षत्रिय का कार्य प्रजा की रक्षा और उस पर शासन का है जिससे धर्म की रक्षा हो। वैश्य का कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य; और शुद्र का सेवात्मक। चार आश्रम है:  ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। शास्त्र अध्ययन और गुरू सेवा के साथ शिस्तमय जीवन ब्रह्मचर्य आश्रम का दायित्व है। तीनों आश्रम में रहनेवालों का पालन पोषण करना और पंचयज्ञ करना गृहस्थ का दायित्व है। पाँच यज्ञों में देव यज्ञ (देवताओं की पूजा, मंदिर जाना, घर में पूजा); ब्रह्म यज्ञ (वेद शास्त्र अध्ययन); पितृ यज्ञ (माता पिता की सेवा कर उन्हें तृप्त करना, श्रद्धा से श्राद्ध करना); मनुष्य यज्ञ (अतिथि सेवा या तन-मन-धन से समाज सेवा); भूत यज्ञ (पशु, कीट आदि की सेवा, मांसाहार न कर अहिंसा की सेवा)। वानप्रस्थ को उपासना और तप ध्यान करना है जिसमें उपवास, जागरण, ध्यान, शरीर शिस्त, तपोमय जीवन समाविष्ट है। संन्यास में  वैराग्य, अहिंसा और आत्मज्ञान  निष्ठ जीवन जीना है। ज़रूरी नहीं घर छोड़ना। जहां है वहाँ आंतरिक संन्यासी हो सकते हो।


२) जीवन मूल्यों का अनुष्ठान। तीर्थ यात्रा, पूजा इत्यादि धर्म है पूजा ही धर्म है ऐसा नहीं। धर्म उससे विशेष है। जैसे कि गीता में बीस मूल्यों की चर्चा की है: अहिंसा, सत्य, क्रोध त्याग, अभिमान त्याग, दया, उपरति, निंदा न करना, अनासक्ति, तेज, क्षमा, धैर्य, अदंभीत्व, अमानीत्व, इत्यादि। लेकिन उन सब में अहिंसा सबका आधार स्तंभ है। यह जीवन मूल्यों सूचना का विषय नहीं अपितु इसके साथ जीवन जीना है। value of values. इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि मूल्य का स्वरूप क्या है, जैसे कि अहिंसा का स्वरूप है कि कार्य, मन या वाणी से हिंसा न करना। मूल्य का महत्व क्या है यह अन्वय (विधेयात्मक) और व्यतिरेक (निषेधात्मक); अनुक्रम से पालन से क्या लाभ होगा और न पालन से क्या गेरलाभ या नुक़सान होगा यह समझना है। उसके पालन में क्या प्रतिबंध है, जैसे अहिंसा में शांति और संवादिता है। न होने से व्यक्ति खुद भयग्रस्त होता है और दूसरों को भयभीत करता है। अहिंसा के पालन में राग और द्वेष, आग्रह और विग्रह अवरोधक है। ऐसा ही होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए था, दोनों स्थिति अवरोधक है। यह विरोध कभी कभी शाब्दिक और शारीरिक अभिव्यक्ति के रूप में हिंसा का आकार ले लेती है। मूल्यों के साधन क्या है? क्या अपनाये क्या-क्या छोड़िए? अनुकूलस्य ग्रहणम्, प्रतिकूलस्य त्याज्यम्। मूल्यों धर्म का दूसरा पहलू है जिसका स्वरूप, महत्व, प्रतिबंध और उपाय समझ लेना है। 


३) भावना अनुष्ठान। हमारी मानसिक स्थिति और अभिव्यक्ति भिन्न भिन्न विषय, व्यक्ति, परिस्थिति के अनुरूप योग्य होनी चाहिए, जिसमें सम्मान, कृतज्ञता, ईश्वरार्पर्ण और प्रसाद भावना ज़रूरी है। जगत के हर पदार्थ, व्यक्ति उस ईश्वर की अभिव्यक्ति है इसलिए न कोई छोटा, न बड़ा, हर व्यक्ति, वस्तु का आदर करना है। उम्र या स्थिति से दीखता हुआ छोटा या बड़ा, सब सम्मान के अधिकारी है।आत्म सम्मान भी इतना ही ज़रूरी है। बिना खुद का आदर किये बिना, सुख प्राप्ति और दुख निवृत्ति के जीवन ध्येय को पा नहीं सकते। जीवन में कृतज्ञता ज़रूरी है। हमारा जीवन कइयों के योगदान के फलस्वरूप है इसलिए  जिन जिन के पास से जो भी हमें सुखी करने प्राप्त हुआ उसके प्रति कृतज्ञता, आभार का भाव प्रकट करना चाहिए। शांति मिलती है। हम जो भी कार्य कर रहे है वह ईश्वर को अर्पण करें जिससे कार्यबोज के अभिमान से मुक्त रहे। जो भी फल मिले वह ईश्वर का प्रसाद है इस भाव से उसका स्वीकार करे। यह कर्म फल है। अच्छा भी और बूरा भी। प्रसाद मानकर ग्रहण करें जिससे फ़रियाद नहीं रहेगी। 


अब वर्णाश्रम नहीं रहा इसलिए जिसको जो भूमिका मिली है उसके अनुरूप व्यवहार करे और समष्टि के कल्याण के लिए योगदान दे वही धर्म। कर्तव्य कर्म, मूल्यों का पालन और भावनात्मक अमल यही धर्म है। चाहे इसे हिन्दू धर्म कहो या सनातन। 


धन्यवाद स्वामी सदात्मानंदजी का, धर्म की शास्त्रोक्त व्याख्या करने के लिये। 


अस्तु। 


पूनमचंद 

९ अप्रैल २०२२

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