भारत का इतिहास पुराणों और महाकाव्यों में बंद है लेकिन मेगस्थनीज़ की इंडिका (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी), और एरियन की इंडिका (दूसरी शताब्दी ईस्वी) और सम्राट अशोक के शिलालेख (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी) उसके गवाह है। मनु का वर्णाश्रम समाज कब आगे बढ़ा कहना मुश्किल है लेकिन मेगस्थनीज़ ने जो देखा था और एरियनने जो सुना था वह समाज सात समूहों में कार्य विभाजन कर चल रहा था। सात समूहों में छोटी संख्या में सही लेकिन विशेष वर्ग के रूप में ब्राह्मण और श्रमण थे।दूसरा नम्र वर्ग था कृषकों का जिन्हें सैन्य सेवा से मुक्ति थी। तीसरा वर्ग था पशुपालकों और शिकारीओं का जो घूमता रहता था। जो गोधन पालते थे और जंगली जानवरों से खेतों की रक्षा कर बदले में अनाज प्राप्त करते थे। चौथा वर्ग कारीगरों का था जो व्यापार और शारीरिक श्रम के कामों में जुड़े थे। उनमें हथियार बनानेवाले और जहाज़ बनानेवाले थे। पाँचवाँ वर्ग सैनिकों का था जो युद्ध होता तो लड़ते बाक़ी पीते और पड़े रहते। राजा के खर्चे से उनका निभाव होता इसलिए बुलाया आता तो अपना शरीर लेकर चले जाते। हथियार, घोड़ा इत्यादि राजा देता। छठा वर्ग ओवरसियरों का था जो समग्र व्यवस्था पर देखरेख रखते थे और राजा को रिपोर्ट करते थे। कुछ निरीक्षण कार्यों में लगे थे। सातवाँ वर्ग राजा के सलाहकार और आंकलन (कर) करनेवालों का था। उनमें से सरकार के उच्च पदों पर बैठे अधिकारी, न्यायाधीश इत्यादि होते थे। वे बाज़ार, शहर, सैनिकों पर निगरानी रखते थे। कोई नदी के पानी के उपयोग का नियंत्रक तो कोई ज़मीन को नापनेवाले थे। वे कर वसूली करते थे। वे रास्ते बनवाते और हर २००० गज (एक कोस) पर अंतर का नाप का पिलर खड़ा करते थे। शहर व्यवस्था छह संस्थाओं के अधिकारी करते जो उद्योग, विदेशियों का आतिथ्य, जन्म-मृत्यु पर पूछताछ, व्यापार, वाणिज्य और तौलनाप, उत्पादों की देखरेख, १०% करवसूली करते थे। करचोरी की सज़ा मृत्युदंड था। शहरी तंत्र सार्वजनिक स्थानों, बिल्डिंग, बाज़ार, बंदरगाह, मंदिरों का मरम्मत इत्यादि करता। मिलिटरी के छह डिविज़न रहते जो सुरक्षा, सैनिकों, सैन्य परिवहन, राशन, घोड़े, हाथियों, रथों, हथियारों के व्यवस्था संचालन को देखते।
शिकारी और जंगली हाथी को पालतू बनानेवाला अर्धजंगली समाज का सामाजिक स्थान नीचे रहा होगा। अपने जाति समूह के बाहर शादी करना और व्यवसाय परिवर्तन करने का प्रतिबंध था। एक से ज्यादा व्यवसाय करने पर पाबंदी थी। सिर्फ़ दार्शनिकों (ब्राह्मणों) को इन प्रतिबंध और पाबंदियों से मुक्ति थी। कारीगर वर्ग का महत्त्व था। बुरे कर्म की सजा सर गंजा कर मिलती थी लेकिन कारीगर के हाथ अथवा आंख को नुक़सान करनेवाले को मृत्युदंड मिलता था। पुत्र बचपन से स्वाभाविक ही अपने पिता के व्यवसाय को सीखेगा इसलिए जन्म से ही कार्य विभाजन से जाति/समाज विभाजन बना हुआ था, जिसमें से ब्राह्मणों के अलावा और किसी को अपना पेशा बदलने की छूट नहीं थी।
पूरे भारत के अलग-अलग शहरों क़स्बों में कोई न कोई विशेष जनजाति का अधिपत्य था। ऐसा लग रहा था कि कहीं कहीं स्थानीय और कहीं कहीं बाहर से आकर आधिपत्य जमानेवाली कौमो नें अपनी अपनी जगह बना ली थी। एक तरफ राजा और उसके क्षेत्र में रहनेवाले कार्य विभाजन से सात समूहों में काम करनेवाले बस्ती समूह थे और दूसरी तरफ विचित्र शारीरिक और मानसिक लक्षणोंवाले मनुष्य समूह थे जो जंगलों और पहाड़ों में रहते थे। हिमालय की अंदरूनी गुफा-झोपड़ियों में पिग्मी रहते थे जो २७ इंच ऊँचाई के थे। वे वसंत ऋतु में तीर कमान लेकर बकरियों और भेड़ों की पीठ पर चढ़कर आके थे और क्रेन के अंडों को फोड़ देते और उनके चूजों को मार देते थे। क्रेन विशालकाय पक्षी होते थे और उनसे पिग्मीओं की जान को खतरा बना रहता था।हर साल तीन महिने इनको यह अभियान चलाना पड़ता था। उनकी झोपड़ियां अंडों के छिलके और क्रेन के पंखों से बनी होती थी। ज़्यादातर लोगों का आयु काल चालीस वर्ष था। लेकिन पंडोरे नाम की एक पहाड़ी प्रजाति २०० साल जीतीं थी। उनके जन्म के सफेद बाल बुढ़ापे में काले हो जाते थे। मंडी नाम की जाति की महिला सात साल की आयु से बच्चे पैदा करती थी और चालीस वे साल बूढ़ी हो जाती थी। कुछ प्रजाति का मुँह कुत्ते जैसा था और वे भोंककर बातें करते थे। कोई प्रजाति को पैर की एड़ी आगे और अँगूठे पीछे आठ अंगुलियोंवाले होते थे। कोई प्रजाति के नाक नहीं थे सिर्फ़ साँस लेने दो छेद रहते थे। कोई प्रजाति भोजन नहीं करती थी सिर्फ़ फल सूँघकर जी लेती थी। लगता है आखरी तीन प्रजातियों के बारे में उसने किसी पौराणिक कथा से सुना होगा। हिमालय के पर्वतों में पूर्वी पहाड़ी मैदान के ३००० स्टेडीया क्षेत्र में देरदाइ नामकी एक प्रजाति रहती थी जो लोमड़ी की साईज़ की चींटियों ने खोदी बिल की मिट्टी से सोना निकाला करती थी।
सात जाति समूहों में दार्शनिकों का स्थान और जीवन विशिष्ट था। वे मुख्यतःब्राह्मण और श्रमण वर्ग में विभाजित थे। इंडिका के उपरांत अशोक शिलालेख भी इन दो समाज के आदर की बात करते हैं।
ब्राह्मणों में बच्चे का गर्भाधान होते ही माता को सूचना शिक्षा देकर संस्कारित कर बच्चे के विकास के प्रति जागरूकता थी।जो माता सुनती वह नसीबवाली बनती। बच्चे के जन्म के बाद शिक्षा और ब्राह्मण कर्म की कुशलता प्राप्त करने विद्वानों से शिक्षा ग्रहण करने शहर के बाहर गुरुकुल जैसा संकुल होता था। वहाँ शाकाहार था और शिक्षक ब्रह्मचारी थे जो घास अथवा हिरन के चमड़े पर सोते थे और बोलकर शिक्षा देते थे। बिना विक्षेप उनको ध्यान से सुनना विद्यार्थी का दायित्व था। ७+३० साल की शिक्षा के बाद उनका सांसारिक जीवन शुरू होता था। हाथ में अँगूठियाँ, कान में बाली, खाने में मांस और ज्यादा बच्चे पैदा करने एक से ज़्यादा शादियां सांसारिक जीवन की समृद्धियाँ थी। घर में नौकर नहीं होने से बड़े परिवार में बच्चे बहुत काम आते है।
ब्राह्मण अपनी पत्नी से ज्ञानचर्चा नहीं करता था। मृत्यु बोध उन्हें जीवन के प्रति अनुशासित रखता। संसार स्वप्नवत् मानकर वे मृत्यु की तैयारी में रहते। जन्मा है उसका मृत्यु अवश्यम्भावी है। कोई त्यागी जीवन से संतुष्ट हो जाता तो ज़िंदा चिता पर लेट जलकर अपना देह त्याग देता था। वे शाकाहारी थे और भगवान के नाम का जाप करते रहते थे। राजा और यजमान के लिए यज्ञ और बलिदान विधि करते थे। वे भगवान और आत्मा को मानते थे।वे मानते थे कि आत्मा को सर्जनहार ने भेजा है जो अपने शरीर रूपी वस्रों से प्रकट होती है। बुद्धि उसका पहला अंदरूनी वस्त्र है। उसके उपर मन का मानसिक शरीर/वस्त्र है जो बुद्धि को अंगों से जोड़ता है। भौतिक शरीर उसका तीसरा वस्र है जिसके अंगों का उपयोग कर मन बुद्धि जीवन जीतें/भोगते है। जब भौतिक शरीर नष्ट होता है तो आत्मा दूसरे भौतिक शरीर को अथवा अपने उद्गम भगवान को प्राप्त होती है। भगवान को प्रकाशरूप माना है। वैसा प्रकाश नहीं जैसे सूरज का अथवा अग्नि का। शब्द प्रकाश। विद्वान दार्शनिक के मुख से जो ज्ञान शब्दों से प्रवाहित होता है वह भगवान, जो ज्ञान स्वरूप है। वे मानते थे कि मनुष्य जीवन तीन वस्त्रों में बँधा एक युद्ध क़ैदी है। जिसे काम. क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इत्यादि षड्रिपु से युद्ध कर उसे परास्त कर विजय पाना है। उनके जीवन का यही लक्ष्य बना रहता था। नाम जप, यज्ञ और आंतरिक शत्रुओं के प्रति सजाग रहकर उसे जितना और फिर शरीर छूटे तब उसके उद्गम की ओर चल देना। जैसे मछली पानी से बाहर निकलकर सूर्य किरण को देख लेती है वैसे ही शरीर छूटते ही परमात्मा के तेज पूंज को देख उसमें विलीन हो जाना।
