बस तीन कदम।
बाहर विराट है। माया मय सृष्टि या शिव नर्तन है। आयु हमारा सीमित है। खोजने निकले तो खो जायेंगें। मूल स्रोत को जानना है, उसके पास जाना है। परिधि पर धूमें या केन्द्र पर जाय? भीतर की खोज सरल है। परमात्मा की किरण जो हम है। ममेवांशे जीवलोके, कहकर श्रीकृष्ण ने समर्थन दिया है।
छोटी सी ज़िंदगी में छोटी सी मनुष्य काया की यह सफ़र, अगर काम ले ली जाए तो तीन कदम का फ़ासला है।
हमारा स्थूल शरीर हमारा रथ है। उसमें रहकर हम अपनी कामनाओं के अनुसार उसे चलाते हैं और बचपन से बुढ़ापे की यात्रा करते है। पंचभूतों से बना यह शरीर भोग की ओर दौड़ा तो भी नष्ट होगा, योग की ओर चली तो भी नष्ट होगा। यही काम में लेना ज़रूरी है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश तत्वों से बना यह रथ नाशवान है और आख़िर में तत्वों को तत्वों में समर्पित होता है। मेरा शरीर है, लेकिन मैं शरीरी नहीं हूँ, यह पहला कदम है। जड़ विभाग है।
फिर भीतर चले। अत:करण है। कार्य भेद से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार विभाजन है। विचारों का प्रवाह, संकल्प विकल्प मन के है। तर्क और निश्चय बुद्धि कही जाती है।चित्त स्मरण संग्रह है और कर्ता भाव अभिमान। सूक्ष्म शरीर कहे जाते है। पाँच ज्ञानेंद्रिय और पाँच कर्मेन्द्रियाँ के माध्यम से यह शरीर ही भोग या योग का कर्ता धर्ता है। अपने कर्मों के जाल खुद बुनता है और फिर अधूरी कामनाएँ पूरी करने अनगिनत शरीरी धारण कर सुख दुःख और जन्म मरण के चक्र में घुमता रहता है। यह भी जड़ विभाग है। हालाँकि यह बड़े काम का है। मुक्ति की नाँव चलाने इसका सहयोग लेना होता है। ध्यान यही करना है। विवेक इसी में जगाना है। शुद्धि इसकी करनी है दर्पण की। जनमो जन्म के संस्कार की लिखाई मिटानी है। अकंप करना है। अंत में शुद्ध दर्पण के सहारे परम शुद्ध का अपरोक्ष साक्षात्कार करना है।
और भीतर चलें। आत्म क्षेत्र की ओर। द्रष्टा, साक्षी की ओर। चैतन्य की और। न इसे भूख है, न इसे कामना। स्वयं प्रकाश। चैतन्मात्मा। तटस्थ दीये की तरह उपर के दो जड़ वर्ग को प्रकाशित करता रहता है। जब तक सामंजस्य है स्थूल और सूक्ष्म से, दोनों शरीर चलते है। जिस दिन सामंजस्य टूटा सूक्ष्म स्थूल से अलग और फिर एक नया रथ। जड़ विभाग की यात्रा का आधार चेतन है। लेकिन चैतन्य को कोई सुन नहीं सकता। स्पर्श नहीं कर सकता। देख नहीं सकता। चख नहीं सकता। सूँघ नहीं सकता। क्योंकि चैतन्य इन्द्रियों का विषय नहीं है।
बड़ी कठिनाई हो गईं। हमारे पास जो संसाधन है उसका ही तो उपयोग होगा। कान के कान को सुन नहीं सकते, आँख की आँख को देख नहीं सकते, फिर भी पहुँचना है। कई लोग पहुँचे है। यहाँ शुरू होता है रन वे। साधना क्षेत्र। कर्म, भक्ति और ज्ञान का मार्ग।
आत्मा चैतन्य है। हमारी जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था का साक्षी है। तुरीय पद में होश रख उसका अनुसंधान कर ज्ञान बनाये रखना है।
वैसे तो चित्त जड़ है इसलिए चैतन्य आत्मा नहीं। लेकिन शिव सूत्र कहता है। आत्मा चित्तम्। किरण सूरज नहीं पर है तो सूरज की किरण। सूरज होने का प्रत्यक्ष प्रमाण। किरण को पकड़ उसके स्रोत सूरज की यात्रा हो सकती है। लहर क्षुद्र है लेकिन है तो विराट सागर में, सागर से जुड़ी। चित्त का आत्मा में स्वीकार होने से अनुसंधान हो जाता है। लहर ही तो लघुता से लहर है और गुरू पद समझ गई तो सागर है। सरल हो गया। आत्मा में प्रवेश करने का द्वार मिल गया। हो गया काम। एकांत, मौन और ध्यान। जैसे जैसे रंगमंच संसार और नर्तक आत्मा की ख़बर होती तब भीतर बाहर का भेद खुलने लगता है।
जड़ पदार्थ स्थूल से सूक्ष्म होता है उतनी उसकी व्यापकता बढ़ती है। पृथ्वी से आकाश की व्यापकता का अंदाज़ा लगा सकते है। अब जब आकाश की व्यापकता को नाप नहीं सकते तो उससे भी सूक्ष्मतम् चैतन्य तत्व की व्यापकता कैसे नाप लेंगे। उतना वक्त कहां बचा है? बुद्धिमानी वही है कि शक्कर के पहाड़ को जहां खड़े हैं वहीं से चख लें। स्वाद तो बराबर होगा हर जगह। एक बार आत्मा का स्वाद आ गया तो परमात्मा दूर नहीं। लहर मिल गई तो सागर दूर नहीं।
शीवतुल्यो जायते। शिवत्व फल है, साधना का। अहं ब्रह्मास्मि का नाद है। सब जगह एक ही चैतन्य का नर्तन है, फिर कौन मित्र कौन शत्रु? अपनी स्थिति और लय के आप स्वामी। फिर आप ही आत्मा आप ही परमात्मा।
ॐ नमः शिवाय।
पूनमचंद
१३ जनवरी २०२१
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