अहिंसा परमो धर्म:।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु: ध्रुवं जन्म मृतस्य च। जो जन्मता है वह मरता है, जो मरेगा वह जन्मेगा। जीवो जीवस्य भोजनम्। एक जीव दूसरे जीव का भोजन है। फिर भी जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्मों में अहिंसा को परम धर्म बताया गया है। मात्र कायिक हिंसा ही नहीं, वाचिक और मानसिक हिंसा का निषेध है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा न जन्मता है न मरता है। नैनं छिन्दन्ति शस्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। फिर कौन जन्मता है? कौन मरता है? किसका वध होता है?
महापुरुषों ने दो विभाग बतायें है। प्रकृति-पुरूष। जड़-चेतन। एक शुद्ध चैतन्य है दूसरा प्रातिभासित। चैतन्य एक ही है और प्रकृति के रूप अनेक। ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या। हमारा शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रिय, इत्यादि, पंच महाभूत, तीन गुण (सत्व, रजस, तमस), कर्म, कर्मफल, सब भेद, प्रकृति में स्थित है। इसलिए जो जन्मता और मरता है वह प्रकृति का रूप है। स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर से अलग होता है फिर स्थूल को खा जाओ, दफ़ना दो या जला दो, जड़ बात है। सूक्ष्म शरीर जो कि मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार रूपी अंत:करण से बना है, वह कर्म संस्कार की टोकरी लेकर एक नये शरीर की खोज में चल पड़ता है। यह यात्रा ही संसार है। जब तक अविद्या नष्ट नहीं होती, अपने सच्चे स्वरूप का भान नहीं होता, जीव, जीवात्मा बन विविध योनियों में परिभ्रमण करता रहता है। मुक्ति स्वरूप ज्ञान से होती है। ज्ञान नित्य-अनित्य, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, बंध-मुक्त के विवेक से होता है। नित्यता, मुक्तता आत्मा का स्वभाव है इसलिए स्वरूप ज्ञान से जीवन मुक्ति और प्रारब्ध पूर्ण हुए शरीर छोड़ने से विदेह मुक्ति होती है। ज्ञानी का सूक्ष्म शरीर अपने कारणों में विलीन होता है। फिर उसका ना कोई जन्म ना मृत्यु।
भगवान श्रीकृष्ण ने क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग में इसलिए अहिंसा की व्याख्या की है। समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्। न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्। देखना है। क्या देखना है? समत्व। सर्वत्र सब रूप में एक ही परम सत्ता समान रूप से प्रकट है। जगत के नाम रूप भासमान है लेकिन उस सबका अधिष्ठान समरूप से सर्वत्र एक ही है। फिर किसको मारोगे और किसको खाओगे? इस तरह सर्वत्र एक आत्म चैतन्य को समरूप से देखता हुआ वह खुद से खुद की हिंसा नहीं करता, ना कायिक, ना वाचिक, ना मानसिक। नित्य, सत्य, मुक्त आत्मा का अभेद दर्शन करना सच्चा और ऊँचा दर्शन है और भेद बुद्धि से नाम रूप को अलग अलग वस्तु समजकर भिन्नता के दर्शन आत्मा का तिरस्कार और हत्या है। अनात्म में लगाव, अनात्म संसार की यात्रा का कारण है। शरीर बनते रहेंगे और मिटते रहेंगे, लेकिन यात्रा समाप्त नहीं होगी, जब तक दर्शन नहीं सुधरेगा। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सर्व धर्मान परित्यक्त मामेकम शरणम ब्रज"-सभी धर्मों को छोड़ कर, एक मेरे ही शरण आ जा। श्रीकृष्ण शरीर की शरण नहीं, लेकिन अपने आपा, हमारे शरीर में ही स्थित आत्म चैतन्य के दर्शन कर, सब ओर, सबमें, समरूप से, उस नित्य, सत्य, मुक्त चैतन्य का दर्शन करना वही धर्म है, वही अहिंसा। फिर कैसे होगी हिंसा और कैसे करोगे अपना ही आहार। बाक़ी मर्ज़ी आपकी।
अहिंसा परमो धर्म:।
पूनमचंद
२३ मार्च २०२१
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