जो ब्राह्मण पहाड़ों में रहते वे डीयोनीसोस की पूजा करते। वहाँ के अंगूरों की वाईन (सोमरस) बनती। वे ब्राह्मणों के रिवाज पालते। मस्लीन पहनते, पाघ बाँधते, इत्र छिड़कते, चमकीले रंगीन कपड़े सजाते, और उनके राजा के आगे नगाड़े और घंटे बजते। मैदानों में रहनेवाले ब्राह्मण हेराकल्स की पूजा करते। ब्राह्मण कर्म जन्म से नियत होने से और परमात्मा का ज्ञान उपदेश उनके मुख से होने की वजह से आगे चलकर उन्हें देव कहा जाने लगा होगा और उनके आध्यात्मिक और भौतिक शरीर को एक विशेष दर्जा प्राप्त हुआ होगा। यहां डीयोनीसोस को शक्ति या वीर पूजा और हेराकल्स को विष्णु-कृष्ण-शिव पूजा सुचित कर सकते है।
जो श्रमणिक थे वे बस्ती से दूर रहते थे। कोई नंगे तो कोई पेड़ की छाल के वस्त्र पहनते थे। जिनका ज्यादा आदर था वे hylobioi (सिद्ध) कहलाते। वे जंगलों में रहते और कंदमूल, फल और पानी (हाथ से लेकर) से अपना गुज़ारा करते।जानवरों का मांस और आग में पका खाना उनको वर्जित था। घटना, दुर्घटना के लिए राजा उनसे परामर्श करते और उनके द्वारा दैविक पीड़ा शांत करवाने पूजा करवाते। सिद्धों के बाद चिकित्सकों का समूह था जो मनुष्य की प्रकृति का अध्ययन कर उपचार खोजता। वे भिक्षा माँग कर चावल और जौं से अपना गुज़ारा करते। वे चिकित्सा ज्ञान से गर्भ में बालक की जाति का परिक्षण कर लेते थे। ज़्यादातर उपचार वे भोजन नियंत्रण और परहेज से करते, और उपचार में मरहम और प्लास्टर होते। महिलाएँ श्रमणों से ज्ञान लेती लेकिन व्यभिचार से दूर रहती। श्रमणो का एक समूह बुध के उपदेशों पर चलता था। बुध को वह उनकी शुचिता के कारण भगवान का आदर देते थे।
मेगस्थनीज़ लिखता है कि प्रकृति के बारे में ग्रीक दार्शनिकों ने जो कहा है उसका दावा भारतीय ब्राह्मणों और सीरिया के यहूदियों ने भी किया है। सिकंदर ने जब हिंद पर चढ़ाई की तब उसे ऐसे ही किसी दार्शनिक से मिलने की चाह थी। ६४५१ साल पहले उसके १५४ वें पूर्वज बाकूस (Bacchus) ने सबसे पहले भारत को जिता था। अब उसकी बारी थी। वह यूनानी अरिस्टोटल का शिष्य था। उसे विश्व विजयी तो बनना था साथ में जीवन के रहस्यों से रूबरू होना था। भारत नागा साधुओं के लिए प्रसिद्ध था। उसे किसी एक से मिलने की ख्वाहिश थी। पोरस को जितने के बाद जब वह तक्षशिला की ओर आगे बढ़ा तो मार्ग में नागा साधु समूह के मुखिया नागा दंडामि को मिलने बुलाया। दंडामि ने मिलने से मना कर दिया। संदेशवाहक को बताया कि सिकंदर के पास उसको देने कुछ नहीं है। अगर वह ज़िंदा रहा तो भारत भूमि पर्याप्त हवा, पानी और भोजन देगी; और अगर मारा गया तो बूढ़े हुए शरीर छूटकारा मिलेगा और अच्छे और नये शुद्ध जीवन को प्राप्त करेगा। सिकंदर को भी एक दिन मरना है। वह शरीर को मौत दे सकता है लेकिन वह भगवान नहीं है। भगवान जीवन देता है और जीवन की सुरक्षा के लिए हवा, जल और भोजन। वह कितना भी प्रदेश जीते कुछ भी नहीं। देश इतने बड़े हैं कि कईं लोग उसे जानते भी नहीं। सिकंदर समझ गया, सँभल गया। साधु को उसने नहीं मारा। सोच में पड़ गया और गंगा की ओर आगे बढ़ने के बदले वापस लौट गया। वह जब सो रहा था तब विश्व विजय की दौड़ में था, और जब जागा चल बसा।
डॉ. पूनमचंद
२६ मई २०२५
Monday, May 26, 2025
Thursday, May 15, 2025
પાડાના શિંગડા એક ઓઠું
ઉત્તર ગુજરાતના સમાજનો ૧૯મી અને ૨૦મી સદીનો ઈતિહાસ જોઈએ તો નાનકડી ખેતી અને મજૂરીકામની વચ્ચે જે દિવસો બચે તેમાં તહેવારો, લગ્ન જેના શુભ પ્રસંગો અને વસ્તી, તડ, પરગણાંનાં જમણનાં પ્રસંગો ઉજવાતા. સ્ત્રીઓ તો બધાં પ્રસંગના કામોમાં લાગી જાય પરંતુ પુરુષો નવરાધૂપ એટલે પંચાતીમાં લાગી જાય. બધાંને બીજાની વાત કરવામાં અને સાંભળવામાં ઘણો આનંદ આવે. તેમાંય ઓઠું માંડીને વાત કરાય તો તેમાં રસ વધુ પડે અને જીવનની શીખ મળે.
એક ગામની વાત છે. ગામમાં એક તળાવ. તળાવમાં ઢોર બધાં પાણી પીવા જાય અને પાણિયારીઓ પણ ઘરના પાણી માટે માટલાં અને બેડાં ભરી લાવે. એ ગામમાં હીરા પટેલનો પાડો બહુ જબરો. સતાધારના પાડા જેવો મોટો અને વિશાળકાય. તે કાયમ તળાવના રસ્તે જતાં વચ્ચે સાંકડી કેડી પડે એમાં બેસી જાય. તે મારકણો તેથી તેને હટાવવાનું ગજું કોઈનું નહીં. કોઈક છોકરો પછી દોડીને હીરા પટેલને બોલાવવા જાય અને પટેલ આવે ત્યારે પાડો ખસે. પાડો જ્યાં બેસતો તે ખેતરના સેઢે એક ખેડૂત પશાભાઈનું ખેતર. તેમને ખેતર જતાં આ પાડાનો અટકાવ એટલે હીરો પટેલ આવે ત્યાં સુધી એકાદ કલાક જેવી તેમને વાટ જોવી પડે. આ તો રોજનું થયું. કેમ કરીને રસ્તો કાઢવો? તે પાડાની સામે જોઈ રહે અને ડાબેથી નીકળું કે જમણેથી મારગ વિચારે. પરંતુ પગદંડી તસોતસ અને બંને બાજુ કાંટાળી વાડ એટલે પાડો કૂદીને જવા સિવાય કોઈ રસ્તો ન જડે. જો જરાક આગળ વધે તો પાડો પાડી દે. એમ જોતાં જોતાં તેમની નજર પાડાના વાંકા શિંગડા તરફ પડી. બે શિંગડા સરસ મજાનાં, અર્ધ ચંદ્રાકારે એકબીજાને જોડાયેલાં જેની વચ્ચે એક માણસ પસાર થાય તેટલું બાકોરું દેખાય. પશાભાઈ રોજ પાડાને જુએ અને શિંગડાનું બાકોરું જુએ અને પોતાના શરીર સામે અમે વિચારે કે આ બાકોરાંથી પાડાને ઓળંગી જવાય કે નહીં. એક દિવસ, બે દિવસ નહીં પરંતુ આખી એક સીઝન વિચાર્યું. પછી એક દિવસ મન મક્કમ કરીને તેમણે નિર્ણય કરી લીધો. ઘેરથી ખેતરે જવાં નીકળ્યાં અને પાડાની સામે આવીને ઊભા રહ્યાં. આજ તો બસ પાડો પાર કરવો જ છે. એમણે તો હડી કાઢીને દોટ મૂકી અને જેવો પાડાના શિંગડામાં દાખલ થવા પ્રયત્ન કર્યો કે પાડો ભડકીને ઊભો થયો અને શિંગડામાં ભરાયેલા પશાભાઈના ભુક્કા કાઢી નાંખ્યા. ગામલોકો દોડીને ભેંગા થઈ ગયા. માંડમાંડ પાડાના શિંગડામાંથી પશાભાઈ ને બહાર કાઢ્યા અને દવાખાને લઈ ગયા. દાખલ કરવા પડ્યાં. પાટાપિંડી થઈ. ચારેક દિવસ પછી ઘેર લાવ્યા. અડોશીપડોશી અને સગાવ્હાલાંનો ખબર કાઢવા તાંતો લાગ્યો. જે આવે તે બધાં એક જ વાત પૂછે, પશાભાઈ કંઈક વિચાર તો કરવો હતો? ભલાદમી પાડાના શિંગડામાંથી તે કંઈક નિકળાય? પશોભાઈ પહેલાં તો મૌન રહ્યાં પરંતુ જે આવે તે એક જ વાત પૂછે તેથી અકળાઈ ઉઠ્યાં અને બોલ્યાં, મેં એક આખું વરસ વિચારીને આ પગલું ભર્યું છે. રોજ પાડાને અને તેનાં શિંગડાંને જોતો અને વિચારતો કે તેમાંથી કેવી રીતે બહાર જવાય? મેં કંઈ વિચાર્યા વિના પગલું ભર્યું નથી.
