Saturday, January 4, 2025

Make Your Time Worth Your Time

यह सिद्ध योग पीठ की गुरुमाई चिद्विलासानंद का २०२५ के साल का संदेश हैः Make Your Time Worth Your Time : अपने समय को अपने लिए लाभप्रद बनाओ। 

मनुष्य जीवन कर्म आधारित है। इसलिए महाकाल के इस चक्र में कर्म करते रहना है। लेकिन कौनसा कर्म करना, अपना अपना चयन है। कर्म दो प्रकार से होते है। एक स्वार्थ के लिए और दूसरा परमार्थ के लिए। अपने और हमें जिसमें चाहना होती है वह परिवार के लिए किए गये कर्म, जिसमें ९९% लोगों के कर्म का घेरा सिमट जाता है। लेकिन कुछ कुछ लोग इस घेरे को तोड़ समूह, जाति, वर्ण, राज्य, देश, देशांतर तक बढ़ाते बढ़ाते वैश्विक हो जाते है। लेकिन यह तो लौकिक कर्म हुए। अलौकिक का पता नहीं रहा तो कैसे चलेगा? 

बौद्ध धर्म के फैलाव में यही बात प्रमुख थी। एक यान था हीनयान और दूसरा था महायान। हीनयान व्यक्तिगत उत्थान पर लक्ष्य रखता था जबकि महायान समूहगत। लेकिन व्यक्तिगत उत्थान के बिना समूहभान नहीं आता इसलिए व्यक्तिगत जीवन में सत्व और सत्य का प्रभाव बढ़ाने सम्यक जीवन जीना ज़रूरी है। इससे ह्रदय में पवित्रता बढ़ती है और पवित्र ह्रदय ही ईश्वर रूप होकर औरों को अनुग्रहित करता है। इसलिए अपने समय को अपने लिए लाभप्रद बनाना है। 

लेकिन लाभ कौनसा? बड़ा प्रश्न है। शिवोहम् का अथवा सांसारिक सुखों का? जिसके लिए प्रयास करेंगे वह मिलेगा। 

“कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती, करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्।”

पूनमचंद 

२ जनवरी २०२५

सनातन - कैवल्य

सनातन - कैवल्य 

पहले ह्रदय खोजो, 

फिर उसकी गुहा में उतरो, 

ज्ञानाग्नि से द्वैत मिटाओ,

आत्म स्वरूप में स्थित होकर,

कैवल्य पद - सनातन को प्राप्त हो। 

यही लक्ष्य है। 

तन-मन-बुद्धि साधन है। 

सबको भीतर उतार प्रपंच भेद मिटाओ।

आत्मा बिना आँख देखता है, 

बिना कान सुनता है।

उस प्रकाश - बोध को पहचानो। 

वह हम है। 

हमारे सिवा और कुछ भी नहीं। 


क़बूल हो। 

अनुभूत कर क़बूल हो। 

क़बूल हो।


पूनमचंद 

४ जनवरी २०२५

Friday, January 3, 2025

Hearsay Administration

Hearsay Administration 

तुम्हारा ख़ून ख़ून और हमारा पानी, a famous dialogue of Hindi film somehow applied to Indian bureaucracy. It has major three layers of hierarchy: permanent, semi permanent and temporary. The permanent staff is the lower bureaucracy recruited for the department, serve and retire mostly from the same department. The semi permanent are the top executive officers come and go with an average tenure of 2-3 years. The temporary are the elected representatives, the ministers who stay for the term of office. 

Lord Cornwallis the Governor General of Bengal is called the father of Indian bureaucracy as he introduced bureaucracy in India through Cornwallis Code. It took a new shape of governance with the Chartered Act of 1833 through which the Governor General of Bengal became Governor General of India and the government run by him referred as Government of India. Lord William Bentinck became the first Governor General of India in the end of 1833. The "Governor-General in Council" were given exclusive legislative powers. The act introduced a system of open competitions for the selection of civil servants. The East India Company rule was replaced by the British Crown in 1858 following the First War of Independence 1857. The British run the administration for 190 years till India became independence on 15th August 1947. With few changes in the names and jobs charts, the model of British bureaucracy continued in India post independence. It’s a constitutional bureaucracy of a welfare state is loyal to the Constitution of India. But the bureaucracy is made of humans does carry cultural burden of Indian heritage of castes and creed, though objective in principle turns subjective sometimes. 

