संविद स्वात्मनि
तुरीया खोजन मैं चला, तूरीया मिल्या न कोय;
मैं रह्या पर ध्यान दियो तो, सब में चिन्मय ठोर।
मैं आत्म अखंड बोध, चैतन्य, संविद नाम;
आभास भेदे त्रिपुटी रचाई, एकोहम पंच विलास।
मैं चैतन्य, मैं शिवा, मैं भैरव, मैं ही शक्ति तत्वा;
सर्वाकार निराकार रूप धर, बहुधा गुहा निवासा।
मैं ही वह चेतन पर्दा, काल अकाल जिस पर रमता;
पूर्णा-कृषा उभय स्वभावे, क्रम अक्रम स्वतंत्र रूपा।
ना बंधन ना मुक्ति, स्वात्म पहचाने साक्षात्कार;
छूटे जब भेद मेरा मुझसे, जग मेरा अभेद प्रकाशा।
गुरू मैं, शिष्य भी मैं, मैं ही शंका, मैं समाधान;
प्रकाश विमर्श विश्वरूपा, मैं ही बोध अखंडा।
पिघल्या उसने पा लिया, बर्फ़ पानी संजोग;
शरणागत वत्सल, प्राप्तस्य मेरी प्राप्ति सरल।
आवन जावन प्राण पथ, संधान जब प्राणन करता;
सूक्ष्म से उद्वहन सुरता, शंभु शरण विरला ज्ञाता।
तुरीया खोजन मैं चला, तूरीया मिल्या न कोय;
मैं रह्या पर ध्यान दिया तो, सब में चिन्मय ठोर।
पूनमचंद
११ सितंबर २०२१
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