આપણું પડોશી પાકિસ્તાન ચાર વાર હાર્યું છતાં તેનો પાડાના શિંગડામાંથી બહાર નીકળવાનો વિચાર જતો નથી. આ વખતે પાંચમીવાર પણ તેનો ભુક્કો નીકળી ગયો. આ વાર્તાના પશાભાઈ આપણામાંથી પણ ઘણાં હશે. જીવનમાં ક્યારેક તો પશાભાઈના જેવો પાડાના શિંગડામાંથી નીકળવાનો અખતરો જરૂર કર્યો હશે. જો ના કર્યો હોય તો ના કરતાં, નહિતર ભુક્કા બોલી જવાના એ નક્કી. 😂
Tuesday, May 13, 2025
सिंधु दरिया।
तिब्बत-चीन के कैलाश क्षेत्र के राकस ताल और मान सरोवर के नज़दीक स्थित बोखर चू हिम शिखर से निकलकर लेह-लद्दाख से हिंदुस्तान में प्रवेश कर उत्तर-पश्चिम की ओर PAK के गिलगित बाल्टिस्तान होकर नंगा पर्वत से बायीं मुड दक्षिण पश्चिम में पाकिस्तान में बहती हुई कराची नज़दीक अरबी समुद्र में मिल जाती है। पहले कभी वह कराची से पूर्व कच्छ के रण में समाप्त होती थी। 3610 किलोमीटर लंबी इस नदी तिब्बत-चीन से भारत में होकर पाकिस्तान में बहती है। सिंधु नदी उद्गम स्थल पर सिंह की दहाड़ जैसी आवाज करती है इसलिए इसे जन्म स्थान पर सेंघी कानबाब (lion’s mouth) कहते है। सेंघी-सिंघ ही अपभ्रंश होकर सिंधु बना है। सिंधु को भारत से देखना हो तो लेह-लद्दाख जाना पड़ेगा। सोनमर्ग के पास जो नदी बहती है वह सिंधु नहीं अपितु सिंद हैं जो झेलम की सहायक नदी है और शादीपोरा में जाकर उसे मिल जाती है।
भारत में नदी को स्त्री लिंग और पाकिस्तान में इसे पुलिंग दरिया कहते है। सिंधु नदी को दाहिनी तरफ से और बायीं तरफ से सहायक नदियाँ मिलती हैं और उसकी जलराशि बढ़ाती है। सिंधु को दाहिनी तरफ से मिलनेवाली नदियों में श्योक, गिलगित, बुंदा, स्वात, कुन्नार, कुर्रम, गोमल, टोची, और काबुल है। बायीं तरफ से मिलनेवाली सहायक नदियाँ जास्कर, सुरू, सुन, झेलम, चिनाब, रावी, ब्यास, सतलुज है। दो नदियों के बीच स्थित और संगम तक पहुँचनेवाला भूमि क्षेत्र दोआब है। यह क्षेत्र नदियों के गाद की वजह से उपजाऊ कृषि क्षेत्र होने से इसका आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक महत्त्व होने से यह प्रदेश ऐतिहासिक है। सिंधु और उसकी पाँच सहायक नदियों (झेलम, चिनाब, रावी, ब्यास, सतलुज) से बने पाँच दोआब से बने भूमि क्षेत्र को पंजाब कहते है।
झेलम कश्मीर के अनंतनाग ज़िले के वेरीनाग झरने से निकलकर चिनाब को ट्रिम्मु (पाकिस्तान) में मिल जाती है। रावी हिमाचल के कांगड़ा जिले के बड़ा भंगाल से निकलकर चिनाब को अहमदपुर स्याल (पाकिस्तान) में मिलती है। चिनाब हिमालय प्रदेश में चंद्रताल से चंद्रा और सूर्यताल से भागा नाम से निकलती है और लाहौल स्पीति जिले के तंडी में मिलकर चिनाब बन जाती है। ब्यास हिमालय के रोहतांग दर्रे से निकलती है और हरिके (भारत) जाकर सतलुज को मिलती है।सतलुज पंचनद (पाकिस्तान) जाकर चिनाब में मिल जाती है। चिनाब पाँचों नदियों का जल लेकर मिठानकोट (पाकिस्तान) में जाकर सिंधु से मिल जाती है। सिंधु और झेलम के बीच का दोआब सिंघ सागर, झेलम और चिनाब के बीच का चाज दोआब, चिनाब और रावी कि बीच का रेचना-रचना दोआब, रावी और ब्यास के बीच का बारी दोआब और ब्यास और सतलुज के बीच का बिस्त दोआब प्रसिद्ध है। दोआब बाँधनेवाली नदियों के नाम के पहले अक्षर को जोड़ यह नाम पड़े है। वेदकाल का सप्तसिंधु प्रदेश मुगलकाल में राजा टोडरमल से पंजाब होकर प्रसिद्धि पाया है। इस क्षेत्र के कईं परिवारों नें अपने भूमिक्षेत्र की पहचान अपने उपनाम-कुलनाम में बनाए रखी है। सिंधु उद्गम स्थान पर सिंह जैसी गर्जना करके चलती है इसलिए इसे सिंघी (सिंह-सिंघ) कहते हैं जिससे इस प्रदेशके लोगों नें आगे चलकर अपने आप को सिंघी या सिंह उपनाम से पहचान दी थी। सिंधु का जल जिसने पीया हो वह सिंह जैसी गर्जना तो ज़रूर करेगा।
वेदों में इस छह नदियों के नाम क्रमशः सिंधु, विवस्ता (झेलम), असिक्नी (चिनाब), पारूष्णी (रावी), विपास (ब्यास), सतुद्री (सतलुज), और एक अगोचर हुई सातवीं नदी सरस्वती है। क्या वह सातवीं नदी सिंधु को मिल रही दाहिनी सहायक नदी श्योक, स्वात अथवा काबुल नदी तो नहीं? अथवा मरुस्थलीय राजस्थान-गुजरात में लुप्त हुई घग्गर-हकरा। इसी पंजाब की भूमि पर पारुष्णी (रावी) के किनारे भारत ट्राइब के सुदास राजा का दस राजाओं का युद्ध (दशराज्ञ युद्ध) हुआ था जिसमें सुदास जीते थे। वे दस राजा थेः पुरू, यदु, तुर्वसु, अनु, द्रुह्यु, अलीना, पक्था, भलानस, शिव और विषाणिन। इसी पारुष्णी (रावी) किनारे कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की घोषणा की थी और इसी रावी के किनारे मुस्लिम लीग ने अलग पाकिस्तान माँगा था।
इसी पंजाब से सनातन धर्म की अपौरुषेय श्रुति वेदों की रचना हुई थी। इसी पंजाब के किनारों पर देव भाषा संस्कृत का जन्म हुआ था। इसी पंजाब के पोरस ने अलेक्जेंडर को ललकारा था। इसी पंजाब में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ था, कश्मीर शैविजम ने अपनी जड़ें जमाई थी और इसी पंजाब में इस्लाम ने मुहब्बत और भाईचारे का पैग़ाम देकर आवाम को मुसलमान बनाया था। शून्य, परम और एक अल्लाह के त्रिवेणी दर्शन का यह संगम स्थान है। इसी पंजाब से महाराजा रणजीत सिंह ने काबुल तक अपना ध्वज लहराया था और इसी पंजाब से अंग्रेज़ों से समझौता कर सीख आर्मी जनरल गुलाब सिंह नें कश्मीर को ख़रीदा था।
उर्वर ज़मीन की वजह से पंजाब क्षेत्र सदियों से भारत और पाकिस्तान प्रदेश के फुड बास्केट का काम करता है। अंग्रेज़ों ने आकर यहां बाँध और नहर सिंचाई का प्रारम्भ कर इस क्षेत्र का आर्थिक और राजनीतिक महत्त्व बढ़ाया था। आज इसी सिंधु के जल के बंटवारे में फिर भारत पाकिस्तान में तनातनी है। सिंधु नदी का जल संपत्ति वार्षिक अंदाज़ा 182 क्यूबिक किलोमीटर है जिसमें सिंधु, झेलम और चिनाब मुख्य धारा का 170 क्यूबिक किलोमीटर अंदाज़ा गया है। विश्व बैंक की मध्यस्थता में 1960 के समझौते से सिंधु जलराशि का 80% पाकिस्तान को और 20% भारत को मिलता है। पूर्वीय रावी, ब्यास और सतलुज पर भारत का और पश्चिमी सिंधु, झेलम और चिनाब पर पाकिस्तान का अधिकार माना गया है। पाकिस्तान आतंकवाद को पनाह देगा तो भारत अंदाज़ा 9.3 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी जो अपनी भूमि से पाकिस्तान की और बहने दे रहा है उसे बंद करने आगे बढ़ सकता है।
पूनमचंद
१३ मई २०२५
NB: पाकिस्तान कहेगा हमारे पास सिंधु है। हम कहेंगे हमारे पास गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्रा, महा, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी इत्यादि.. कुछ कम नहीं।
Saturday, May 10, 2025
कश्मीर का पेच।
इस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस मुल्क की
