मान जाइए, ठहर जाइए।
मेरा मुझको पता नहीं, फिर भी चला तुझे खोज;
मेरी मुझको खबर नहीं, फिर क्यूँ भटकूँ इधर-उधर?
मन याचक पूछे दाता से, तुं कहाँ से है धन देत;
इच्छा ज्ञान कर्ता बन भोगे, फिर भी करे प्रश्न अनेक।
छत्तीस बन किया विस्तार, विषय भोग भरमार;
क्यूँ रखी टीस अतृप्ति की, खेल में पड़ी ख़लल।
अखंड प्रकाश अविच्छेद, संकोच करे धरे रूप;
भेद अभेद माया भासे, करे क्रीड़ा सुषुप्त विमर्श।
अनुग्रह करी निग्रह तोड़े, उन्मेष की और आरूढ़े;
अनाहत लवलीन करे, कणकण पुलकित करे।
मान लिया सो जान लिया, खुदसे खुदा मिला लिया;
टेढ़ा सर्प सीधा किया, सब जगत खुद से दीया।
इच्छा ज्ञान क्रिया खेल, सामरस्य का खुले भेद;
गुरू शास्त्र सुधारें शान, संवित ज्ञान स्थान अभेद।
पूनमचंद
१९ सितंबर २०२१
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