ध्यान योग
परसो गीता जयंती थी। मेरा ध्यान सांख्य के बाद बुद्ध पर था। गीता हमेशा मेरे साथ रहती है। बुद्ध का दु:ख जगत मन की तृष्णा के अंत द्वारा समाधि के निर्वाण शून्य मे ख़त्म होता है। न वह आत्मा की बात करता है, ना परमात्मा की। सरलता से जीवन जीने की कला है उनके उपदेश में।
लेकिन जहां बुद्ध से छूटा, वहीं से कृष्ण का चैतन्य शांत आत्मबोध प्रकट होता है। मन को वश करने में बुद्ध का अनात्म विपश्यना मार्ग सरल है। लेकिन मन को शांत चैतन्य में विसर्जित करने मे कृष्ण आत्म योग उत्तम है।
ऐसा समदर्शी योगी सब भूतों में विराजमान एक ही आत्मतत्व का दर्शन करता जीवन्मुक्त हो जाता है। जैसे सुवर्ण समस्त आभूषणों में, जल समस्त तरंगों में, मीट्टी समस्त मिट्टी से बने पात्रों में एक है, वैसे ही आत्मा समस्त नामरूपात्मक द्रश्यमान जगत का अधिष्ठान बन स्थित है। ना कोई छोटा ना कोई बड़ा। वासुदेव सर्वम्।
एक तृष्णा त्याग से दु:ख मुक्ति का मार्ग है, और दूसरा चित्त को अधिष्ठान शांत आत्म स्वरूप में समर्पण विलीन का। जहां ना कोई दुख है ना कोई सुख। मन गया फिर क्या रहा? केवल।
पूनमचंद
२७ दिसंबर २०२०
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