सरहद की निगाहबान है आँखें। कश्मीर भारत का सरताज और अभिन्न अंग है इसे कोई ताक़त ले नहीं सकती। हमारे फौजी उसकी सुरक्षा के लिए समर्थ है।
जम्मू, कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र का कुल क्षेत्रफल 2,24,739 वर्ग किलोमीटर है जिसमें 45% भारत के पास और 55% पाकिस्तान-चीन के पास है। भारत के कब्जे में 1,01,338 वर्ग किलोमीटर (45%), पाकिस्तान के कब्जे में 85,846 वर्ग किलोमीटर (38 %) और चीन के कब्जे में 37,555 वर्ग किलोमीटर (17 %) है। भारत के कब्जे में जम्मू कश्मीर और लद्दाख को मिलाकर 1,01,338 वर्ग किलोमीटर हिस्सा है, जिसमें से कश्मीर घाटी 15,520 वर्ग किलोमीटर, लद्दाख 59,146 वर्ग किलोमीटर और जम्मू क्षेत्र 25,294 वर्ग किलोमीटर है। जबकि पाकिस्तान के कब्जे में जो 85,846 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र है उसमें आज़ाद कश्मीर 13,297 वर्ग किलोमीटर और गिलगिट-बाल्टिस्तान का उत्तरीय इलाक़ा 72,496 वर्ग किलोमीटर है। पाकिस्तान ने 1963 समझौता कर शक्षगाम घाटी का 5,180 वर्ग किलोमीटर हिस्सा चीन को दिया था जिसके साथ लद्दाख क्षेत्र का अक्साई चीन को मिलाकर कुल 37,555 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र चीन दबाकर बैठा है। हम चीन से अक्साई चीन की माँग करते हैं और वह हमसे अरूणाचल प्रदेश का 90,000 वर्ग किलोमीटर माँगता है। इस प्रकार भारत की उत्तर और उत्तर पूर्व सरहद सात-आठ दशकों से विवादों में फँसी है जिसके कारण भारत और पाकिस्तान को अपने संरक्षण का भारी बोझ उठाना पड़ रहा है। पाकिस्तान को बहुमत मुसलमान प्रदेश चाहिए, चीन को अपने व्यापार को पश्चिम से जोड़ता लद्दाख क्षेत्र छोड़ना नहीं है और भारत अपने ताज को रखेगा ही, इसलिए यह मसला जैसे थें को मानकर समझौता किए बिना शायद हल होनेवाला नहीं।
जम्मू क्षेत्र का क्षेत्र 26,293 वर्ग किलोमीटर जो भारत के कब्जे में उसका प्रश्न नहीं रहा। लद्दाख क्षेत्र (1,69,197 वर्ग किलोमीटर) के तीन हिस्से हुए, जिसमें से गिलगिट-बाल्टिस्तान का 72,496 वर्ग किलोमीटर (43%) क्षेत्र पाकिस्तान के पास, अक्साई चीन का 37,555 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र (22%) चीन के पास और लद्दाख-भारत का 59,146 वर्ग किलोमीटर (35%) क्षेत्र भारत के पास है जो जैसे थे परिस्थिति में चल रहा है।
अब बचा 28,817 वर्ग किलोमीटर का सुंदर कश्मीर घाटी क्षेत्र जो उबलता रहता है। कश्मीर घाटी को पश्चिम और दक्षिण पश्चिम की पीर पंजाल पहाड़ियाँ पंजाब के मैदानी क्षेत्र से अलग करती है और उत्तर और पूर्व में ग्रेटर हिमालय के पर्वत इसे लद्दाख और तिब्बत के साथ जोड़ते है। कश्मीर घाटी का मध्य और दक्षिणी क्षेत्र जो 15,520 वर्ग किलोमीटर (54%) है वह हिस्सा भारत के पास है और उत्तर पश्चिमी 13,297 वर्ग किलोमीटर (46%) हिस्सा पाकिस्तान के पास है। यह बँटवारा सिर्फ़ ज़मीन का ही नहीं था बल्कि प्रजा का भी था। घाटी के मुसलमान बहुमत होते हुए भी शेख अब्दुला के नेतृत्व में भारत के पक्ष में रहे और पहाड़ी मुसलमान सरदार मुहम्मद इब्राहिम ख़ान के नेतृत्व में पाकिस्तान के पक्ष में चले गये और आज़ाद कश्मीर बनाया। 1947-49 युद्ध चला फिर दोनों प्रजा को अपने अपने कब्जेवाले क्षेत्रों में सत्ता और नीति बनाने में प्रभावी होने में सहूलियत देखी इसलिए 1949 में समझौता कर LOC बनाकर दोनों उस वक्त शांत हुए। लेकिन विदेशी ताक़तों के ज़ोर से पाकिस्तान ने विवाद को जलते रखा। वह सीधे युद्धों में हारा इसलिए गुरिल्ला वॉर की तरह आतंकवादीयों को तैयार कर प्रोक्सी वॉर से वारदात करता रहता है। क्या था उन वाजपेयी-परवेज़ की आग्रा शिखर सम्मेलन (July 2001) के उस दस्तावेज में जिनका मसौदा तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह के पास था और जो होने को ही था और आख़िर में बात नहीं बनी?
हमने 1949 में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 लाकर कश्मीर को विशेष दर्जा दिया और 2019 में 370 हटाकर विशेष दर्जे को समाप्त किया। पाकिस्तान ने गिलगिट-बाल्टिस्तान को अपने में मिलाने का एलान किया था। मानो की कश्मीर घाटी मसला हल हो गया। जो इनके कब्जे में था वह उनका हो गया और जो हमारे कब्जे में है वह हमारा हो गया। लेकिन नये भारत को पूरा कश्मीर चाहिए।
भारतीय क्षेत्र को देखें तो जम्मू और लद्दाख में कोई अलगाववाद नहीं है। लेकिन कश्मीर घाटी क्षेत्र खासकर दक्षिण कश्मीर और पाकिस्तान से लगा हुआ प्रदेश संवेदनशील बना हुआ है। लद्दाख का क्षेत्र चीन के व्यापारिक हितों की वजह से चीन को इस कहानी का पक्षकार बनाते है। इसलिए यह मसला अकेले कश्मीरी आवाम के जनमत का नहीं है लेकिन भारत, पाकिस्तान और चीन के अंतरराष्ट्रीय सरहद का है।
कश्मीरी घाटी की प्रजा को दो हिस्सों में बाँटकर समझनी चाहिए। घाटी के कश्मीरी और पहाड़ी कश्मीरी। घाटी के कश्मीरी जो कि बहुसंख्यक सुन्नी मुसलमान है लेकिन उनके पूर्वज बौद्ध अथवा हिन्दू थे वे अभी के हालात में भारत में खुश है। जो पहाड़ी मुसलमान वहाँ गए है वे खुश है कि नहीं उसका इल्म नहीं। दोनों के बीच बैठे है बकरवाल। कश्मीर घाटी जंगलों और पर्वतों से घिरीं है इसलिए जंगलों पर्वतों के पूरे क्षेत्र को सुरक्षित करने बहुत सैनिक और संसाधन चाहिए। सैनिक बाहर से आता है और मिलिटन्टस स्थानिक इसलिए क्षेत्र के अपरिचय और परिचय का हानि लाभ उनको मिलता है। मिलिटन्टस शिकारी बिल्ली की तरह ताक़ लगाए बैठे रहते हैं और जैसे ही कोई क्षेत्र ख़ाली नज़र आया वार कर देते हैं और भाग जाते है। जहाँ फिदायीन मिला वहाँ उसे भी इस्तेमाल कर लेते है। मेरे कटरा-श्रीनगर सफ़र का कार ड्राइवर मोहम्मद अकबर कह रहा था कि साहब इन पाकिस्तान ट्रेंड मिलिटन्टस को कम मत समझिए। एक मिलिटन्ट अपनी शक्ति, साहस और रणनीति में भारत के पचास कमान्डिंग अफ़सरों से कम नहीं। उसकी बात में अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन मिलिटन्टस को कमज़ोर समझने की ग़लती भी नहीं करनी चाहिए। बकरवाल यहाँ दोनों के लिए मुखबिर (informer) का काम करते है। वह किस तरफ़ खेल रहे है यह बात घटना पूरी होने तक भरोसे पर चलती है। मौत का ख़ौफ़ किसी को भी पलट सकता है। इसलिए भारतीय सेना मिलिटन्टस को फंदे में फँसाती है कि मिलिटन्टस उसी जाल में उन्हें फँसा लेती है यह घटना पूरी होने तक कोई नहीं जानता। हो सकता है कुछ घटनाएँ उसके सही रूप में हमारे सामने न भी आए। हादसा मौत बन जाए या मौत हादसा।
