संसार अद्वैत का द्वैत प्राकट्य है, इसलिए बिना अद्वैत अनुभव, द्वैत को बुद्धि से समजा सकते हो लेकिन मिटा नहीं सकते।
यह एक मनोवैज्ञानिक सफ़र है। शिव का ना जन्म है ना मृत्यु और उसी का ही यह जगत रूप में प्राकट्य है, फिर भी इतने सारे शिव (जीव) इतनी सदियों से पृथ्वी खंड पर क्यूँ लगे है? क्या अधूरापन है, कमी है, जो पूरी करनी है? जब सब कुछ, सब और ‘एक अखंड बोध’ ही है तो कौन किससे मुक्त होगा?
जब तक जीव भाव है तब तक द्वैत जा नहीं सकता। फिर चाहे कल्पना रंगों के कितने ही चित्र बना ले, अद्वैत अनुभूत नहीं हो सकता। शिव का अनुग्रह ही अद्वैत को बुद्धि में प्रकाशित कर प्रत्यभिज्ञा करा सकता है, और जीव भाव से हमें मुक्त कर शिव भाव में स्थापित कर सकता है।
एक की सफ़र और साक्षात्कार दूसरों को मार्गदर्शित कर सकती है पर सामुदायिक मुक्ति नहीं। हर जीव को अपनी मंज़िल खुद काटनी है। परम शिव जब अपनी क्रीड़ा ख़त्म करेगा, तब सब समेट लेगा। साक्षात्कार किया तब भी शिव में निवास है, और नहीं किया तब भी। शिव, शिव से अलग रहे कैसे? कभी नहीं। शिवोहम।
पूनमचंद
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