Sunday, November 21, 2021

पहचान कौन?

 पहचान कौन?


शिव ही संसार और संसार ही शिव; शुद्ध संवित, प्रकाश और विमर्शमय। पूर्णाहंता से विमर्शात्मा परम शिव, ३६ तत्वों से जगतद्रुपता के विस्तार को प्राप्त है। यह विश्व उस परम शिव में परम का ही प्रतिबिंब। अपनी विश्वोतीर्ण से विश्वमय, प्रकाश-विमर्श लीला से संसार खेल रचा है।


शिव शिव है, जीव भी शिव है।विद्या भी शिव, अविद्या भी शिव। हर कंकर एक शंकर। प्रमाता भी शिव और प्रमेय भी शिव। उसकी  मर्ज़ी किस स्पन्द को कैसे स्पन्दित करे। कहाँ भेद, कहाँ भेदाभेद और कहाँ अभेद करे। 


जीव अज्ञान से जुड़ा है और ईश्वर माया से।अज्ञान और कुछ नहीं, मल है, संवित का संकोच है। बस यह संकोच के एक छोर पर जीव पद और व्यापकता के दूसरे छोर पर परम शिव पद। भेद छोर पर पशु, अभेद छोर पर पति। पशुपति।एक बंध, एक स्वतंत्र। 


त्रिमल के कारण अपनी क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति का संकोच है जीव। आणव मल अपूर्णता का एहसास, मायिय मल भेद बुद्धि और कार्म मल शुभाशुभ भाव है। विद्या से मल शोधन साधना है। 


कश्मीर शैव दर्शन ने प्रमाता को प्रमेय के सापेक्ष में मल के आधार पर अकल से सकल तक सात भूमिका में बाँटा है। चेतना के सात स्तर है। साधना सकल से अकल की यात्रा है। त्रिमल से निर्मल पथ यात्रा है।प्रमेय को प्रमाता में लीन करना है  शून्य बोध से स्वात्म बोध करना है। जीवत्व से शिवत्व पहचानना है। 


वैसे तो केवल एक प्रमाता है। लेकिन विमर्श से उसका शक्ति प्राकट्य है। प्रमेय भी प्रमाता का ही प्रारूप है। अकल पद के बाद, ज्ञान और क्रिया, प्रमाता-प्रमेय द्रष्टि विभाजन से अलग अलग भूमिका में आ गये। पुरुष प्रमाता है, प्रकृति प्रमेय। प्रमेय प्रमाता से प्रकाशित। यह खेल है, शिव क्रीड़ा है। आप है, हम है, सारा संसार है। 


आरोही क्रम से प्रमाता अनुक्रम से सकल, प्रलयाकल, विज्ञानाकल, मंत्र, मंत्रेश्वर, मंत्रमहेश्वर, अकल नाम से जाना जाता है। अहं पुरूष और इदं प्रकृति। पुरुष की अहंता के आधार पर उसकी भूमिका बनती है। शिव अवरोह से अकल से सकल तक की, और फिर आरोह से सकल से अकल की स्थिति में उन्मुक्त होता है। शुद्धि से अशुद्धि और अशुद्धि से शुद्धि।भूमिका भेद से प्रमाता (अहं) अपने प्रमेय अंश (इदं) को अलग समजता है। प्रमाता प्रमेय का यह दर्शन है पराद्वैत।


साधना प्रमेय को प्रमाता में हवन (लय) कर, एक से दूसरी भूमिका में आरोह कर स्वात्म पहचान से परम तत्व पद पहुँचना है। व्यष्टि चेतना से समष्टि चेतना में, अकृत्रिम अहं में परिणत होना है।अपने वास्तविक स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा करनी है। 


शिव सर्वत्र जान। खुद को पूर्ण मान। ना कैलास में रोक, ना केदार बांध। 


पूनमचंद 

१८ सितंबर २०२१

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