It’s a hierarchical set up where officers are inducted at certain level grow higher up based on their performance reports and hearsay images. The Reporting Officer and Reviewing Officer have the right to evaluate their subordinate as the previous knows more from the first hand information and the later mostly dependent on the previous does keep check over subjectivity if any by the reporting officer. But other than these two, the rest are the lot of opinion builders through hearsay material sales fakelore of the market, make or mar the career of an officer. In a cadre of 300-400 officers, there are seniors, peers and subordinates. There are sub groups made of batches, regions or like minded individuals. Few of them may turn into कूथली केन्द्र, talk loose about other colleagues and spread false narratives of hearsay. One may argue that there is no smoke without fire, but true or false, an image builds of an officer other than his/her performance becomes a burden he/she carries in service and post retirement. 

The bureaucrats that way are more a bundle of colleagues rather than a group of friends. It is good to become colleagues so to become objective but its subjectivity through hearsay sometimes promote a rogue and discard aboveboard. One of the CMs used to say that PR works more than the performance in public administration. 


Punamchand 

3 January 2025

Monday, December 30, 2024

अहमदाबाद गुज़री बाज़ार का एक ग़रीब उद्यमी।

अहमदाबाद गुज़री बाज़ार का एक ग़रीब उद्यमी। 

अहमदाबाद में एक गुज़री बाज़ार है जो हर इतवार को लगता है। उसे रविवार बाज़ार भी कहते है। गुजरात का सुल्तान अहमदशाह जब यहाँ से गुज़र रहा था तब उसके कुत्ते का सामना यहाँ के ख़रगोश ने किया इसलिए सुल्तान ने अहमदाबाद शहर बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाया। इस अहमदाबाद का शिलान्यास जहाँ हुआ था इसी जगह सन १४१४ से हर रविवार गुज़री बाज़ार लगता है। पहले तो यह बाज़ार यहाँ अंग्रेज़ों ने बनाए विक्टोरिया गार्डन में लगता था लेकिन रीवर फ़्रंट बनने के बाद नई सड़क के किनारे बनी नई फुटपाथों पर लगता है। 

६१० साल हुए इस flee market को लेकिन उसका आकर्षण कम नहीं हुआ। यहाँ पुरानी चीज़ें ज्यादा और नई कम मिलती थी। अब नईं चीज़ें भी मिल जाती हैं। यहाँ कपड़े, पुस्तकें, घरेलू सामान, खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक्स, फर्नीचर, घड़ी, स्टोव, पालतू जानवर जैसे की बिल्ली, ख़रगोश, रंगबिरंगे पंछी और खानेवालों के लिए मुर्ग़े और बकरे वगैरह बिक जाते है। अहमदाबाद की फुटपाथ और ग़रीब बस्तियों की गलियों में जो खाने को मिले वह सब चीज़ें यहाँ मिल जाती है। ₹५ में एक गुलाबजांबू, ₹१० का कटलेट, ₹१० की एक कप चाय, ₹१० का चना चटपट, ₹१० की दूध की बरी, ₹१० का ज्यूस, ₹ २० का एक प्लेट भजिया, ₹१० का पान, ₹१० की एक मावा चिकी, ₹१० का क्रीम रोल, ₹६० की एक पैकेट टूटीफूटी केक, ₹७० में २५० ग्राम तिल गजक की कोई भी आइटम यहाँ मिल जाएगी। स्वाद तो असली होगा बस प्लेट काग़ज़ आम आदमीवाला होगा। 

मेरे लिए यह बाज़ार बचपन की धरोहर है जहाँ मैं अपने पढ़ने के शौक़ को पूरा करने पुरानी पुस्तकें खोजने चला आता था। मेरे घर से पैदल लगभग एक घंटा लगता था। एक घंटा जाना और एक घंटा आना तथा एकाद दो घंटे गुज़री में घुमने के, आधा दिन चला जाता था। लेकिन इतना सस्ता और कहीं नहीं मिल सकता था इसलिए मेरे छोटे पैर चल पड़ते थे। 

