सत्व सिद्धि।
प्रेक्षकाणीन्द्रियाणि।
धीवशात् सत्वसिद्धि।
घट के भीतर नाद गुंजता, अंतर ज्योत जगी; सो सूरज के उजियारे में, मैंने मुझको पाया।
धन्य भाग्य, सेवा का अवसर पाया,
चरण रज की धूल बन, मैं मोक्ष द्वार आया।
यह जगत शिव नाटक है, जहां शिव ही थियेटर और शिव ही नर्तक। रसमय नाटक है, प्राणमय है। शिव थियेटर में विगलित हो रहे रस को ग्रहण करने विकल्पों को संस्कारित कर सबसे पहले राग द्वेष की गंदगी को हटाना है। गिलोय को खूब कूटे बिना, मटके के पानी में कईं दिनों भीगोये बिना, कैसे सत्व बाहर आयेगा गिलोय का? इस शिव थियेटर में प्रेक्षक बन देखना है, सुनना है, सूंघना है, चखना है, तबज जाके शिव रहस्य समझ पायेंगे।जब तक इस थियेटर से प्रमाता रस नहीं ले आया, ‘मैं ही मैं’ अनुभूत नहीं किया, तो फिर क्या किया? कोरा का कोरा ही रह गया? सत्व नहीं पाया।
रामलीला ही ऐसी है कि बार बार सुनने पर रसास्वाद आता रहता है। हर कोई उत्सुक रहता था उस रामलीला के एक्टर बनने। राम नहीं, हनुमान नहीं तो राम सेना के सिपाही का रोल ही दे दो, यह तड़प रहती थी। पर जिस को राम का पात्र अभिनय करना है, हनुमान का पात्र करना है उसे ख़ास व्रतों से अपने आपको तैयार करना पड़ता है। शोधन करना पड़ता है ताकि स्टेज पर राम प्रकटे, हनुमान प्रकटे, न कि अपना राग द्वेष।
धीर बनना होगा। पंजाबी में बेटी को धी कहते है, जो ध्यान रखती है और हम उसका ध्यान रखते है। वह संवेदना, जो धारण करना जानती है। धीरता पात्रता लायेंगी। शिवलीला को समझने वाला पात्र। धारणात्मिका और ग्रहणात्मिका बुद्धि से सत्व सिद्धि करनी है। becoming से being में लौटना है। निर्मलता लानी है। जैसे सालों-साल नदी के पानी के बहाव से धुलीं रेत पुलिन होती है, उसका सत्व प्रकट होता है, वैसे ही अपने भीतर के काम क्रोध लोभ मद मोह मात्सर्य को बाहर निकाल फेंक शिवत्व की सत्व सिद्धि धारण करनी है। वह धी, मति, बुद्धि, प्रज्ञा, प्रतिभा को उजागर करना है।
Unconditioned हुए बिना जिस भाव से यह नाटक रचा गया है, उसके भाव को कैसे ग्रहण करेंगे? दृष्टि गलित कर वह watchfulness लानी है जहाँ अपने पराये की दिवारें ध्वस्त हो जाती है और आत्म अमृत रूपी सत्व प्रेम प्रकट हो जाता है। विकल्प में फँसा रसानुभूति नहीं कर सकता। जैसे वह राजा जिसने शर्त रखी थी कि जो ऐसी कहानी सुनाये जो कभी ख़त्म न हो उसे इनाम देगा। राजा का ध्यान कहानी के ख़त्म होने पर और कहानीकार का ध्यान उसको खींचते रहने में। विकल्पों में रस ग़ायब था। लेकिन एक आदमी राजा का गुरू निकला। कहानी शुरू की। एक किसान था। उस के खेत में अनाज का ढेर लगा था। बग़ल में एक बड़ा पेड़ था जिस पर अनेक चिड़ियाँ बैठी थी। फिर एक चिड़िया पेड़ से नीचे उतरी, ढेर से एक दाना लिया और फुर्र कर उड़ गई। फिर दूसरी चिड़िया उतरी, दाना लिया और फुर्र।बस चिड़िया एक के बाद उतरती गई और फुर्र। राजा थक गया उस फुर्र से और अपनी हार मान ली। रस माधुर्य नहीं रहा। हमारा जीवन भी ऐसे फुर्र हो जायेगा अगर जागृति नहीं आई।
कहानी में कुतूहल होता है और काव्य में रस। रस और कुतूहल मिलाकर बनता है वह है नाटक। यह जगत शिवजी का नाटक है, रस और कौतुक से भरपूर। इसकी नाट्य सिद्धि को अनुभूत करना है। महर्षि अरविंद का वह trans of bliss, आनंद का अतिक्रमण कर उसे क़ायम रखना है।यह जगत शिवशक्ति के trans of bliss का परिणाम है। चमत्कार रस है। इसलिए कोई धीर ही उस चमत्कार, flash को, नाटक के पीछे छीपी शिवता को देख लेता है। बाहर देखनेवाला कुछ नहीं देखता, अंदर देखनेवाला अमृत पाता है। वही योगी है जो सही देखता है, सहज विद्या का लाभान्वित है। उनकी अंतर्मुखी इन्द्रियां ही वह देवतागण है, प्रेक्षकाणीन्द्रियाणि, जिसके सामने शिव आविर्भूत (releal) हो जाते है।शिव नाटक का दीदावर होता है। वह समझता है और उसका रसपान करता है।
रसास्वादन कब होगा? बर्तन सही होंगे, आँच सही होगी, बीच-बीच में उसको देखा जायेगा तब जाकर भोजन से रस प्रकट होगा और आप भोजन की रसानुभूति कर पायेंगे। कूकर के भोजन में वह रस कहाँ? अनाज के स्थूल भाग से मल, सूक्ष्म भाग से सप्त धातुएँ और अणुस्थ से मन बनता है। इसलिए भारत में बड़े धैर्य और भक्ति भाव से रसोई बनती थी।देखा नहीं, सूरदास की गोपी ने श्रीकृष्ण के लिए कैसे दहीं मथी? बर्तन स्वच्छ किया, सुगंधित किया, दूध को सही ताव दिया, धीर रही और वोचफूल भी और अपनी चेतना से उसे सुवासित की; तब जाके गोपी की दहीं कान्हा के लिए तैयार हुई। हमें भी हमारा पात्र स्वच्छ और सुवासित बनाना है जिसमें शिवता प्रकट हो जायें।
अंतरात्मा मंच है। नाटक शिवानंद है। दुख पीड़ा जन्म मृत्यु नाटक के ही भाग है। पुर्यष्टक के भीतर बना रंगमंच शिवत्व के स्वातंत्र्य बोध को पाये बिना नहीं टूटता। स्वातंत्र्य बोध मिलने तक अनेक योनियों में गमन कर नर्तन करता रहता है जैसे इन्द्र बना था सुकर। बच्चे भी पैदा कर लिए और अपनी इन्द्र पहचान भूल गया। जब उसे सुकर के शरीर से छुड़ाया तब जाके इन्द्र के ऐश्वर्य में वापस लौटा। हम कब लौटेंगे?