भारतीय कश्मीर घाटी के बहुसंख्यक मुसलमान अपने को हिंदुस्तानी समझते हैं और वे भारत में खुश है। लेकिन जब क़ौम की बात आती है तो वे संवेदनशील भी है। अनुच्छेद 370 का हटना उन्हें पसंद नहीं आया इसलिए केंद्र शासित असेंबली ने इसके लिए कुछ महिने पहले एक प्रस्ताव पारित किया। पुलवामा अटेक और पहलगाम त्रासदी करनेवालों को सज़ा ए मौत दो, ज़िंदा जलाओ उसका उन्हें विरोध नहीं है, बल्कि पक्ष में है। लेकिन जो लड़का भाग गया, लापता हुआ, पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाई, वह कुछ साल बाद कोई वारदात करे तो उसके माता पिता चाचा के घर बुलडोज़ हो जाए और साथ में अग़ल बगलवालों को भी नुक़सान हो उसका कुछ बडबोलों को विरोध है। पढ़े लिखे बेरोज़गार युवा के मिलिटन्ट बनने की कहानियों में ऐसे कोई न कोई असंतोष की छाया नज़र आती है। हाँ, भारतीय सेना के संयम की तारीफ़ करनेवाले भी बहुत हैं। ऐसी कोई घटना नहीं घटी जिससे किसी को शर्मिंदा होना पड़े।1971 से पहले पाकिस्तान सेना ने बांग्लादेश में मचाये ग़दर की ख़बरें उनको पता है। फिर भी सोशल मीडिया वीडियो से भरें रहते हैं जो जनमत को बनाते और बिगाड़ते रहते है। पहले तो कुछ सुनकर अफ़वाहें फैलती थी अब वीडियो गुमराह करते है। पुराना या नया, यहां का और कहाँ का, वीडियो के चित्र और आवाज़ें मनुष्य मन को भ्रमित करने पर्याप्त होते है।
बुरे को सबक सिखाने जंग ज़रूरी है लेकिन पूर्ण समाधान नहीं है। पाकिस्तान के साथ चीन जुड़ गया तो हो सकता है यह लंबी चले। वैसे भी सेटेलाइट सेवा, इलेक्ट्रॉनिक्स, हथियार और साधन सरंजाम की मदद करने में वह पाकिस्तान के पीछे नहीं हैं ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता। अमेरिका की अपनी रणनीति है। जिनके फ़ैक्ट्री में हथियार, फ़ाईटर जहाज़ पड़े हैं वे इस आपत्ति में बेचने का अवसर खोज रहे होंगे।
भारतीय सरकार ने अपने विकास कामों से कश्मीरी प्रजा का दिल जीता है। दूसरे राज्यों में कम सही, यहां और धनराशि देकर प्रजा के दुःख दर्द को कम करने में सहायता देनी चाहिए। यहां शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा निःशुल्क है इसलिए लोग राज़ी है। लेकिन बिजली का बिल उन्हें महंगा पड़ता है। 200 युनिट के बाद युनिट रेट ऊँचा है। NCP नें 200 युनिट बिजली बिल माफ करने का वायदा कर वॉट लिया और जीतने के बाद शांत हो गई। पीछले सालों में प्रवासन बढ़ने से कई युवाओं ने नई कार, घोड़े, रेस्टोरेंट, होटल इत्यादि के लिए बैंकों से क़र्ज़े लिए लेकिन अब धंधे बंद हुए इसलिए उस ऋण के भुगतान और व्याज की चिंता उन्हें सता रही है। क़ुदरती आपदा नहीं है लेकिन मानव निर्मित आपदा भी आपदा ही है। उनका क्या क़सूर? ग़रीब लोग कैसे अपना घर चलाएँगे? कुछ राहत तो चाहिए। क्या ग़ैर सरकारी संगठनों की कोई भूमिका बनती है? हमने उन्हें अपना माना है इसलिए अपनेपन के हर कदम से उन्हें अपना बनाए रखना है। ईश्वर आश्रम के श्री रैना (८४) कहते थे कि जब भूगोल स्वीकारा है तब प्रजा का भी दिल से स्वीकार ज़रूरी है।
पूनमचंद
१० मई २०२५
Friday, May 9, 2025
बदलता कश्मीर ।
१९९० से २०२५, पैंतीस साल गुजर गए और कश्मीर घाटी की पूरी पीढ़ी बदल गई। मिलिटन्सी करनेवाले कम रहे या ख़त्म हुए। २०१९ में संविधान अनुच्छेद ३७० हटते ही मानसिक अलगाव रखनेवाली जो एक दिवार थी वह टूट चुकी है और उसके बाद हुए विकास काम और प्रवासन विकास नें उन्हें सही ग़लत का भेद समझाया है। जिसके चलते बहुमत प्रजामत अब हिन्दुस्तानी है। पहलगांव दुर्घटना ने उन्हें झँझोड़ दिया है, दुखी किया है और विवश कर दिया है की वे सही का साथ दे। नई पीढ़ी को रोज़गार और विकास के अवसर चाहिए। उन्हें अब अलगाव नहीं, प्यार मोहब्बत और रोज़ी रोटी की भूख है। उनको अलग दिखाकर, उन्हें ताना देकर नफ़रत की निगाहों से देखकर बोले शब्द दुखी करते है। उनका उसी विरोध की सोच का विरोध है।नई पीढ़ी दिनभर मोबाइल से यु ट्यूब, फ़ेसबुक की ख़बरें देखती रहती है और अपने विरोध बोले शब्दों के संवेदनशीलता से सुनती है और दुखी होती है। उन्हें अलग कर देखना उन्हें अब पसंद नहीं आ रहा। हमें गैर मत समझो, हमें हिन्दुस्तानी समझो यही उनकी पुकार है। जिस नदी सिंधु से हमारे महान देश का नाम हिंदुस्तान पड़ा वह कश्मीर में ही तो बहती है।
बहुसंख्य का जीवन यहाँ मध्यम वर्गीय है। सुबह एक कप चाय और एक रोटी, दोपहर सब्ज़ी चावल, तीन बजे एक कप चाय और एक रोटी और रात को सब्ज़ी चावल, यही उनका खाना है और सादा सरल जीवन है जो एक परिवार के लिए दैनिक ₹३००-४०० में निपट जाता है। मांसाहार हप्ते में दो एक दिन होता है और वह भी नियम से। कश्मीरी मांस का एक टुकड़ा और करी खाएगा और पठान होगा तो तीन चार टुकड़े खाएगा। इनका मजा तो शादी की दावत का है। शादी ब्याह में वजवान के जलवे होते है। वजवान १४ व्यंजनो का समूह है; रिस्ता, वाजा कोकुर, गुश्ताब, कबाब, रोगन जोश, धनिया कोरमा, मिर्ची कोरमा, आब गोश, मेथी माज, तबक माज, इत्यादि है। एक आदमी ऐसी दावत में एक से सवा किलो भक्षण कर जाता है। खाना इकठ्ठा खाना, बाँट के खाना इनका रिवाज है। खाना खाने चार चार के समूह हे बैठेंगे और जो उनमें उम्र में जो बड़ा है वह परोसा हुआ सबको बराबर कर बाँटेगा और खुद कम या हल्का पीस अपने हिस्से में लेगा। समूह भोजन के रिवाज से परिवार और जात-बिरादरी में एकता, भाईचारा, प्यार और मुहब्बत बने रहते है। परिवार और उनका लालन पालन पोषण उनके लिए सबसे उपर है।
वे इतने धार्मिक हैं कि अल्लाह को पल पल याद करते हैं और हर वक्त उसका शुक्रिया करते है या रहमत माँगते रहते है। उनकी हर बात या कदम अल्लाह को याद कर होती है। यहाँ के समाज में दारू का व्यसन देश के दूसरे पहाड़ी प्रदेशों से कम है। कश्मीरी अन्याय के सामने आवाज़ उठाएगा। सीआरपीएफ की गाड़ी अपनी गाड़ी से लग जाए तो नुक़सान माँगेगा वर्ना एफआइआर कटवायेगा। कोई रोके टोके तो दबेगा नहीं, सही होगा तो ऊँची आवाज़ में बोलेगा और अगर ग़लत होगा तो चुपचाप जुर्माना भर देगा।
इसकी नईं पीढ़ी शिक्षा पर ज्यादा ध्यान दे रही है। कन्या शिक्षा को बढ़ावा मिला है। पढ़े लिखे घरों में बेटियों को बराबर का स्नेह और शिक्षा मिलते है। माँ के ख़ून छोड़ यहाँ चचेरे भाई बहनों में शादी होती है। लेकिन नईं पीढ़ी जात बिरादरी छोड़ मुसलमानों में शादी कर लेते है। अरेन्ज मेरेज में कोई न कोई रिसते नाती का कनेक्शन लग जाता है। फिर भी शिया-सुन्नी अथवा सुन्नी-पठान में शादी ब्याह का रिश्ता नहीं होता।