पिछले रविवार हम इस गुज़री बाज़ार गए थे। सुबह ११ बजे का वक़्त था। भारी भीड़ थी। डर लग रहा था कि कहीं किसी का इन्फ़ेक्शन लेकर वापस न जाए। फुटपाथों पर ढेरों सारा सामान बिक रहा था। बीच में चलने की जगह भी कम पड़ रही थी। पुस्तकें अब कम हो गई थीं और पुराने टूटे फूटे इलेक्ट्रॉनिक्स की बिक्री बढ़ गई थी। वैसे तो कुछ जमा नहीं, फिर भी रोटी और डोसा उतारने के दो तवे और एक चिमटी ₹५०० में मिली तो ले ली। एक कश्मीरी ड्राय फ्रूटवाला मिल गया। अखरोट, बादाम, काजू, केसर और शिलाजीत लेकर बैठा था। बाज़ार से सस्ता था लेकिन जैसे कश्मीरी बातों में होशियार होते हैं इसलिए ठीक से सौदा करना ज़रूरी समझा। स्वादिष्ट थे इसलिए कुछ ड्रायफ्रूट ख़रीद लिए। शिलाजीत पर भरोसा नहीं आया। 

अचानक मेरी नज़र एक स्टेन्ड पर पतीला रखकर खड़े युवा पर गई। पतीले में एक किलो जितने उबले देशी चने थे। बाहर दो-चार प्याज़ और टमाटर, कुछ निंबू, दो एक कच्चे आम, थोड़ा सा धनिया पत्ती, दो छोटी डिब्बीओं में मसाले, एक पतली सी दस रूपये की पट्टी-चाकू और न्यूज़ पेपर से काटें काग़ज़ के टुकड़े रखें थे। कुछ दोसों रुपये का सामान होगा।एकाध प्याज़, टमाटर, आम को वह बहुत ही बारीक काटके रखे हुआ था। जैसे ही वह कम होता पतली सी चाकू पट्टी से जैसे मिलिमीटर में काट रहा हो, बैसे बड़ी सफ़ाई से वह बारीक काट लेता था। कोई ग्राहक आता तो काग़ज़ के टुकड़े पर तीन चार टी स्पून उबले चने डाल कर  उपर्युक्त चीज़ों का ज़रा ज़रा सा उपयोग कर वह चने में स्वाद भर देता था।चम्मच भी काग़ज़ का एक मोटा टुकड़ा रहती थी। सिर्फ़ १० रुपये में वह मल्टी स्टार का स्वाद परोस देता था। मुझे बचपन याद आ गया। पाँच पैसे का चना आज ₹१० का हो गया था। लेकिन मुँह वह पुराने स्वाद की याद से भर गया था। झटपट ₹१० निकाला और चना चटपट का स्वाद ले ही लिया। 

वह युवा युपी से आया था। किराये के कमरे में दूसरे साथी के साथ रहता था। अपने हुनर और छोटी सी मूडी के ज़रिए वह अपना गुज़ारा कर लेता था। उससे बात करते करते मेरे बचपन में देखे हज़ारों परिवारों के चेहरे सामने आ गए। एक कमरे का मकान अपने नाम करते करते पूरी ज़िंदगी गुज़र जाती थी। साइकिल ख़रीदते तो फूलमाला चढ़ाते और नारियल फोड़ सबको प्रसाद बाँटते दिन याद आ गए। घर में पहली बार बिजली लगा तो मानो स्वर्ग उतर गया। जब बोस रेडियो ने गाना सुनाया तो उसकी आवाज़ उतनी ऊँची रखते थे कि आसपास के सब लोग सुन ले। 

एक तरफ़ मूडीवाद से अपनी संपत्ति बढ़ाता और दूसरी तरफ़ समाजवादी विचारधारा से वंचितो को विकास का लाभ बांट ग़रीबी कम करता नया भारत मेरे सामने था। ग़रीब भारत अमीरी के क़दम चल रहा है लेकिन दूसरी तरफ़ वह युवा का जीवन १९७०-८० के दशक में देखें युवाओं से कोई विशेष नहीं लगा। हाँ, उसके कपड़े साफ़ सुथरे थे, पैरों में चप्पल थी और हाथ में मोबाइल। भारत देश में ऐसे हज़ारों लाखों युवा अपना वतन, गाँव, माता पिता परिवार छोड़ अपने छोटे छोटे हुनर लिए पूरे भारत में जहाँ थोड़ी सी जगह मिल जाए, अच्छे जीवन की तलाश में खड़े मिल जाएँगे। 