इन्द्रियाँ ही प्रेक्षक है जिसे अंदर से संस्कारित करनी है। विधाता ने इन्द्रियों की रचना ही कुछ ऐसी की है कि उसे बाहर की ओर कर पीछे से बोल्ट कर दिया है। इसलिए वह पीछे देख नहीं पाती। आँख बाहर सबकुछ देखेगी पर खुद को नहीं देख पाती। यह इन्द्रियां देवताओं के द्वार है। जैसे जैसे भीतर देख पाती है, audience में आती है, नर्तक शिव का उत्साह बढ़ाती है। वह जब स्तुति गाती है तो नर्तक शिव अपना प्रदर्शन और भी प्रकट करता है। शिव कृपा से इन इन्द्रियों के बोल्ट जब खुलते है, इन्द्रियाँ वापस लौटती है, वही है प्रत्याहार। बिना अग्नि जल रहे इस संविद अग्नि से अंधकार चला जाता है। ३६ तत्वों को पिंड बनाकर सिद्ध उस अग्नि में आहुति देता है। काल भी शिव के तीसरे नेत्र के खुलने की प्रतीक्षा में बैठा है। मुकुल की तरह जैसे ही शिव का तीसरा नेत्र खुलता है, वह विश्व को पिंड बनाकर अपनी आहुति दे देता है। नृत्य समाधि स्मशान समाधि बन जाती है। यह शिव नाटक कोई एक रस का नहीं है। नौ रस उसमें समाये है।वीभत्स, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, शृंगार और अद्भुत रसों का आश्चर्य है। घोर रूप में अघोरी अभिनय है।सारी पृथ्वी को मंच बनाकर योगस्थ शिव रूई के भार वजन बनाकर अपनी बाँहें उठाकर उसे मुद्राओं में सिकुड़कर, अग्निघर नेत्रों को चंचल रख, खुद को दुःखमय बनाकर थियेटर की कन्डीशनींग न टूट जाये उसका ध्यान रखते हुए नृत्य कर रहा है। यह नृत्य को वही इन्द्रियां प्रेक्षक बन देख सकती है जो अंतर्मुख है, स्वच्छ है, निर्मल है।
शब्द ही से बंधन और शब्द से ही मुक्ति। शब्द को रगड़ना है और उसके अर्थ को उजागर करना है। स्वच्छता कैसी? निर्मलता कैसी? जैसे कादंबरी का नायक का सरोवर दर्शन। इदंता (दृश्यमान जगत) को गुरू बनाकर देखो। जो बाहर दिख रहा है वह आपका भीतर का प्रतिबिंब है। प्रतिबिंब बाहर नहीं है। अंदर का दर्पण अपना प्रकाश बाहर फेंक रहा है। बाहर की स्वच्छता देखने या अनुभूत करने भीतर की स्वच्छता ज़रूरी है। जो अंदर है वही बाहर दिखेगा। बाह्य जीवन आंतर जीवन का ही प्रतिबिंब है। अगर बाहर गंदगी दिख रही है तो भीतर की सफ़ाई करो। रागादि दोष हटाओगे, भीतर स्वच्छता आयेगी, निर्मलता आयेगी तब जा के पंचेन्द्रिय के प्रेक्षक शिवानंद से तृप्त होंगे। तब जा के इस शिव संगीत में छीपी हँसो की ध्वनि कर्मेन्द्रिय को तृप्त करेगी। उसकी कमल गंध को सूंघेंगी, उसकी ठंडक और शांति का स्पर्श करेगी। खुली आँखों से वह शिव रहस्य जान जायेगी। स्वयं शिव नर्तक अंतरात्मा के रंगमंच पर नृत्य कर रहा है। चैतन्य ही स्वतः आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि बन उदित हो रहा है। जल से स्वतः मछली जन्म ले रही है। यह सारा ब्रह्मांड शिव का त्रिलोकी नाटक है जिसमें त्रिलोकीनाथ स्वयं भूमिका लेकर सकल से अकल रूप में प्रकट है।
स्वच्छता, निर्मलता और धीरता से उस सत्व (शिव) को सिद्ध करें।
घट के भीतर नाद गुंजता, अंतर ज्योत जगी; सो सूरज के उजियारे में, मैंने मुझको पाया।
धन्य भाग्य, सेवा का अवसर पाया,
चरण रज की धूल बन, मैं मोक्ष द्वार आया।
पूनमचंद
२० अप्रैल २०२२