क्या होता है?
पूरा जगत लगा है परमात्मा की ओर नज़र लगाये। कोई प्रार्थना करता है कोई बंदगी। कोई कुंडलीनी योग में प्रवृत्त है कोई ध्यान में। कोई शक्तिपात और कोई साक्षात्कार की शिक्षा देता है।
कोई साफ़ नहीं बताता है, क्या होता है साक्षात्कार होने से। क्या नीम का स्वाद मीठा हो जाता है और पके आम कड़वे लगते है? एक तरफ़ “मैं कौन” की खोज और दूसरी तरफ़ संसार की माँग। या तो दुन्वयी प्रश्नों का हल हो जाए अथवा कोई सिद्धि हाथ लग जाए। रहस्यमय बना रखा है सबने। पूजको ने और पुजारीओ ने।
बात तो एकदम साफ़ है कि आत्मा शाश्वत है और सदा काल मौजूद है। वह खोया नहीं है जिसको पाना है। वह प्राप्त ही है। अब जो प्राप्त है, वह मिल जाये तो क्या होगा। सिर्फ़ पुष्टि हो जायेगी। एक मृत विभाग है जिसे सच मानकर हम लगें है, वहाँ से अमृत विभाग पर ध्यान जायेगा। मृत्यु का भय जायेगा जब शाश्वत की ख़बर लगेगी। ना नीम को मीठा होना है, ना आम को कड़वा। ना कोई बुट्टी हाथ लगनी है जिससे जादुई चिराग़ की तरह कुछ बन जाये या कुछ प्राप्त कर ले। सच्चा स्वरूप जानने से मन के सब आवेग शांत हो जाते है। परम शांति जो आत्मा का स्वभाव है उसमें स्थिति होती है। राग द्वेष, सुख दुख, मान अपमान सब द्वंद्वों से मुक्ति मिलती है। आत्मा को जान लिया सो परमात्मा को जान लिया। सक्कर के पहाड़ से चीनी चख ली, सारे पहाड़ का स्वाद आ गया।
बस इतनी ही तो यात्रा है। अपने ही भीतर, अपना ही पता जानने की। गणेशपुरी (महाराष्ट्र) के अवधूत संत भगवान नित्यानंद के साक्षात्कारी शिष्य बाबा मुक्तानंद ने आख़री शिक्षा यहीं दी। आपको ध्याओ, आपको वंदो, आपको पूजो, आपका सम्मान करो, आपको समझो, आप में ही आपका राम आप होकर रहता है |
इतना सरल भी नहीं। जन्मों जन्म के मृत-जड़ विभाग के संस्कारों से मुक्त होकर अमृत को पाना। अंधेरे से उजाले में कदम रखना। विमान की सवारी है तो विमान को रन वे पर दौड़ना होगा। यही रन वे की दौड़ में सब उलझन है।सब क्रियायें है। अन्यथा रहस्यवाद के जाल में कोन फँसेगा?
खुद को पहचानो। खुद को घ्याओ, खुद की आरती करें। शरीर की नहीं, पद प्रतिष्ठा बुद्धि की नहीं; आत्म चैतन्य की। अपने मंदिर को पहचानो।गर्भदीप प्रज्ज्वलित है। ख़ुद से ख़ुदा की सीढ़ी बना लो। अपना मंदिर दीखेगा और चारों ओर चलते फिरते मंदिर भी नज़र आयेंगे। आँखों के पार की रोशनी नज़र आयेंगी। सब ओर चैतन्य का सागर, चैतन्य का साम्राज्य।लहर सागर में और सागर लहर में। लहर छूटी और सागर हो गई। फिर कौन मेरा और कोन तेरा? कोई दूजा नहीं। अद्वैत। अभेद।
आत्मा द्वारे कुछ नहीं होता और कुछ कुछ होता भी है।नज़र बदलते ही नज़ारे बदल जातें हैं, कश्ती बदलती है रूख तो किनारे बदल जाते है। निज बोध स्वरूप, ज्ञान स्वरूप, भान स्वरूप, चैतन्य स्वरूप की अपरोक्ष उपलब्धि। भीतर छीपी अपनी ही संपदा। असीम शांति। मानना नहीं है। जानना है।जो है। गुड़ का अपरोक्ष स्वाद खुद लेना है। पराया नहीं चलेगा।
ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ – बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28। (मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।
मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥)
पूनमचंद
१६ जनवरी २०२१
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