कलछी या जिह्वा
श्रावस्ती के जेतवन विहार में स्थविर बुद्धो के आसन लगते थे और आगंतुक भिक्खुओं को बुद्ध मार्गदर्शन करते थे। भोजन और चम्मच की बात निकली। जीवन भर कुछ लोग विद्वान के संपर्क में रहकर कुछ नहीं पाते। उसे बालपन या मूलावस्था कहीं है, जैसे दाल में कलछी।
सूत्र है।
यानजीवम्पि चे बालो, पण्डितं पयिरुपासति। न सो धम्मं विजानाति, दब्बी सूपरसं यथा।
(यदि मूढ़ जीवनभर सत्य के जानकार के साथ रहे, तो भी वह धर्म को नहीं जान पाता, जैसे कि कलछी दाल को।)
कलछी (चम्मच) दाल में ही तो रहती है लेकिन दाल का स्वाद नहीं ले पाती।
ऐसे ही जंगल में एक दिन मौजमस्ती करनेवाले कुछ युवकों से एक वैश्या ने बहुमूल्य आभूषण चुरा भाग गई। उन्होंने तथागत के पास आकर उनसे उस औरत को ढूँढने का उपाय पूछा। तथागत ने कहा, आप किसे खोज रहे है? अपने आपको खोजों। आप व्यर्थ भाग रहे है। क्या हितकर है? स्त्री का अन्वेषण या अपना ? युवकों ने बात मान ली और बुद्ध के मार्गदर्शन में तृष्णा छोड़ स्रोतापन्न (ध्यान) को प्राप्त हुए। और एक दिन अनात्मग्ग सुत्त पर प्रवचन सुनते अर्हत (शत्रु नष्ट हुए ) का पद पा लिया और भयरहित हुए।
बुद्ध ने सूत्र कहा।
मुहूत्तमपि चे विज्ञ, पण्डितं पयिरुपासति। खिप्पं धम्मं विजानाति, जिल्ला सूपरसं यथा।
(यदि विज्ञ-जिज्ञासु पुरुष एक मुहूर्त भी सत्य के जानकर के साथ रहे, तो वह शीघ्र ही धर्म को जान लेता है, जैसे जिह्वा चखते ही दाल रस को पहचान लेती है।) जिह्वा को क्या देर? चेतन है। दाल रस पहचान लेगी।
कलछी या जिह्वा, पसंद की बात है। संस्कार अनुबंध की बात है।
सूत्र आत्मसात् करे।
न सो धम्मं विजानाति, दब्बी सूपरसं यथा। खिप्पं धम्मं विजानाति, जिल्ला सूपरसं यथा।
धर्म जानना है तो दाल में जिह्वा सम सक्रिय एकरस होना पड़ेगा। भीतर खोजना है, अपने ही खदान में। धर्म के अनुभव में सब उत्तर है। तृष्णा के विनाश से धर्म उपलब्ध होता है। समता (जैसे तराज़ू) से धर्म का द्वार खुलता है।
पूनमचंद
९ जनवरी २०२१
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