चिदानंद लाभे सर्व लाभ।
दो संकोच या बंध समझा। एक परावाक् का वैखरी तक का, सूक्ष्म से स्थूल तक का। दूसरा वामेश्वरी और उसके चार रूप खेचरी-गोचरी-दिग्चरी-भूचरी के अनुक्रम से विश्व, ज्ञान संकोच-प्रमाता, अंत:करण (बुद्धि-अहंकार-मन) संकोच भेद स्वरूप भेद निश्चय-अभिमान-विकल्प; इन्द्रियों का संकोच - अंत:करण के अनुरूप इन्द्रिय क्रियाएँ और स्थूल शरीर-प्रमेय सृष्टि का संकोच-भेद; जिससे यह सब सृष्टि खेल चल रहा है।
ऐसे ही तीसरा बंध प्राण संकोच है। जिसमें चिति प्राण जो प्राणन कहा जाता है वह पंचप्राण (प्राण-अपान-समान-उदान-व्यान) बन सकल प्रमाता की स्थूल शरीर लीला को सँभाले है। प्रश्वास प्राण है, श्वास अपान, जब दोनों धाराएँ तराज़ू की तरह सन्तुलित होती है तो समान -सुषुम्ना स्थिति, जब उर्ध्व होता है तब उदान और सहस्रार पहुँच व्याप्त होता है तब व्यान कहा जाता है। स्थूल रूप से हमारे शरीर की ओक्सिजन जरूरत, पाचन, रूधिराभिसरण, उत्सर्जन यही पाँच प्राण सँभाले हुए है।
जैसे बंधन का मार्ग पता चला, मुक्ति का जवाब भी मिल गया। चिति का अपरिज्ञान है इसलिए संसारीत्व है। परिज्ञान हो सकता है, अंतर्मुखी भाव के मार्ग से। चिति से संपर्क टूटा नहीं। बस अनुसंधान करना है।
तीन बंध जान लिए, मार्ग भी उसमें निहित है। वैखरी भीतर मध्यमा, पश्यन्ती से होती हुई परा वाक् से जुड़ी हुई है। गुरू के चेतन मंत्र से उसका अनुसंधान कर उसकी अधिष्ठात्री चिति तक पहुँचा जा सकता है।वर्ण शुद्धि से पद शुद्धि, पद से वाक्य और वाक्य से व्यवहार, शिवता में सहायक है।
चार शक्तियाँ खेचरी-गोचरी-दिग्चरी-भूचरी विस्तारण से अभेद कर पंच शक्तियों: व्यापकता, पूर्णता,सर्वज्ञता, सर्वकतृत्व का आविष्करण कर लेती है।
प्राण भी स्थूलता से प्रश्वास-श्वास की रेचक-कुंभक-पूरक-कुंभक प्रकिया को पकड, मध्य सुषुम्ना में स्थिर होकर, शक्तिपात लाभ से उर्ध्व बन सोयी कुंडलीनी शक्ति को जगाकर, उर्ध्व उठाकर, सहस्रार में जोड़ देती है तब सप्त चक्रों और उसके चक्र कमलों के वर्ण मंत्र, सब विस्तारित होकर स्वभासन, स्वात्म चमत्कार में परिवर्तित होकर चिति स्वातंत्र्य प्रदान कर देते है।
इन सबसे बल लाभ होता है। चिदानंद लाभ होता है। चिति पर जमी राख और उपले हट जाते है। और प्रज्वलित हुई उस चिति वह्नि-अग्नि भेद सब स्वाहा करती हुई उस अभेद शिवता, विश्वत्व, सर्व समावेश में पहुँचा देती है। चिति-शिव कोई और नहीं, हम ही है, बस क्रीड़ा के वक्त उसका स्वरूप विस्मरण है। संसरण मिटाने और शिव विश्वत्व पाने की ही तो साधना है। स्व की पहचान ही प्रत्यभिज्ञा है। यही यात्रा है। चित्त के चिति बनने की। सकल से अकल की। अक़्ल ठिकाने करने की। 😜
बस प्रतिबद्धता बनाये रखनी है। दृढ़ता बनाये रखनी है। शिव अनुग्रह से कब नज़र बदल जायेगी पता नहीं चलेगा।
नज़रें बदली तो नज़ारे बदल गए, कस्ती ने बदला रूख तो किनारे बदल गये।
एक क़दम और संसारित्वम् से विश्व आत्मसात् करने की ओर।
तत्परिज्ञाने चित्तमेव अन्तर्मुखीभावेनचेतनपदाध्यारोहात् चिति: ।।१३।।
चितिवह्निरवरोहपदे छन्नोंડपिमात्रया मेयेन्धनं प्लुष्यति ।।१४।।
बललाभे विश्वमात्मसातकरोति ।।१५।।
चिदानन्दलाभे देहादिषु चेत्यमानेष्वपि चिदैकात्म्यप्रतिपत्तिदाढ्यँजीवनमुक्ति: ।।१६।।
यही जीवन मुक्ति है। जीते जी मुक्ति। मरने की ज़रूरत नहीं। मरना तो अहंकार को है, रावण को; राम को नहीं।
शुभ हो। लाभ हो।
शिवम् भवतु। सर्वम् शिवम्।
पूनमचंद
१७ नवम्बर २०२१
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