कश्मीर घाटी का दक्षिण क्षेत्र का अनंतनाग इलाक़ा मिलिटन्सी के लिए ज्यादा सक्रिय लग रहा है। पुलवामा और पहलगाम उसी क्षेत्र में पड़ते है। बुरहान वाणी का त्राल और मुफ़्ती परिवार का बीजबेहरा इसी क्षेत्र का हिस्सा है। रोज़गार के अवसर प्रवासन के अलावा कम है। इसलिए कोई कोई युवा जो वक्त या क़िस्मत का मारा हो और मिलिटन्टस के संपर्क में आकर गुमराह हुआ हो वह लापता हो जाता है यानि मिलिटन्टस के ग्रुप में जुड़ जाता है। वहाँ उसकी तालीम और तैयारी होती है और पुलवामा, पहलगाम जैसी घटनाओं को अंजाम देने उसका उपयोग किया जाता है। सबकुछ अल्लाह की मर्जी से हो रहा है, अल्लाह हू अकबर (Allah the great), मौत हुई तो अल्लाह से मुलाक़ात और जन्नत नसीब होगी, इत्यादि शिक्षा उनके अंदर चल रही अंदरूनी जलन में बारूद का काम करती है और वे अपना अवसाद दबाने उनके साथ जुड़ जाते है। फिर वे भूल जाते हैं कि उसी शिक्षा में दूसरों के मज़हब का आदर करना, निर्दोष की हत्या न करना आदि सिखाया गया है।
जिहाद का अर्थ यहाँ जंग होता है। इसका एक अर्थ कईयों ने बुत पूजक के खिलाफ जंग किया था लेकिन आम मुसलमान के लिए जिहाद कईयों प्रकार की होती है, जैसे की ग़रीबी के खिलाफ जंग, अन्याय के खिलाफ जंग, अत्याचार के खिलाफ जंग इत्यादि।
मिलिटन्टस से यहां का आवाम भी डरता है। जो लड़का घर से लापता हुआ उसकी थाने में रिपोर्ट लिखाई जाती है। वह जब आतंकवादी बन कभी लौटे तो वह जिसके घर एकाध दो दिन छिपने जाएगा या कुछ राशन पानी माँगेगा, बंदूक़ की नोक सर पर हो तो भला कौन ना कह सकता है या बाद में पुलिस को बता सकता है? पुलिस- पारा मिलिटरी से भी उसकी गिरफ़्तारी और पूछताछ का डर बना रहता है। अपनी और परिवार की सुरक्षा के लिए कुछ लोग चुप रहते होंगे। लेकिन आजकल पारा मिलिटरी की हाज़िरी और मोबाइल के चलते बात दो इन्सान तक गुप्त रह सकती है मगर तीसरे चौथे को पता चलेगी तो लीक हो जाती है। मुल्क पर पारा मिलिटरी की पकड़ बनी हुई है और जो मिलिटन्टस यहां थे वे मारे गए या भाग गए इसलिए पहाड़ों में छिपकर अथवा पाकिस्तान में जा-आकर पुलवामा और पहलगाम जैसी वारदात करने के सिवा उनका कोई अता पता नहीं रहता।
पहलगाम दुर्घटना से यहां का हर कश्मीरी दुखी है। इसलिए नहीं कि उसका प्रवासन ख़त्म हुआ लेकिन नई नवेली दुल्हनों के सुहाग उजड़े। उनके घर भी बेटी है। वे दर्द समझ सकते है। आज़ादी के बाद पहली बार उन्होंने सड़क पर आकर त्रासदी का खुलेआम विरोध किया। उन्हें पता है कि कश्मीर भारत का ताज है और भारत इस ताज को कभी उतरने नहीं देगा। इसलिए बुद्धिमानी इसमें है कि हिन्दुस्तानी बन अपने विकास के प्रति जागरूक हो।
यहां हज़ारों बिहारी-युपी-हरियाणवी-पंजाबी युवा नौकरी रोज़गार करते है। मिस्री, सुथार, रंगकाम पॉलिश काम करनेवाला, दुकान में काम करनेवाला, चाट पकौड़ी बेचनेवाला, होटलों और रेस्टोरेंट में काम करनेवाले हज़ारों युवा यहाँ काम करते हैं और उन्ही की बस्तियों में किराए के घर-रूम लेकर रहते है। उनमें मुसलमान भी है और हिन्दू भी। कईयों ने बातचीत के लिए ज़रूरी कश्मीरी बोलना भी सीखा है। वे अगर निकल गए तो कश्मीर युवाओं की नई पीढ़ी में जो आलसी है उनका क्या होगा? जिसे वे छोटा काम समझते हैं उसे करेगा कौन?
भारतीय संविधान अनुच्छेद ३७० के हटने से और अपने विशेष दर्जे को जाने से वे नाराज़ ज़रूर है। कईयों को लगता है की अब कश्मीर केन्द्र शासित प्रदेश है इसलिए सब नौकरी बाहरवाले ले जाएँगे फिर पढ़ लिखकर क्या फ़ायदा? कईं सकारात्मक सोचवाले शिक्षा पर डटे रहते है। इकरा, इल्म और तालीम क़ुरान की ही शिक्षा है। ज़्यादातर युवा प्रवासन के काम, स्वरोजगार और व्यापार में लग जाते है। जिनको बाहर जाने का अवसर मिलता है वे चल पड़ते है। प्राकृतिक सौन्दर्य अगर रोज़गार न हो तो कितने दिन मन को बहलाएगा? अगर काम धंधा न हो तो कोई भी आदमी महिने में उब जाएगा फिर चाहे कैसी भी वादियाँ हो या फ़िज़ा हो।
१९९० की करूणांतिका के बाद जो पंडित बाहर निकल गए उनमें से कईयों ने अपने घर - प्रोपर्टी को बाद में बेच डालें थे।जिन्होंने नहीं बेची उनकी है। शहरों में और कुछ कुछ गाँव में आज भी कुछ पंडित परिवार रहते है। लेकिन १९९० में जो बाहर निकले उनके बच्चे, नई पीढ़ी, रोज़गार धंधे में बाहर इतनी अच्छी तरह बस गई है कि कश्मीर के देहात में आकर बिना रोज़गार आमदनी अपने घर में रहकर क्या करेंगे?
यहाँ ज़मीन धारक ज़्यादातर सीमांत किसान है। ज़्यादातर किसान एक दो कनाल ज़मीन के मालिक है (१ कनाल =१००० वर्ग फुट)। किसी के पास १५ कनाल ज़मीन हो (१.५ हेक्टेयर) तो वह बड़ा किसान माना जाता है। शहरों की ज़मीन अब महंगी हो गई है। श्रीनगर के अच्छे इलाक़े में एक वर्ग मीटर ज़मीन की क़ीमत ₹१० लाख तक हो सकती है। ऐसे में भला आम जनता का जीवन ग़रीब या मध्यम वर्गीय ही रहेगा। फिर भी कश्मीरी अपनी जीवनशैली को आबाद रखता है। हर पाई हिसाब से खर्चता है और अपने आय के साथ अपने खर्च के उतार चढ़ाव को सँभाल लेता है। वह दिन में ₹२००० खर्चे में खुश रहेगा और कभी ₹१०० के दिन आ गए तो उसे भी सँभालकर गुजार देगा। वह हर सुख और दुःख के दिन अल्लाह तआला की मेहरबानी समझकर स्वीकार कर लेता है। अल्लाह के ९९ नाम लेते लेते ज़िंदगी गुज़ार देना इनके जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा है।
जो जन्मा है वह मरेगा और मौत जिस दिन होनेवाली है उस दिन ज़रूर आएगी ऐसी शिक्षा उनमें पक्की है। इसलिए जीवन की तरह मौत को भी वह अल्लाह की मर्जी समझकर स्वीकार कर लेते है और दुःखद हादसों को भूलकर आगे बढ़ जाने में इन्हें वक्त नहीं लगता। कश्मीर भारत का ताज है अभिन्न अंग है, बना रहेगा। कश्मीर घाटी और कश्मीरी लोग हमारे अपने हिंदुस्तानी है। उन्हें रोज़गार के अवसर देकर आबाद रखें यही बदलते कश्मीर की तस्वीर है।
डॉ पूनमचंद
९ मई २०२५
Thursday, May 8, 2025
पहलगाम एक पहेली।
आज (७ मई) हमारे श्रीनगर पड़ाव का आखरी दिन था। कल सोनमर्ग और कारगिल की लंबी यात्रा एक ही दिन में करने से हम दोनों थके हुए थे। सुबह आंख खुली तब भारत का सिंदूर ऑपरेशन अपना रंग ला चुका था। तुरंत ही पता लगाया तो पता चला कि श्रीनगर एयरपोर्ट बंद होने से विमान उड़ान नहीं भरेंगे। हमारी दिल्ली सफ़र कल की है लेकिन सिंदूरी रंग के चलते मामला तुरंत शांत होने की संभावना कम थी इसलिए कल उड़ान भरने की संभावना न के बराबर थी। फिर भी एजेंट को पूछा तो कहा एयरलाइन का मेसेज आएगा। ८ बजते ही शकील आ गया। आज हमारे पहलगाम जाने का प्रोग्राम था। सोचा सामान लेकर चलूँ और वहाँ से कटरा जम्मू निकल जाएँगे। ईश्वर आश्रम से ज्योर्ज एयरपोर्ट जाकर वापस आया था लेकिन कल की उम्मीद थी। हम भी कल एयरपोर्ट खुलेगा उसी उम्मीद में पहलगाम की ओर आगे बढ़ गए। आज पहलगाम की सुंदरता को देखने कम परंतु हादसा हुआ उस जगह का जायज़ा लेने का मन ज्यादा था। सरकार ने इसे पर्यटन के लिए बंद नहीं किया था। जब हम नेशनल हाईवे से बीचब्याडा होकर आगे बढ़े तो स्थानीय लोग के अलावा कोई नहीं