चिति बनी चित्त।
चिति स्वतंत्र है, स्वेच्छा से अपनी ही भिंती पर विश्व को सिद्ध करने हेतु प्रकट हो रही है। प्रकट होने के लिए इच्छा और ज्ञान के साथ क्रिया शक्ति प्रमुख है। यह प्राकट्य, चिति का संकोच है। क्रिया शक्ति से नानात्व रूप लेकर, ग्राह्य-गाहक भेद कर, प्रमेय-प्रमाता की वैविध्यपूर्ण सृष्टि बनी है। तभी तो उल्लास है। क्रीड़ा है।
चितिसंकोचात्मा चेतनोડपिसंकुचितविश्वमय:।।४।।
जैसे चिति संकोच कर समष्टि चेतन विश्व रूप में प्रकट हो रही है, इसी तरह चिति संकोच से बना व्यष्टि चेतन भी संकुचित रूप में विश्वमय है। व्यष्टि विश्व कितना? व्यष्टि संकोचन जितना। लेकिन ग्राहक या प्रमाता संकुचित रूप में भी विश्वमय है। अपने विश्व को प्रकाशित कर रहा है। चिद्रुप है इसलिए संभावना क्षेत्र बन गया, जीव और शिव के अभेद का।
चितिरेव चेतनपदादवरूढा चेत्यसंकोचिनी चित्तम्।।५।।
चिति (समष्टि चेतना) असंकुचित चेतन पद है। वहाँ से अवरोह करती है। नाद और ज्ञान लिये उतरती है और संकुचन ग्रहण कर, चेत्य (गाह्य पदार्थ, इदम्) के अनुकूल संकुचित होकर व्यष्टि चित्त बन जाती है। अर्थात् चिति ही चित्त है। क्रम संकोच से विषयों को ग्रहण करने भिन्न भिन्न स्थिति पर सदाशिव से सकल प्रमाता की दशा को प्राप्त है। प्रकाश और संकोच-विमर्श। जहां प्रकाश-चिति का आधिक्य वहाँ तत्व दशा, और जहां संकोच का आधिक्य वहाँ सृजन। कलाकार, चित्रकार की कृति का सृजन। नानात्व में भी चिति ही है। यहाँ नानात्व का महत्व घट नहीं जाता। वह विराट की ही विभूति है। ग्राह्य पदार्थ भी चेतन संकुचन है, चैत्य है इसलिए वह ग्राहक को लाभान्वित करेगा। कहीं भी स्वप्रकाशत्व का लोप नहीं होता, ना ग्राहक में, ना ग्राह्य में। शिव ही संकुचित रूप में जीव बना है।
तन्मयो मायाप्रमाता।।६।।
तत् यानी चित्त। चित्त मायाप्रमाता में तन्मय इसलिए अहम् शिव का बोध नहीं हो रहा है। पशुता की शून्यता पर बैठा है चित्त। मन, बुद्धि, अहंकार साधनों का दास बना है इसलिए अपनी सच्ची प्रत्यभिज्ञा नहीं हो रही। मलों का आवरण है। अखंड बोध खंडित हो गया है इस मल तन्मयता के कारण। प्रश्न की अगर पहचान हो जाए तो उत्तर तो मौजूद है, अखंडता का। चित्त अखंड ही हैं क्यूँकि चिति ही चित्त है। बस पहचान करनी है।
स चैको द्विरूपस्रिमयश्वतुरात्मासप्तपंचकस्वभाव:।।७।।
आत्मा एक है लेकिन द्विरूप, त्रिमय, चतुर्मय और सात पंचक स्वभाव वाला है। एक है परम शिव अद्वैत। प्रकाशरूप आत्मा। शिवशक्ति सामरस्य।
पूर्णोहम् कि स्थिति से चिदात्मा प्रकाशरूपता और संकोचावभासन से दो रूप वाला हुआ। अहम इदम, नानात्व ग्राहक-ग्राह्य द्विरूप बना। अहम् के पट पर ही प्रसरण-स्थिति-लय हो रहा है।
तीन मल उस अखंड को आवृत किये है इसलिए त्रिमय है। अपूर्णता का अनुभव आणव मल है। भिन्नता का बोध मायीय मल है। शुद्ध अशुद्ध वासना कार्म मल है। आणव मल दूसरे दो मलों का मूल है। आणव मल हटाने गुरू की आवश्यकता रहेगी। गुरू की युक्ति होगी। भीतर बोध है, गुरू उसे प्रस्फुटित करता है।
चतुर्मय आत्मा। शून्य, प्राण, पुर्यष्टक और स्थूल शरीर। एक देहरूपी स्थूल शरीर, दूसरा पुर्यष्टक (आठ का नगर, लिंग शरीर, पाँच तन्मात्रा एवं मन, बुद्धि और अहंकार), तीसरा प्राण और चौथा शून्य। शून्यता का आनंद, पूर्णता का आनंद नहीं। निरानंद -परानंद-ब्रह्मानंद-महानंद-चिदानंद-जगदानंद की अनुभूति उस शून्य में कहाँ?
सात पंचक यानी ३५ तत्व बन जाने का उसका स्वभाव। शिव से सकल (शिव, मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर, मंत्र, विज्ञानाकल, प्रलयाकल और सकल) तक सात प्रमाता और कला, विद्या, राग, काल और नियति रूप पाँच कंचुकों के पाँच आवरणों को ग्रहण कर वह पाँच स्वरूप वाला जीव बन जाता है।
इस प्रकार एक रूप शिव रूप ३५ तत्व (सप्त पंचक) रूप संसार हेतु हो जाता है।
अखंड स्वरूप जीव का बोध लक्ष्य है। पंच शक्ति का अनुभव है। जिसमें प्रकाशरूपता चिद्शक्ति है, स्वातंत्र्य आनंद शक्ति है, तत् चमत्कार (भीतर से उठना) इच्छा शक्ति, आमर्शन ज्ञान शक्ति है और सर्वाकार योगीत्वम क्रिया शक्ति है। निखिल का बोध यहाँ, अभी हो सकता है। अभी नहीं तो, फिर कभी? स्व में ही सब प्रकाशित है। स्व कौन। पहचान करनी बै। अखंड की। चित्त से चिति की। शिवशक्ति सामरस्य की। प्रकाश-विमर्श की। तभी तो होगी प्रत्यभिज्ञा। अभी, इसी घड़ी। दृष्टि बदलनी होगी। पूर्णोहम्।
पूनमचंद
१३ नवम्बर २०२१