भारत चमकना चाहिए। दमकना चाहिए। लेकिन वह चमक की रोशनी में हमारे देश के ग़रीब उद्यमी युवा नज़र अंदाज़ न हो जाए यह सावधानी रखनी होगी। भारत जनसंख्या में प्रथम और अर्थव्यवस्था में पाँचवाँ है लेकिन २.४% क्षेत्रफल पर विश्व की जनसंख्या के १८% भाग को शरण देता है इसलिए प्रति व्यक्ति आय में पिछड़ा है, विश्व में १४१ वे स्थान पर है। ग़रीब भारत उपर उठेगा तभी अमीर भारत की शान बढ़ेगी। 

पूनमचंद 

३० दिसंबर २०२४

Sunday, December 29, 2024

शुद्धात्मा।

शुद्धात्मा। 

भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं किः 

अव्यक्तादिनि भूतानि व्यक्तिमध्यानि भारत | अव्यक्तनिधानन्येव तत्र का परिदेवना || 2.28|| अर्थात्ः है भारतवंशी! सभी प्राणी (जन्म से पहले) अव्यक्त रहते हैं, मध्य (जीवन) में प्रकट रहते हैं और मृत्यु पर पुनः अव्यक्त रहते हैं। फिर शोक क्यों करें?

आगे कहते हैः.अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूतशयस्थित: | अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ​​||10.20|| अर्थात् मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं सभी प्राणियों का आदि, मध्य तथा अंत हूँ।

इस पृथ्वी पर जीवों के जन्म मरण का खेल हमारी आँखों के सामने चल रहा है। खर्बों आए और चलें गए। पंच तत्व से बने पुतलें प्रकट होते है. जीते हैं और फिर बिखर जाते है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों का यह खेल कहें या अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय शरीरों का बनना और बिगड़ना; सृष्टि में जीवों की उत्पत्ति, स्थिति और लय का यह सिलसिला अविरत चल रहा है। क्या यह प्रकृति का ही तो खेल नहीं?अव्यक्त प्रकृति विविध रूप लिए व्यक्त (प्रकट) होती हैं, उस रूप में खेलती हैं और फिर अव्यक्त (अप्रकट) हो जाती है। क्या उसमें रहा चालक चैतन्य प्रकृति खुद है या जैसे भारतीय दर्शन कह रहे हैं वह पुरुष है? भगवान श्रीकृष्ण उसे आत्मा कहते हैं जो सर्व प्राणियों के ह्रदय में निवास करता है और वह उनका आदि, मध्य और अंत है। अर्थात् जीव की आरंभ से लेकर अंत तक की यात्रा का वह सहचर है, चालक है। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर हमें आत्मा की खोज करनी है तो हमारी ह्रदय गुहा में करनी चाहिए। ह्रदय गुहा किसे कहते है? वह कहाँ है? उसमें कैसे प्रवेश करें? कैसे देखें? कौन किसको देखेगा? देखने से क्या होगा? इत्यादि प्रश्नों की श्रृंखला खड़ी हो जाएगी लेकिन मनुष्य के दिल में जो प्यास है, अशांति है, जो व्यग्रता है, उसका तब तक शमन नहीं हो सकता जबतक वह आत्मा की खोज कर अपने सच्चे स्वरूप की पहचान नहीं कर लेता। 

कल परिवार के साथ हम गांधीनगर के नज़दीक स्थित त्रिमंदिर गए थे। स्वच्छ, सुंदर मंदिर है और सात्विक भोजनालय है। हमने संध्या आरती में हिस्सा लिया और हॉल में लगाए विचार वाक्यों को पढ़ा और मंदिर के ज्ञानी पुरूष के जीवन पर बनी एक छोटी प्रदर्शनी को देखा और पढ़ा। 