था। पहलगाम पर्यटकों के सेवा में बने एपल ज्यूस के ठेले, रेस्टोरेंट, होटल्स सब बंद थे। एक रेस्टोरेंट का किमाड खुला देखकर हम चाय पीने रूके। २८-३० साल का एक हेंडसम युवक सामने आया। कहा साहब सब बंद है फिर भी आप बैठो, आपकी और हमारी चाय बनाने की व्यवस्था की हैं, पी कर जाना। बात निकली तो पता चला कि वह एमसीए है और बेंगलूरु में सॉफ़्टवेयर कंपनी में काम करता था। घर के किसी मसले की वजह से उसे वापस श्रीनगर आना पड़ा इसलिए रोज़गार बनाने उसने यह रेस्टोरेंट दो साल के ₹१२ लाख के लीज़ रेंट से किराए पर ली है। एक शेफ़ ₹२६००० प्रति माह की तनख़्वाह से रखा है और दूसरे दो जन। महीना एक लाख से ज़्यादा का फिक्स्ड कॉस्ट हुआ और धंधा बंद हो गया। अभी तो तीन ही महिने हुए है। उसे कमाने के बदले गँवाने पड़ गए। वह उन आतंकवादियों को कोस रहा था। फिर और भी मायूस हुआ कि ऑपरेशन सिंदूर से मामला और लंबा चलेगा जिससे इस साल अब पर्यटक मिलने की संभावना शून्य हो गई है। देखता है अमरनाथ यात्रा का क्या होगा? उसने चाय के पैसे नहीं लिए। हम लिद्दर नदी के नटखट बहाव को देखते देखते आगे बढ़े। सुंदर सी, अल्लड सी, मस्तीभरी नदी के उस पार मैदानी प्रदेश और उस पर बने होटल्स एक मनोहर दृश्य बनाते थे। रास्ते में उस मस्जिद को देखा जहां सलमान खान ने बजरंगी भाईजान का गाना ‘भर दो झोली मेरी या मुहम्मद’ गाया था। हम चल रहे थे और हमारी कार और थोड़े थोड़े अंतर पर संत्री के सिवा और कोई नहीं था। पहलगांव आया। हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए और उसकी भूगोल को समझते गए। आख़िरी में एक नाला ब्रिज के पार कर दो घोड़ेवाले दिखे उनसे बात करने की कोशिश की। लेकिन जैसे ही उन्होंने हमारे हाथ में मोबाइल फ़ोन देखा कि पीठ कर ली। इतने में तीन स्टॉल बेचनेवाले मिले। सोचा उनके काम मिले और बहुओं को स्टॉल इसलिए महंगा लगा फिर भी ख़रीद लिया। लेकिन जैसे ही दुर्घटना की बात छेड़ी तो आँख चुराने लगे। हम वापस चले। जम्मू कश्मीर की पुलिस चौकी को पार कर आगे आए तो होटलों का एक समूह आया। वहाँ पार्किंग की गई टैक्सीयां पार्क पड़ी थी। होटल्स सब ख़ाली थे। बगल में एक छोटी सड़क उपर जा रही थी। हम उपर चले तो थोड़े ही दूर बायसरन को दर्शाता बॉर्ड पढ़ा। आगे से धोडेवालो का रास्ता था इसलिए हम वापस मुड़े और बगल की पंजाबी रेस्टोरेंट पर खड़े हुए। रेस्टोरेंट खुला था लेकिन कोई हाजिर नहीं था। मैंने उपर पहाड़ियों की और नज़र जमाई। कुछ भी अंदाज़ा नहीं लगा पाए की क्या और कैसे हो सकता है क्यूँ कि बायसरन यहाँ से लगभग पाँच किलोमीटर दूर था। उपर एक के बाद एक पहाड़ियाँ थी जिसमें मैदानी प्रदेशों में पर्यटन स्थल बनाए गए थे जिसे abc नाम दिया गया है। a मतलब अरु, b मतलब बायसरन और बेताब और c मतलब चंदनवाड़ी। भूतकाल में आतंकवादियों ने सैनिकों पर हमले किये लेकिन पर्यटकों को कभी निशाना नहीं बनाया इसलिए पहाड़ियों में सुरक्षा प्रबंधन करने की जरूरत न लगी हो इसलिए वहाँ कभी सुरक्षा के इंतज़ाम नहीं थे। दशकों से पर्यटक आते थे और पर्यटन स्थल का आनंद लेकर चले जाते थे। आतंकवादी कईयों के सिंदूर मिटाकर भाग गए। लेकिन भाग गए तो गए कहाँ? इस स्थान के आसपास पाकिस्तान बॉर्डर नहीं है। श्रीनगर से नेशनल हाईवे के बायीं और पड़ता है। अगर उपर की ओर जाए तो चंदनवाड़ी, तुलियाँ झील, और बाद में कारगिल लद्दाख आएगा। आर्मी पोस्ट के होने से उसे पार नहीं कर सकते। अगर दायाँ चले और अंदर के रास्ते मिले हों तो हो सकता है नेशनल हाईवे ४४ के पकड़कर भाग जाए। लेकिन दोनों ही स्थिति में वक्त लगेगा। हमारे दल खोज में लग ही गए होंगे। फिर भी नहीं मिले। कहाँ गए? पहाड़ों ने निगल लिया या किसी ख़ुफ़िया बंकर में छिप गये? या कोई भेष बदल कर नीचे के समूह में आ गए? या कैसे कर पाकिस्तान भाग गए? पहेली उलझी हुई है। मेरा मन उदास हो गया। नयी नवेली दुल्हनों के सुहाग उजड़ गए। किसी का पति गया, किसी का बाप गया, किसी का भाई, किसी का बेटा। सेटेलाइट और द्रोण के युग में भी हम पहाड़ों की छानबीन और निगरानी में अधूरे है। मन से दिवंगतों के आत्माओं की सद्गति की प्रार्थना कर हम लौट चले। थोड़े ही आगे सीआरपीएफ के एक बड़ा बेज केम्प मिला। उसके सामने पर्यटकों को ‘❤️ PAHALGAM’ की फ़ोटो फ़्रेम लगी थी और पीछे बायसरन की पहाड़ी। कुछ ६०-८० पर्यटक खड़े थे। कोई गुजराती, कोई कन्नड़ तो कोई तमिल। सहसा टीवी ९ का एक पत्रकार सफ़ारी सुट पहने आया। किसी से इयरफोन लगाकर बातें कर रहा था कि उन्हे लोगों को कुछ किया यह दिखाने यह हमला करना ही था। जैसे ही थोडे पर्यटक देखे उसने अपनी आवाज़ में जोश भर दिया। पहले पर्यटकों को समझाया कि उन्हें क्या जवाब देने है और फिर शुट करने शुरू हो गया। वह ऊँची आवाज में पूछने लगा कि यहाँ बहुत सारे पर्यटक हैं न? खूब मज़ा आ रहा है न? पाकिस्तान को जवाब दे दिया है न? मुझे लगा इन ६०-८० के अलावा पूरा क्षेत्र ख़ाली है। २६ लाशें २२/४ को गिर चुकी। जंग हुई तो और जानें जाएगी और भाई को जोश और आनंद आ रहा है? वक्त जोश का कम होश सँभालने का ज़्यादा है। पता नहीं काल के गर्भ में क्या छिपा है? हमने मेमरी के लिए दो-तीन फ़ोटो खींची और चल दिए। रास्ते में एक वेजीटेरियन ढाबे पर मशरूम मटर और तवे की रोटी का भोजन लिया और दोपहर दो बजे सर्किट हाऊस पहुँच गए। पाँच मिनट में पेमेंट कर चेक आउट किया और सामान लेकर बगल के टैक्सी स्टैंड पर जा खड़े। शेयरिंग टैक्सी में जगह मिल गई और ₹१३०० प्रति यात्री देकर हम बैठ गये।
टैक्सी ड्रायवर शाहिद मलिक बडा साहसी था। मोबाईल पर फोन आता लंबी बातें करता और कार ऊँची रफ्तार से चलाये रखता। कश्मीर घाटी के मैदानी रोड पर वह १२०-१४० किलेमीटर स्पीड सरलता से चलाये जा रहा था। अचरज तो तब हुआ जब जम्मू के पहाडी और सर्पाकार रास्ते पर कार वह ऐसे चला रहा था जैसे कॉम्युटर रेसींग गेम में कार चलाता कोई बच्चा। ३ ३० को निकले थे, रामबन से थोडा आगे हाइवे पर खजूरिया वैष्णव धाबे पर एक डीनर ब्रेक लिया। ₹१३० में राजमा चावल की एक डीस हम दोनों के लिए पर्याप्त थी। प्लेट में नीचे घी, उपर चावल और उसके उपर राजमा, सुगंध और स्वाद आ गया। डीनर के बाद हम ९.०० बजे जन्मू पहुंच गए थे। हम श्रीनगर से निकले तब पहले कटरा रात्रि विश्राम का प्लान बनाकर चले थे। दिल्ली के लिए वंदे भारत में टिकट उपलब्ध थे बुक करवाए थे। लेकिन टैक्सी में एक भाई रफीक मदीना जाने निकले थे वह रॉड मार्ग से दिल्ली जा रहे थे। हमें लगा कटरा रात्रि का किराया देंगे उतने में दिल्ली पहुँच जाएँगे। हमने प्लान बदला और जम्मू निकल गए और उतरते ही दिल्ली जाने को एक स्लीपर बस तैयार थी, प्रति व्यक्ति १००० किराया दिया और बैठ गए। वंदे भारत का टिकट रद करवाया और अहमदाबाद की फ्लाइट का टाइम मिलाने लग गए। स्लीपर बस में मेरा और लक्ष्मी का पहला सफ़र था। उपर के हिस्से में जगह मिली थी। रात हुई थी और हमें नींद आ रही थी इसलिए बस का हिलना डुलना ध्यान नहीं रहा। बस ने रास्ते में दो स्टोप किए और सुबह के आठ तीस बजते ही हम कश्मीरी गेट दिल्ली पहुँचने को है। एयर इन्डिया में ११.२० का एक सस्ता (₹४५०० प्रति व्यक्ति) टिकट भई मिल गया। २४ घंटे का हमारा यह सफ़र साहसिक और अविस्मरणीय बन गया।
