Friday, March 26, 2021

परीक्षित।

 परीक्षित 


वह परीक्षित था। अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का पुत्र, कुरूवंश का एक मात्र वारिस। उत्तरा के गर्भ में था तब भगवान श्री कृष्ण ने उसकी रक्षा की थी अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से। वह कृष्ण परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ था। चक्रवर्ती था। बुद्धिमान था। धर्मनिष्ठ, न्यायप्रिय और प्रजापालक था। फिर भी सत्ता के मद में गलती कर बैठा। 


एक बार शिकार खेलते हुए भूख प्यास से व्याकुल शमीक मुनि के आश्रम जा पहुँचा। वृद्ध मुनि समाधिस्थ थे पर उन्हीं से राजा ने जल माँगा। उत्तर न मिलने पर राजा क्रोधित हुआ और धनुष की नोक से एक मरा हुआ साँप उठाकर मुनि के गले में डाल दिया और चल दिया। मुनि का तेजस्वी पुत्र श्रृंगी बाहर से आया और पिता का अपमान सह न सका। कोपशील होकर राजा को शाप दे दिया कि सातवें दिन तक्षक सर्प के दंश से उसकी मृत्यु होगी। 


राजा हस्तिनापुर लौट आया लेकिन अपने कर्म पर पश्चाताप हुआ। जिस गले में फुल माला डालनी थी, वह साँप डाल आया। होनी हो गई। अब क्या?

जीवन का एक सप्ताह ही बचा था। क्या लक्ष्य रखे? परीक्षित था। जाग गया।जीवन्मुक्ति का मार्ग खोजने राजगद्दी बेटे जनमेजय के देकर, गंगा किनारे जा बैठा। ऋषिमुनि आयें।वेदव्यास के पुत्र शुकदेव भी आयें। राजा ने शुकदेव मुनि से सात दिन में जीवन्मुक्ति का उपाय माँगा। मुनि ने राजा को श्रीमद्भागवत का उपदेश दिया। भगवान के नाम गुण कीर्तन सुनकर राजा तुरीयातीत अवस्था (उच्च चेतनावस्था) में था और साँप कब प्रकटा, कब काटकर चला गया, राजा को पता न चला। परीक्षित आख़री परीक्षा पार कर मुक्त हो गया। 


मृत्यु सामने खड़ी थी तब जागा परीक्षित पार हुआ। कौन जानता है, मौत कब आ जाएगी। बुद्ध सूत्र कहता है, नत्थि रागसमो अग्नि, नत्थि दोससमो कलि। नत्थि खन्धसमा दुक्खा, नत्थि सन्तिपरं सुखं। राजा हो या राज्याधिकारी, जब तक सत्ता पद है, राग, द्वेष और मोह से मुक्ति कहाँ? शांति कहाँ? निर्वाण कहाँ, जब तक आस्त्रवो का क्षय न हो जाए। संसार यही तो है। प्रतिसाद, अपने ही कर्मों और कर्मफलों का जाल। अपना ही प्रतिबिंब। जो बोया वही पाना। 


कैसे पार लगाये यह नैया? चित्त के पार चित्ति में आसन लग जाए, केमरा नहीं दर्पण रह जाए, आत्माकार साम्यावस्था आ जाए, तब न होगा साद, न प्रतिसाद। नीरव शांति। मौन। निर्वाण।फिर तक्षक का कहाँ डर। यही परीक्षा है जो सभी परीक्षितो को पास करनी है।  


पूनमचंद 

२ जनवरी २०२१

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