Tuesday, March 15, 2022

Gitasar, Samyak Darshana

 


गीता की आख़री सलाह सम्यक् दर्शन। 

गीता समस्त उपनिषदों का सार है। क्षेत्र भौगोलिक कुरुक्षेत्र रहा या हमारा अंतर्मन जहां पर अच्छे बुरे के बीच अहर्निश लड़ाई चालू रहती है वह तो तत्व चिंतक तय करेंगे लेकिन १८ अध्याय और ७०० श्लोक से बनी गीता उपनिषदों का सार है। सांख्य, ज्ञान, कर्म और भक्ति का अनोखा संगम है। कुछ ७०० श्लोक में से संजय और धृतराष्ट्र के २३ , अर्जुन प्रश्न के ५७ और भगवान श्रीकृष्ण के जवाबदेही  ६२० श्लोक है। अध्याय २ पूर्व सारांश है और अध्याय १८ उत्तर सारांश। अध्याय ३-१७ में सब विस्तार से समझाया गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय १८ के ६६ वे श्लोक में अर्जुन को दी हुई आख़री सलाह सब के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है। 

भगवान श्रीकृष्ण आख़री सलाह देते है। 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: || 

“शोक मत कर। सब धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आ, मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा।”

अर्जुन को सिर्फ़ एक ही काम करना है। सब कुछ छोड़कर ईश्वर शरण जाना है। बाक़ी सब ज़िम्मेदारी उस ईश्वर की है। 

मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है? धन, पद, प्रतिष्ठा प्राप्त करना? नहीं, रहस्यमयी सृष्टि के भेद को उजागर कर आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना है। यानि आत्मा जैसा है वैसा जानना और उस आत्मा का सर्वत्र दर्शन करना ही जीवन का परम लक्ष्य है। 

क्या है आत्मा? 

आत्मा ज्ञान स्वरूप है। जैसे एक दीया अग्नि और प्रकाश स्वरूप है, वैसे ही आत्मा ज्ञानप्रकाश स्वरूप है। सब जीव जैसे ज्ञान के टिमटिमाते दीये। उपर लगे सूक्ष्म और स्थूल आवरण से उस प्रकाश की अभिव्यक्ति अलग अलग, लेकिन ज्ञानप्रकाश सबमें एक। 

कैसे शरण जायेंगे? कहने से नहीं होता। कुछ करना है। वही साधना है। 

हिन्दू धर्म में द्वैत, अद्वैत और द्वेताद्वैत मत होने से एक ही श्लोक के भिन्न अर्थ निकलते है। हालाँकि सरिता की तरह उस सब का गंतव्य तो उस परम की प्राप्ति ही है। 

द्वैत मत: जो सभी धर्मों में प्रमुख है, जिसमें भक्त और भगवान दो अलग मानकर भगवान की भक्ति से मुक्ति पानी है। सांसारिक जीवन बहिर्मुखता का है। हर कोई कर्म जो हमें बहिर्मुख बनाता है, वह सब धर्म, अधर्म सब कर्मो का त्याग कर ईश्वर की शरण में रहना है। अंतर्मुखी होना है। शांत बैठना और भगवान में तल्लीन होना ही लक्ष्य है। आत्मा ह्रदय में स्थित है इसलिए ह्रदय में ठहरने के लिए मन का स्वास्थ्य, एकाग्रता और स्थिरता प्राप्त करनी है। ईश्वर की करूणा जो निरंतर बह रही है उसका अनुभव करना है। जो हुआ अच्छा हुआ, मानना है। कृपा कठोर भी हो सकती है, ऐसा सोचने से शरणागति बढ़ती है। शरण के लिए जाति, वर्ण, संस्कार, भूतकाल, अवगुण, इत्यादि विचार और अवस्था की सोच नहीं रखनी है। भगवान सब को शरण देते है, स्वीकार करते है। बस इतना ही कहना है, तवास्मि, मैं आपका हूँ। जो शरण में आये है उनके लिए वह वात्सल्य का सागर है। सब पापों से मुक्त कर मोक्ष देता है। बस इतनी सी बात है। तवास्मि। 

दूसरा अर्थ है साधन और साध्य का। दो मार्ग है, एक प्रवृति मार्ग और दूसरा निवृत्ति मार्ग। प्रवृति में तीन आश्रम है: ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम। चतुर्थ संन्यासाश्रम निवृत्ति का है। लोकेष्णा, धनेष्णा, पुत्रेष्णा से मुक्त रहना। शम , दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति और तितिक्षा इन छः साधनों को विशेष मात्रा में करना है। जैसे धनार्थी धन उपार्जन के लिए दिन का ज़्यादातर वक्त उसी काम में देता है, वैसे ही मोक्ष के लिए श्रवण मनन निदिध्यासन की दीर्घकाल साधना कर षट् संपत्ति बढ़ाना है। बाक़ी सब काम छोड़ सिर्फ़ भगवान को ही लक्ष्य बनाना है। 

तीसरा अर्थ जो की मुख्य माना गया है। हमारा जीव जो आत्मा अनात्मा का जोड है उसमें से आत्म स्वरूप को पहचान लेना है। देह से अहंकार पर्यंत जो भी है उस अनात्मा और उसके अनात्म धर्म का त्याग कर आत्मा में स्थित होना है। मेहनत सब अनात्मा से हटने की है। आत्मा में स्थिति तो अपने आप है। देह धर्म देह में रहने देना है। दृष्टा, दृश्य देह से अलग है। वैसे ही इन्द्रियों का धर्म भी अलग है। वैसे प्राण धर्म अलग है। वैसे ही मनो धर्म और बुद्धि धर्भ अलग है। अहं और मन को अलग करने सूक्ष्म विवेक की ज़रूरत रहेगी। सुख दुख मन के धर्म है, उससे अलग हट आत्म स्वरूप पहचानना है। वैसे ही ज्ञान, अज्ञान, निश्चय बुद्धि के धर्म से शुद्ध चैतन्य अलग है। तत्व चिंतन करते हुए देह से बुद्धि तक सब अनात्म पदार्थों के धर्मों को त्याग कर असली आत्म स्वरूप को अहं रूप निश्चित करना है। आखरी में अहंकार धर्म भी छोड़ना है। जो मेरा है वह मैं नहीं हो सकता। शुद्ध ‘मैं’ पर उनके धर्म लागू नहीं है।पर से खिसकना हैं और स्व में बसना है। बाह्य विषयों और व्यक्तियों को छोड़ना वैराग्य हैं, पर उससे भी आगे देह से अहंकार तक के अपने अंदर बसे अनात्म धर्म को त्याग आत्म धर्म में स्थापित होना है। वही विराम मोक्ष है। 

एक है भक्ति का, तवास्मि। दूसरा है साधन कर्म का, षट् संपत्ति का। तीसरा है साध्य ज्ञान का। ज्ञान से ज्ञान का परिचय कर लेना है। तीन अलग-अलग नहीं है पर एक दूसरे के पूरक है। जैसे चलोगे, तीनों साथ साथ चलेंगे। 

एक बार आत्म स्वरूप ज्ञान हो गया तो अंदर बाहर आत्म दर्शन होने लगता है।वही है सम्यक् दर्शन। एकदम सरल और सबसे कठिन भी। 

पूनमचंद
१५ मार्च २०२२

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