जल ही मछली का जीवन है, वह है भी तो जल में, बस उसका जगत छोटा कर, टुकड़ों में विभाजित कर जी रही है। वह खुद चैतन्य और सब आकृति और अनुभव चैतन्य स्याही से लिखि उसकी अपनी कृति। फिर भी वह उससे अनभिज्ञ क्यूँ? कहाँ है जगत? चैतन्य से चलती इन्द्रियों को मन से जोड़कर किया अनुभव है तब तक। लेकिन अनुभव करनेवाला और अनुभव दोनों एक ही है ऐसा पता लग जायें फिर क्या? चित्रों कहानियों को जो भी नाम दे लेकिन, मेरा जगत मेरी ही चैतन्य अभिव्यक्ति है। मैं ही मेरी चेतना-ज्ञान शक्ति से अपना जगत द्वैत (अपोहन) बनाकर अपनी स्मृति शक्ति से उसे चला रहा हूँ।
श्रीगुरू उसे अखंड शिव स्वरूप अंबा (प्रकट विश्व) का बोध कराकर संविद में स्थापित करते है तब स्वयं का साक्षात्कार होता है।
उस श्रीगुरू को नमन।
ओम गुरूभ्यो नम:। 🙏
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