गुरू बिना ज्ञान नाही।
चिति स्वतंत्र है, स्वेच्छा से अपनी ही भिंती पर विश्व को सिद्ध करने हेतु अवरोहण करते ३६ तत्वों से बने विश्व रूप में प्रकट हो रही है। यह प्राकट्य चिति का संकोच है। चिति क्रिया शक्ति से नानात्व रूप लेकर, ग्राह्य-गाहक भेद कर, प्रमेय-प्रमाता की वैविध्यपूर्ण सृष्टि बनी है।समष्टि चिति ही चित्त बन व्यष्टि जीव बनकर संकुचित रूप में हम जीव के विश्व को प्रकाशित कर रही है। जीव का चित्त तीन मलों के आवरण के कारण अपनी शिव स्वरूप प्रत्यभिज्ञा से वंचित है। सबकुछ शिव ही है लेकिन जीवात्मा पूर्णोहम् की स्थिति से उतरकर अल्पोहम बनकर सूक्ष्म शरीर लिए स्थूल शरीरों में आवागमन करता रहता है, अथवा तो सप्तप्रमाता कि कोई एक भूमिका में ठहर जाता है। जब तक त्रिमल नहीं जाते, मुख्यतः आणव मल नहीं जाता, प्रत्यभिज्ञा अवरुद्ध रहती है। नानात्व स्वरूप में इच्छा, ज्ञान, क्रिया, निग्रह, अनुग्रह की शक्ति सब में रहेगी, लेकिन पूर्ण स्वातंत्र्य नहीं है। मुक्ति के लिए गुरू युक्ति की कमी है।
पूनमचंद
१४ नवम्बर २०२१
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