बंधन में पड़ा शक्ति मोहित संसारी।
अपनी शक्तियों से व्यामोहित होकर, चिति ही संकोच ग्रहण कर चित्त और माया प्रमाता के माध्यम से जीवरूपी संसारदशा को प्राप्त है। शक्ति संकोचन से व्यामोहित है वह जीव है, और जो अपनी शक्तियों से व्यामोहित नहीं है वह शिव परमेश्वर है। इसलिए ३६ तत्वों से बने शरीर आदि को शिवरूप देखना होगा, तभी प्रत्यभिज्ञा होगी।
तदपरिज्ञाने स्वशक्तिभिवर्यामोहितता संसारित्वम् ।।१२।।
तत् अपरिज्ञाने।तत् यानि चिति और परिज्ञान यानी संकोच से विकास की प्रक्रिया। यह प्रक्रिया समझ में नहीं आने से संसारित्वम। सर्वम शिवम्, लेकिन चिति का विश्व है और चिति जब चित्त बनी तब जीव का संसार।संसारभाव जीवकृत है।चिति द्वारा हो रहे पंचकृत्य (सृष्टि-स्थिति-लय-निग्रह-अनुग्रह) के अज्ञान के कारण जीव अपनी सीमित दरिद्र स्व शक्तियों (कला, विद्या, राग, काल, नियति) से मोहित होकर संसार दशा को प्राप्त हुआ। आनंद गया और उन्माद दशा को प्राप्त हुआ। अज्ञान से ही शंका है, और शंकाओं से जन्म मरण होता है। अगर शिवस्वरूप की प्रत्यभिज्ञा हो गई तो फिर कहाँ जन्म और कहाँ मरण?
व्यामोह भ्रांति है, मोह है, उन्माद है अपनी दरिद्र शक्तियों का।स्व स्वरूप तो चिति है। लेकिन उसका अपरिज्ञान-अज्ञान बना हुआ है। जिससे चिति की पंच शक्ति और पंच कृत्यों का स्वातंत्र्य अनुभव नहीं हो रहा। मोहावरण तीन मलों से है। आवरण हटते ही स्वात्म प्रकाशन और स्वात्म चमत्कार का अनुभव होना है। वही प्रत्यभिज्ञा होगी।
शुद्ध विद्या के बाद चिति अविकल्प छोड़कर, माया प्रमाता में परिमित विकल्पों को प्रस्तुत करती है। मुक्त पतिदशा (शिव-पशुपति) के अभेद से दूर संसारी जीव अपने शिव वैभव से वंचित रहता है।व्यामोहिता हटते ही यही स्वशक्ति पूर्णाहंता का बोध बन जाती है। प्रकाशोदय ही प्राप्ति है। चेतना को मैं मिल जाता है।
दो क्षेत्र है। परा क्षेत्र (शुद्ध विद्या तक) और अपरा क्षेत्र (माया प्रमाता क्षेत्र)। परा क्षेत्र में परावाक् चिति से अभिन्न है जिसने अ से स अक्षर सहित सभी शक्ति समूह देवियों को गर्म में धारण किया है। परावाक्, पश्यन्ती-मध्यमा-वैखरी क्रम से अपने वास्तविक परारूप का गोपन करती हुई प्रमाता अवस्थाओं को अवभासित करती हुई एक दूसरे से जुड़ी रहती है। वैखरी इन्द्रिय ग्राह्य होने से प्रमाता के काम आती है और मंत्र वर्ण से परा वाक् अनुसंधान कराती है। मंत्र सभी वर्ण रूप है। सभी वर्ण शिवरूप है।
यह संसार भगवती चिति वामेश्वरी का वमन है। अपने मूल स्वरूप को गोपन करती हुई चिति, खेचरी रूप से सब प्रमाताओं के ज्ञान (किंचित्कर्तृत्व) में, गोचरी रूप से सब अंत:करणों (भेद) के रूप में, दिक्चरी रूप से सब बाह्य इन्द्रियों के नियमन में और भूचरी रूप से स्थूल शरीरों और सारे पदार्थों के रूप में प्रकट होती हुई पशु-जीव दशा में विश्राम करती है।
यही देवियाँ-शक्तियाँ प्रमाता में अज्ञान से परिमित बनाकर बंधन देती है और, यही शक्तियाँ प्रमाता में अवस्थित होकर जीव को पूर्ण ज्ञान द्वारा मुक्ति भी देती है।
मनुष्य को इन सूत्रों की मदद से अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना होगा और भगवती की भक्ति और प्रेम के सहारे गुरू कृपा से पूर्णोहम् की प्रत्यभिज्ञा करनी होगी। इन्द्रियों के भोग और सब योनियों में प्राप्त है, इसलिए मनुष्य जीवन का एक ही प्रोजेक्ट सुप्रीम बनता है, और वह है प्रत्यभिज्ञा।
शिवोहम्। पूर्णोहम्।
पूनमचंद
१५ नवम्बर २०२१
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