शिव संसारी।
चिति चेतन की भूमि पर अवरूढ होकर संकोच कर इदंता (विश्व) और चित्त बन अहंता में व्याप्त है। शिव और पार्वती (चिति), कौन पूरा और कौन आधा? कौन किस के साथ? यह संसार यह अर्धनारेश्वर जोड़े की क्रीड़ा है। और हम सब उसकी संतान। संतान कहाँ, द्वैत का छल दिखता है, लेकिन मंगलमय अद्वैत शिव संकोचन से त्रिमल आवृत होकर खुद ही संसारी बना है और समग्र विश्व में व्याप्त है।चिति की क्रिया शक्ति से ही ३६ तत्वों से बना विश्व प्रकट हुआ है। किसलिए? स्वच्छ और वैविध्य पूर्ण जीवन के लिए। विश्व हेतु यही तो है।
चिद्वत्तच्छक्तिसंकोचात् मलावृत: संसारी ।।९।।
तथापि तद्वत् पन्चकृत्यानिकरोति ।।१०।।
विराट ही वामन बना है। शिव ही जीव बना है। फिर वामन रूप में अपने पंचकृत्यों से कैसे दूर रह सकता है? चिति ही चित्त बन बुद्धि दर्पण में प्रकाशित होकर नाना प्रकार के जीवों (अंडज, जरायुज, श्वेदज, उद्बीज) में प्रविष्ट होकर सर्जन, स्थिति, संहार, निग्रह, अनुग्रह के पंचकृत्य कर रही है। संकुचित होने से शिव की शिवता चली नहीं जाती। नज़र बदल गई तो फिर मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष-पौधे, पंचमहाभूत, सब तरफ पंचमुख शिवलीला नजर आयेगी, उसकी क्रीड़ा दिखेगी। फिर किसे कहोगे बड़ा शिव और कौन छोटा शिव? कौन आगे और पीछे कौन? कौन जागा हुआ और कौन सोया? किसका विरोध कर पायेंगे? चिति स्वेच्छा से स्वतंत्रता से संकुचित हुई है। इसलिए विस्तारण की कुंजी भी उसके हाथ है, जो गुरू के माध्यम से हम तक पहुँच रही है। चाबी ताले में बराबर लग गई तो सर्वत्र शिव ही शिव। एक सत्ता, वैविध्य अनेक। जीवन उदासीन नहीं उत्सव बन जायेगा जब शिव के उल्लास और चिति के विलास का हम भोग करेंगे। मोक्ष चाहिए। शिवत्व का भोग ही मोक्ष है। प्रत्यभिज्ञा है। शिवोहम् शिवोहम्।
पूनमचंद
१४ नवम्बर २०२१
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