वह पेशे से थे तो एक ठेकेदार, लेकिन बचपन से ही आत्मा और गुरु के विषय में संदेह करने और उसका समाधान खोजने की चित्त वृत्ति की वजह से वह तत्व चिंतन में लगे रहे थे। सहसा एक शाम जून १९५८ में जब वह रेलगाड़ी आने की प्रतीक्षा में स्टेशन पर लगी बेंच पर बैठे थे तब उनके ह्रदय में ज्ञान प्रकट। क़रीब दो घंटे के उस आंतरिक प्राकट्य ने उनके सारे प्रश्नों और सृष्टि रहस्य का समाधान कर दिया। उस प्राकट्य को ही उन्होंने ‘दादा भगवान’ अथवा ‘शुद्धात्मा’ नाम दिया है। वह कहते हैं कि वह व्यक्तिगत रूप से अब एक ज्ञानी पुरूष हैं और खुद भी आपकी तरह दादा भगवान की पूजा करते है। हममें और उनमें भेद बताते हुए वह कहते कि उनमें भगवान व्यक्त स्वरूप में हो गए और हम सबमें अभी वह अव्यक्त है। हम भी उस शुद्धात्मा तक पहुँच सकते है, हममें भी उसका प्राकट्य हो सकता है जिसके लिए मन के मैल हटाकर उस शुद्धात्मा की शरण में जाना होगा। उसको गुरु बनाकर उसकी आराधना पूजा करनी होगी। 

अब गीता संदेश और दादा भगवान की कथा दोनों को जोड़कर देखें तो कुछ बात स्पष्ट हो जाएगी। 

अद्वैत के पटल पर भले हम एक माने लेकिन व्यावहारिक पटल पर दो है। एक प्रकृति और दूसरा पुरूष। प्रकृति की कोख से जन्मा हमारा यह शरीर जन्म, विकास और मृत्यु की यात्रा कर अव्यक्त से व्यक्त और फिर अव्यक्त हो जाता है। लेकिन इस यात्रा में चालक चिनगारी आत्मा का क्या हुआ? हमारे पंच भौतिक शरीर, दस इन्द्रियां और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से हम अपनी अपनी योनी अनुसार आयु यात्रा कर लेते है लेकिन उसकी रोशनी जिस दीये से आ रही है उसका पता नहीं चलता। वही आत्मा गुडाकेश को जो हमारे ह्रदय की गुहा में बिराजमान है उसका ज्ञानी पुरुष अंबालाल पटेल की तरह प्राकट्य हो जाए यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य अथवा सार्थकता है, ऐसा अर्थ हम ले सकते है। 

सवाल उठेगा कि प्रश्नों की जो श्रृंखला चित्त में चल रही है उसका क्या? संदेह का समाधान न हो तब तक मान नहीं सकते और समाधान हुए बिना संदेह जा नहीं सकता। पेंच फँसा है। कैसे बाहर निकले? 

सत्संग में लगे रहिए और ह्रदय गुहा में बैठे शुद्धात्मा को पुकारते रहिए। उसे प्यार करें, दुलार करें, प्रार्थना करें। एक दिन प्राकट्य होना निश्चित है।जिस दिन हुआ फिर कभी जा नहीं सकता। एकबार घड़ी देख ली फिर कोई हटा भी ले उसका ज्ञान नहीं जाएगा। एक बार गुड़ खा लिया फिर उसके स्वाद का ज्ञान नहीं जा सकता। फिर यहाँ तो शुद्धात्मा का पूर्ण प्राकट्य है, कैसे अदृश्य होगा? पूरी चाल और चरित्र बदल जाएगा। एक दीया जला, दूसरे दीयों की लौ जलाने में लग जाएगा। 

दीया है, जल भी रहा है, बस हमनें अपनी तृष्णाओं से उस पर एक काला पर्दा लगा रखा है। उस पर्दे को हटाना ही कर्म है। जैसे पर्दा उठा वह ज्योति प्रकट है, प्राकट्य हो जाएगा। जीवन धन्य हो जाएगा। 

चलते रहो। 

पूनमचंद 

२९ दिसंबर २०२४


Saturday, December 28, 2024

आत्म व्याप्ति।

आत्म व्याप्ति। 

यह कहानी १९९६ की है। उस वक्त के एक प्रसिद्ध संत के आश्रम में मेरी भेंट एक समर्पित साधक से हुई और बाद में उससे घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। वह धीरे-धीरे खुलता गया और अपनी साधना के कुछ कुछ राज खोलता गए। 

