हस्तामलक
दक्षिण भारत के एक गाँव में प्रभाकर नाम का एक विद्वान ब्राह्मण रहता था। उसका एक पुत्र था। न शास्त्र अभ्यास किया, ना प्रवृत हुआ। रहता था उदासीन और जैसे गूँगा। एक दिन शंकराचार्य पधारे उस गाँव में। प्रभाकर पहुँच गया अपने पुत्र को लेकर और प्रणाम कर कुछ बोध के लिए शंकराचार्य को बिनती की।
शंकराचार्य पूछते है। कस्त्वं शिशो कस्य कुतोडसि गन्ता किं नाम ते त्वं कुत आगतोडसि। (हे शिशु, तुम कौन है? किसका पुत्र है? तुम कहाँ जा रहा है? तेरा नाम किया है? तू कहाँ से आया है ?)
बड़ा अद्भुत जवाब दिया उस बालक हस्तामलक ने। हम सब के लिए जवाब है।
नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रा:।
न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूप:। (न मैं मनुष्य हूँ, न देव या यक्ष, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र भी नहीं। न ब्रह्मचारी, न गृहस्थ, न वानप्रस्थी, न संन्यासी। मैं निज बोधरूप आत्मा हूँ।)
योनि, वर्ण, आश्रम, देह की उपाधि है। आत्मा निरूपाधिक, मन चक्षु आदि इन्द्रियों का प्रकाशक, असंग, असीम, व्यापक, एक रस, नित्य ज्ञान स्वरूप है।
जो है उसे जाना नहीं, और जो नहीं है उसके पीछे सब लगे है। यही तो सबसे बड़ा आश्चर्य है।
पूनमचंद
७ जनवरी २०२१
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