पूनमचंद
Bus to Delhi
८ मई २०२५
NB: हम कश्मीरी गेट दिल्ली ८.४५ को उतरे, कार ड्रायवर प्रेमचंद ने कार उम्मीद से तेज चलाई और हमें १० बजे T3 पहुंचाया। वेब चेकींग किया हुआ था। दो बैग जमा करवाए और सिक्युरीटी चेक करवाकर गेट ३४ए पहुंचे तब बोर्डिंग शुरू हो गया था। फ्लाइट टाईम पर चली, अच्छा खाना दिया और एक घंटे दस मिनट में अहमदाबाद उतार दिया। एयरपार्ट से बाहर आए तो दोपहर का एक बजा था और १.३० को हम हमारे आशियाने गांधीनगर पर थे जहां पांच ग्रान्ड चिल्ड्रन और बहुएँ हमारे स्वागत के लिए खडी थी।
Wednesday, May 7, 2025
सोनमर्ग कारगिल सफ़र ।
देखनेवालों ने क्या क्या नहीं देखा होगा, मेरा दावा है कि इन हँसी वादियों सा नहीं देखा होगा। आज का हमारा सफ़र था सोनमर्ग और कारगिल वॉर मेमोरियल। लंबा रास्ता था इसलिए हम सुबह ७.३० बजे श्रीनगर से निकले। ५० किलोमीटर दूर जाकर ताज इन रेस्टोरेंट में सुबह का नास्ता किया। यहां बने पराठे ने हमारा दिल जीत लिया। आगे चल हमने छह किलोमीटर लंबी टनल को पार कर सोनमर्ग में प्रवेश किया। पहाड़ों को छेद सुरंग बनाना, उन्हें काटकर सड़कें चौड़ी करना और मिट्टी पत्थर के बने पहाड़ों से भूस्खलन रोकना एक भगीरथ कार्य है। हमारी दायीं ओर बह रही सिंधु नदी नीचे की ओर आ रही थी और हम ऊंचाइयों पर आगे बढ़ रहे थे। शिव जटा हिमालय से बहती गंगाओ में से सिंधु प्रमुख नदी है जो आगे जाकर पाकिस्तान की प्यास बुझाकर कराची के पास अरबी समुद्र में मिलती है। उसके ही नाम से हमारा नाम हिन्दू और हमारे देश का नाम हिंदुस्तान है। गर्मी के दिनों में बर्फ पिघलने से उसका बहाव तेज बन रहा था। सोनमर्ग आते ही सामने खड़ी बर्फीली पहाड़ियों ने हमारा मन मोह लिया। सोनमर्ग (meadow of gold), सोना यानी जल, जल है तो जीवन है। जिस के नाम से यह मुल्क का नाम हिंदुस्तान पड़ा वह सिंधु नदी यहां होकर बहती है। ऊँचे पहाड़, बर्फीले चट्टान, ये वादियाँ, ये फ़िज़ा, लुभाती हमें। अमरनाथ यात्रा का एक रास्ता यहाँ से शुरू होता है। छड़ी यहाँ से चढ़ती है और पहलगांव उतरती है। हमें तेज़ी से कारगिल पहुँच लौटना था इसलिए हम सोनमर्ग को आँखों से पीते हुए आगे बढ़ गए।कुछ किलोमीटर आगे एक छोटी चट्टान जिसे इन्डिया गेट नाम दिया है, पार किया। यहां जम्मू कश्मीर केन्द्र शासित प्रदेश की सीमा समाप्त हुई और लद्दाख की शुरू हुई। आगे केप्टन मोड़ को सँभालकर पार किया। बीआरओ (border road organisation) ने पर्वत काटकर चौड़े रास्ते बनाए है इसलिए सफ़र अच्छा चल रहा था। लेकिन बर्फ हटाने चले मशीनों की वजह से सड़क कहीं कहीं टूटी थी जिन्हें ठीक करने में बीआरओ सक्रिय था। आगे समुद्र से ११६५९ फ़ीट की ऊँचाई पर झोजिला झीरो पॉइंट आया। जिसे पार कर हम झोजिला मेमोरियल होकर गुज़रे। फिर द्रास सेक्टर शुरू हुआ। सड़क की बायीं तरफ़ टाइगर हिल को देखा जहां १९९९ में भारत पाकिस्तान जंग हुई थी। हमारे वीर जवानों ने शहीद होकर सरहद की रक्षा की थी।वहाँ से थोडे ही आगे चलकर हम कारगिल वॉर मेमोरियल द्रास पहुँचे। १५-२० टुरिस्ठ थे।रजिस्ट्रेशन करवाया, एक जवान ने हमारा मार्गदर्शन किया। वहाँ की प्रदर्शनी देखी। जंग का इतिहास पढ़ा। जंग में शहीद होकर जंग जीतनेवाले माँ भारती के वीर सपूतों की वीर भूमि पर नमन कर श्रद्धांजलि अर्पित की और वापस चल दिए। दोपहर का एक सवा बजा था। अगर आगे कारगिल जाते तो रात्रि विश्राम वही करना तय था लेकिन वापसी सरल थी इसलिए हमारी कार श्रीनगर लौट चली।
जाते वक्त हमारे संग चल रही एक नदी हमें अचरज दे रही थी। सिंधु पश्चिम की और बह रही थी और यह पूरब की ओर? कौन है? कार रोक एक पहरेदार को पूछा तो पता चला की यह शिंगो नदी है जो पाकिस्तान की पहाड़ियों से आकर आगे जाकर द्रास में मिलती है। द्रास सुरू में मिलती है और सुरू मरोल पाकिस्तान में सिंधु को जा मिलती है। ऊँचे ऊँचे बर्फीले पहाड़ों से पिघलते बर्फ का पानी उसके बहाव को बढ़ा रहा था। चंचल कन्या सी वह इतनी मनोहर लगी की हमने उसके जल का स्पर्श किया, आँखों पर लगाया और जल का आस्वादन किया। फिर आगे बढ़कर, झोझिला मेमोरियल, झोझिला ज़ीरो पॉइंट, केप्टन मोड़, इन्डिया गेट को पार कर कश्मीर क्षेत्र में प्रवेश किया। केप्टन मोड़ से उपर से नीचे की ओर दिख रही सर्पाकार सड़कें इतनी सुंदर लग रही थीं की एक फ़ोटो फ़्रेम बन जाए। हमारी वापसी तेज़ रही। सुबह जाते वक़्त जो सड़क सूखी थी उस पर अब पानी बह रहा था। सूरज की गर्मी से सड़क के बगल जमी बर्फ पिघलने से सड़क पर पानी का बहाव चल रहा था। सड़क के बगल की बर्फ आज भी एक दो मंजिला इमारत जितनी ऊँची थी, सोचो सर्दियों में कैसी होगी, सड़कों पर कितनी जमी होगी? सब बर्फ की चादर में ढक जाता है। बीआरओ बर्फ काटकर यातायात बनाये रखता हैं यही उनकी कार्यक्षमता का बड़ा प्रमाण है।
जल्द वापस लौटने के चक्कर में हमने लंच को छोड़ा और सोनमर्ग पार किया। यहाँ कुछ पर्यटक थे लेकिन ज्यादा नहीं। सीज़न बैठने का असर यहीं पर भी था। सोनमर्ग पार कर जब हम रेस्टोरेंट ताज इन पर पहुँचे तब दोपहर के साढ़े तीन बज चुके थे। भूख और सफ़र की थकान की वजह से मुँह उतरे हुए थे। मेनू में पनीर और वजवान के व्यंजन थे। हमें पनीर खाना नहीं था और वजवान हमारे काम का नहीं था। इसलिए हमने कश्मीरी वेज पुलाव ऑर्डर किया। लेकिन पुलाव जब आया तो उसमें सब्ज़ी के बदले अमूल का पनीर था। जिस रेस्टोरेंट के पराठे ने हमारा दिल सुबह जीता था उसके पुलाव ने शाम होते होते तोड़ दिया। शायद मरी भूख में हम ईंधन डाल रहे थे। वक्त था इसलिए शकील ने ₹३५० देकर कार धुलवाई और फिर हम चल दिए। रास्ते में एक जगह रुक कर हमने सिंधु नदी के जल का स्पर्श किया, उसे नमन किया। एक जगह गंदरबल लव पॉइंट पर फ़ोटो खींची और श्रीनगर के बाज़ार को पार कर सोनवर सर्किट हाऊस के हमारे कमरे में प्रवेश किया तब शाम के साढ़े सात बज रहे थे। सुबह साढ़े सात से शाम साढ़े सात, बारह घंटे का सिंधु घाटी, सुरू घाटी और द्रास घाटी का यह सफ़र रोचक, रोमांचक और अविस्मरणीय रहा।
पूनमचंद
६ मई २०२५
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