एक दिन उसने मुझे बताया कि वह बहुत महिने तक गुरु मंत्र जाप करते करते और यम नियम का पालन करते करते थक रहा था। योग वशिष्ठ का पाठ भी नियमित कर रहा था। लेकिन जिसे साक्षात्कार कहते हैं वैसा कुछ घटित नहीं हो रहा था। इसलिए एक दिन जब उनके गुरुजी आश्रम में थे तब उसने हठ कर ली कि आज या तो साक्षात्कार होगा अथवा इस शरीर का त्याग। आश्रम में एक वटवृक्ष था। श्रद्धालु उस पेड़ की प्रदक्षिणा कर अपनी मन्नत मानते थे या पूरी करते थे। मेरा मित्र भी सुबह होते ही उस पेड़ की प्रदक्षिणा करने लग गया। आधा घंटा, एक घंटा, दो घंटे, चार घंटे, भूखा प्यासा वह बस घूमता रहा। मन में एक ही दृढ़ संकल्प कि आत्म साक्षात्कार करना है। पूरा दिन चल गया। शाम होने लगी। आश्रमवासी पहले तो इस धटना को सामान्य देख रहे थे लेकिन आज जिस प्रकार वह चल रहा था सबको ताज्जुब हो रहा था। एक दूसरे को पूछते थे इसे आज क्या हो गया है? बात उनके गुरुजी तक पहुँची। उन्होंने उसे बुलाया। लोग पकड़ के ले गए। गुरुजी ने उसकी आँखों में आँखें डालकर पूछा, क्या चाहिए? उसने कहा आत्मसाक्षात्कार। गुरुजी ने कुछ हलके से कहा और उसे सँभालकर ले जाने को कहा। लेकिन वह फिर वापस गया और पेड़ की प्रदक्षिणा करने लगा। सहसा उसने अनुभव किया कि उसकी अपनी चेतना का विस्तार होने लगा। आसपास के लोग, आश्रम, शहर, मंडल, देश, पृथ्वी, अंतरिक्ष सब को पार करता वह बड़ा होता चला गया। फिर तो सूरज, चाँद, सितारे भी समाने लगे। उसकी मनोस्थिति आह्लादित हो चूकी थी और बड़े अचरज से वह अपना विस्तार देखता रहता था। उसके अंदर का लघु मनुष्य और उसकी नाम पहचान ग़ायब हो चूकी थी। वह चैतन्य व्याप्ति की उस सफ़र में था जहाँ उसे सबकुछ अपना ही विस्तार नज़र आता था। पृथ्वी मानो एक गेंद की तरह थी। उसकी इसी मनोस्थिति में आश्रम के उसके मित्र उसे पकड़कर इधर उधर ले जाते, खाना खिलाते लेकिन वह कुछ बोलता नहीं था। बस मुस्कुराते चेहरे से बिना पलक झपकाई आँखों से चारों और देखता रहता था। मित्र लोग जो खिलाएँ खा लेता था जो पिलाएँ पी लेता था। वह सो नहीं पा रहा था और आश्चर्यचकित होकर इधर उधर देखता रहता था। उसकी यह अनुभूति ढाई दिन तक बरक़रार रही। उसके मित्रों ने हार थककर उसे किसी होटल में ले जाकर कुछ बाहरी सामान खिलाया। खाने के बाद वह गहरी नींद में सो गया। जब उठा सामान्य हो गया। उसकी अनुमति ग़ायब हो गई। उसके बाद पूरे जीवन उसने उस अनुभूति को पाने का भरपूर प्रयास किया, सब तरह के प्रयत्न किए लेकिन उसे वापस हासिल नहीं कर पाया। कुछ साल हुए उसकी मौत भी हो गई। योग वसिष्ठ में वसिष्ठ मुनि सूक्ष्म शरीर के ज़रिए अंतरिक्ष को लाँघ भिन्न भिन्न सृष्टियाँ देखते गमन कर रहे थे यह कहानी उसने बार-बार पढ़ी हुई थी। इसलिए शायद उसे आत्म व्याप्ति का उपर्युक्त अनुभव हुआ हो। 

