क्या चूके थे स्वामी दयानन्द?
महाशिवरात्रि।
बचपन में कहानी सुनी थी। आर्य समाज के स्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनधारा महाशिवरात्रि की एक घटना ने बदल दी थी। उनका नाम मूलशंकर और पिता का अंबाशंकर था। उन्होंने महाशिवरात्रि का उपवास रखा था। रात्रि जागरण की थी। पर मध्य रात्रि में एक चुहिया को शिवलिंग पर दौड़ते और नैवेद्य खाते देख उनके मन मस्तिष्क में प्रश्न खड़े हो गये। जो देव चुहिया नहीं भगा सकता वह अपना कल्याण कैसे करेगा? मूर्ति पूजा से उनका विश्वास उठ गया और चल पड़े वैदिक यज्ञ धर्म की ओर। वेद वेदांत पढ़ें और स्थूल लिंग को छोड़ ज्ञान ज्योति को आगे बढ़ाया और धर्म में चल रहे पाखंड को खुला किया। आख़िर विरोधीयो ने उन्हीं के रसोइये का सहारा लेकर ज़हर से उनकी ज्ञान चेतना को शांत कर दिया। मूर्ति पूजा विरुद्ध उनका आंदोलन काफ़ी चला और पिछड़ी जातियों को धर्म धारा में जोड़ने का काम भी आगे चला। लेकिन क्या बरसों से चली आ रही मूर्ति पूजा से ब्रह्म खोज की पद्धति से वे चूक कर गये थे?
हर देश के गौरव का निशान एक झंडा है। बना तो है कपड़े के एक टुकड़े से जिसमें प्रतीक रूप रंग सजाये है। लेकिन अगर झंडा पवन के झोंके से गिर जायें या आग लगने से जल जायें तो वह देश गिर नहीं जाती या जल नहीं जाती। प्रतीक को ही सब कुछ समझ लेने से गलती होगी।
शिवलिंग एक प्रतीक है, परम शिव का। एक निराकार, कल्याणकारी ऊर्जा, ज्योतिर्लिंग, जिससे यह सारा संसार है, उसका प्रतीक। यह पूरा जगत वही तो है। शिव शक्ति। उस निरुपाधिक विराट को कहाँ खोजें? इसलिए सोपाधिक ईश्वर और उसके प्रतीक सामने आये। सर्जन, संवर्धन और विसर्जन के प्रतीक। जिसको देखकर, पूजा कर, हर जीव उस परमात्मा का अनुसंधान कर लेता है। बात तो आख़िर है खुद से जुड़ने की, भीतर से तार जोड़ने है खुद से ख़ुदा से। मन जो बाहर भटका रहा है, उसे ही भीतर की ओर ले जाना है। ‘निराधार मन चकृत धावे’ (सूरदास)। चेतन धागा और मन मोती। बस धागे में मोती पिरोये जाना है। यह पलटने की- पिरोने की विधि जो भी समझा दे वह गुरू; और जो भीतर जाने की सहूलियत कर दे वह देव या लिंग।
आज महाशिवरात्रि है। रात्रि के अंधकार में आप बाहर नहीं देख सकते। इसलिए भीतर टिमटिमाती रोशनी पर सरलता से ध्यान जायेगा। सब कुछ काला होगा आसपास, पर भीतर का दीया जलता नज़र आयेगा। मन सरोवर द्रवित होगा तो शिव कैलाश नज़दीक ही नज़र आयेगा। जैसे सूरज की एक किरण को पकड़ ले तो उसके स्रोत सूरज तक नज़र पहुँच जाती है, ठीक वैसे ही भीतर की किरण को पकड़कर वह विराट के दीदार हो ही जाते है। बस प्यास चाहिए, साफ़ शीशा (अंत:करण), और नज़र-ध्यान।
अपने भीतर बैठे शिव को ही नमन करना है।जो भीतर है वही बाहर, सब ओर, एक। दूजा कोई नहीं।
🕉नम: शिवाय।
शुभ महाशिवरात्रि।
पूनमचंद
१ मार्च २०२२
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