लोग आत्मसाक्षात्कार के भिन्न भिन्न अर्थ करते है। कोई कहता है ज्ञान हो जाता है। कोई कहता है कि अज्ञान दूर हो जाता है। कोई कहता है कि उसकी आँखों की पलक झपकना बंद हो जाती है। कोई कहता है कि वह जब आँख मुँद लेता है तो अंदर की दुनिया में और खोलता है तब बाहर की दुनिया से जुड़ जाता है। कोई कहता है कि वह चिद्, आनंद, इच्छा, ज्ञान और क्रिया से भरा पूर्णोहं हो जाता है। उसकी पंच शक्ति अमर्यादित होने से वह अपने संकल्प से इच्छानुसार सृजन, पालन, विसर्जन, निग्रह, अनुग्रह कर सकता है। कोई कहता है कि वह अपने को सारे ब्रह्माण्ड में सारे ब्रह्माण्ड अपने में व्याप्त अनुभव करता है।कोई कहता है कि जब रात होती है तो उसका स्थूल शरीर बिस्तर पर होता है लेकिन वह गगन विहार कर लेता है। कोई कहता है कि उसने मुझे दर्शन दिए। कोई कहता है कि वह चाँद में आकृति बन बैठ गया। यहाँ तरह तरह की कहानियाँ सुनने को मिलेगी। 

लेकिन साक्षात्कार हुआ या नहीं यानि क्या हुआ वह होनेवाले के सिवा और कोई कैसे बताएगा? जिसने गुड खाया नहीं वह गुड़ के गुणगान कितने भी सुन लें, गुड़ का स्वाद नहीं पा सकता। हाँ उसकी आर्द्रता, द्रवता, दया, करूणा, प्रेम, अशत्रुता के गुणों को देखकर हर कोई कह सकता है कि वह बदल गया है। उसने वास्तव में कुछ ऐसा पाया है, कुछ ऐसा अनुभूत किया कि पुराना वह मिट चुका है और नित्य नवीन वह सबका हो चुका है। अपनी लघु चेतना से बाहर निकल वह सर्व व्यापक, सर्व समावेशी अनंत चेतना स्वरूप हो चुका है। जब एक ही हो गया तो किसका विरोध करेगा और किससे बैर? अखंड आनंद कूटस्थ घन शिव ब्रह्म  वह अमृतसर है, गंगा है, जिसका सानिध्य मिल जाए तो पूरा नहीं तो भी गुड़ की सुगंध का स्वाद मिल जाता है। उसके गुणों को देखकर कुछ अपने गुण विकसित होना शुरू हो जाते है। शनैः शनैः हमारी भी आत्मसाक्षात्कार यात्रा शुरू हो जाती है। कुछ तो है जो मिले बिना आत्म प्यास नहीं बुझती। सदा सर्वदा सर्वकाल मौजूद। एक परमाणु जितना अंतर नहीं और एक त्रृटि जितनी दूरी नहीं। चले चलो। 

पूनमचंद 

२८ दिसंबर २०२४

Friday, December 27, 2024

आत्म संकोच।

आत्म संकोच। 

सृष्टि के रहस्य को खोजने कई संस्कृतियां सदियों से लगी है। वैज्ञानिक स्टीन्ग्स, फ़ोटोन और गॉड पार्टीकल तक पहुँच गए लेकिन चेतना का पता नहीं लगा पाए। बायोलॉजीस्ट्स डीएनए आरएनए के पार नहीं निकल पा रहे है। लेकिन प्राचीन भारतीय दर्शन परंपरा ने उसका सत्य अर्थ करने का भरपूर प्रयास किया है। 

दर्शनों की श्रृंखला में एक दर्शन है कश्मीरी शैवों का। हल्का सा भिन्न है शंकराचार्य के अद्वैत से। अद्वैतवाद माया को मिथ्या कहता है और कश्मीरी शैव सत्य। एक तरफ़ सांख्य के २४ प्राकृतिक तत्वों और पुरुष से बनी सृष्टि है वहाँ कश्मीरी शैवों की ३६ तत्वों की दुनिया है। परम का प्राकट्य यह विश्व है जो आत्म संकोच से बना है। शिव से पृथ्वी तक अवरोह क्रम से संकोच बढ़ता गया और रंगमंच और नाटक सजता गया। 

भौतिक वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है की यह विश्व एक ऊर्जा ही है जो पदार्थ भी बना हुआ है। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी का पंचीकरण कुछ इसी बात को समझाता है। पदार्थ का संकोच तो समझ में आता है लेकिन वह चेतना का ही संकोच है यह क़बूल करने में अभी वक्त लगेगा। परंतु पृथ्वी पर जो चैतन्य सृष्टि है उसमें भी आत्म संकोच स्पष्ट नज़र आता है। ८४ लाख योनियों में पनप रही जीव सृष्टि एक कोशिकीय से लेकर करोड़ों कोशिकाओं से बनें है। कोई जीव एक इन्द्रिय है, कोई दो, कोई तीन, कोई चार और मनुष्य सृष्टि पाँच ज्ञानेन्द्रियों से बनी है। इन्द्रियों के पीछे उसके चालक मन और बुद्धि हर कोई जीव में उसके जीवन क्रम को चलाने सही प्रोग्रामिंग करके बैठाए हुए है। हर योनि को अपना प्रोग्राम चलाने शरीर मिला हुआ है। अकस्मात और आपत्तियों को छोड़ सबकी अपनी अपनी जीवन रेखा बनी है जो क़ुदरती क्रम से जन्मता है, पनपता है और बिखर जाता है। हर जीव के चेतना प्रवाह को देखकर उसके संकोच और मर्यादा का पता चल जाता है। कुछ हद के बाहर उसके कर्म और शक्ति की मर्यादा आ जाती है। वही तो आत्म संकोच है। मनुष्य योनि में भी ८०० अरब लोग एक जैसे नहीं है। हर कोई का मन बुद्धि अलग होने से और शारीरिक रचना में भौगोलिक स्थान अनुरूप ताक़त और कमजोरी के चलते भिन्नता नज़र आती है। चेतना के संकोच और विस्तार के स्तर से कोई ज्यादा बुद्धिमान तो कोई कम नज़र आता है। हर किसी के आत्म संकोच का स्तर अलग-अलग  है। इसलिए आत्म विस्तार की सबकी यात्रा का आरंभ बिंदु अलग-अलग है। 

गंतव्य सबका एक है, अपने सच्चे आत्म स्वरूप का पूर्णोहं अनुभूत करना लेकिन वहाँ पहुँचने से पहले कब यह चेतना का तार इस शरीर से विमुक्त हो जाए पता नहीं। इसलिए पुनर्जन्म की बात आई कि आपका चला विफल नहीं जाएगा। जहाँ से अटके हो फिर एक नए साधन-शरीर से यात्रा आगे चलेगी। चले चलो का नारा एक दूसरे को इस पथ पर चलते रहने में ऊर्जा देता रहता है। वैसे भी सौदा फायदे का है। जितना जितना आत्म संकोच कम होता जाएगा और व्याप्ति बढ़ेगी, अपना ह्रदय विस्तारित होता जाएगा, जिसमें सर्व समावेशी वृत्ति का विकास होगा जो ब्रह्माकार अथवा शिवाकार तक ले जाएगी। वर्ना एक तरफ़ बात करेंगे आत्म विस्तार की और दूसरी तरफ़ वर्ण, जाति, धर्म में मनुष्यता को विभाजित कर आत्म संकोच बनाए रखेंगे तो काम नहीं बनेगा। 

सब शिव ही है, शिव का शक्ति रूप प्राकट्य है, लेकिन पहचान जो छिप गई है उसे उजागर करने जो चले हैं उनका ध्यान मंजिल से भटकना नहीं चाहिए। ‘न शिवम् विद्यते क्वचित्’ कहकर सब शिव हैं इसलिए मैं भी शिव हूँ, यह मानसिक अभिमान आ सकता है लेकिन शिवत्व नहीं। प्रत्यभिज्ञा करनी है तो आत्म संकोच दूर करने के मार्ग पर लगे रहना है। विशेष मिट सामान्य और सर्व समावेशी होते जाना है। जब शिव को विरोध नहीं, शक्ति को विरोध नहीं, फिर भला आप और हम कौन? चले चलो। मुक्ति का द्वार हमारे भीतर है। 

पूनमचंद 

२७ दिसंबर २०२४

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